क्या ऐसा संभव हैं कि एक सामान्य गृहस्थ के घर में राधिका संग भगवान कृष्ण विराजे। सामान्य सा उत्तर हैं - कभी नहीं,कदापि नहीं, पर मैंने अनुभव किया हैं कि ऐसा संभव हैं। गर सामान्य व्यक्ति अपने कर्म को भगवान कृष्ण के लिए, और उनकी ओर से, उन्हीं को समर्पित कर दे, तो ऐसा संभव हो जाता हैं। कोयलांचल से हमारा नाता 2000 ई. में तब जूड़ा। जब मैं दैनिक जागरण का ब्यूरो प्रमुख बना। उसी समय अपने कार्यालय में उस वक्त भाजपा से जूड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता विजय झा से मुलाकात हुई थी। तभी से लेकर आज तक जो उनसे अंतरंगता बढ़ी, वो बढ़ती ही चली जा रही हैं। इन बारह सालों में कई बार, मैं उनके घर पर गया था, समाचार संकलन हेतु, पर ऐसी अनुभूति कभी नहीं हुई। जैसा कि इस बार हुआ हैं। शायद ऐसा इसलिए हो सकता हैं कि पूर्व में, मैं जब भी गया, तो ज्यादातर उनके घर में बैठा नहीं, बस नीचे ही नीचे, उनसे बात की समाचार संकलन किया और चलते बने। पर इन दिनों उनके घर में मैं पिछले एक सप्ताह से प्रवास पर हूं और जो मैंने अनुभव किया, वो मैं इस अपने ब्लॉग में लिखे बिना नहीं रह सकता। इस आलेख को पढ़नेवाले - सोचनेवाले इस लेखन के कई अर्थ निकाल सकते हैं, वे इसके लिए स्वतंत्र भी हैं, पर मेरी अनुभूतियों को उनकी सोच परतंत्र कर दें, ऐसा संभव नहीं।
इन दिनों मैं अपनी पत्नी की बीमारी से थोड़ा चिंतित हूं। रांची में कई जगह इलाज कराया, पर जिस प्रकार का अर्थयुग हैं, उससे सही इलाज कराना, आज के युग में संभव नहीं हैं। हर जगह प्रोफेशनलिज्म ने ऐसा बाह्यांडबर तैयार किया हैं कि सामान्य व्यक्ति, इलाज के दौरान सहज रुप से मौत का साक्षात्कार भी कर लेता हैं, पर मैंने हर प्रकार से सोचा कि अपनी पत्नी का इलाज कहां कराउं। प्रभु की कृपा हुई, अचानक मैंने विजय जी को फोन लगाया। उन्होंने कहा कि आप तुरंत उनको लेकर, यानी पत्नी को लेकर कतरास आ जाये, यहां आराम से इलाज हो जायेगा, चिंता की कोई बात नहीं। 23 जनवरी को वनांचल एक्सप्रेस से हम दोनों कतरास पहुंचे और उनके आवास पर उस रात्रि से जो समय बिताना शुरु किया। जैसे लगा कि मैं किसी घर में नहीं बल्कि राधिका और श्रीकृष्ण के चरणकमलों के नीचे सोया हुआ हूं, क्योंकि जहां हमने शयन किया था, वहां भगवानश्रीकृष्ण राधिका संग चित्र में इस प्रकार विराजमान थे, कि उनके चरणकमल, मेरे मस्तक को छू रहे थे। ऐसे तो विजय झा के घर में जिधर देखिये, उधर ही श्रीकृष्ण, राधिका संग विराजते दीखते हैं। कहीं बालस्वरुप में तो कहीं युवास्वरुप में। सचमुच धन्य हैं, वे लोग जिन पर हरि इतनी कृपा लूटाते हैं, औरों के साथ ऐसा क्यूं नहीं होता। ऐसे में हमें गोस्वामी तुलसीदास विरंचित श्रीरामचरितमानस की वो चौपाई अनायास याद आती हैं, जिसमें विभीषण जी, हनुमान से कहते हैं कि --------
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरि कृपा मिलहि नहि संता।।
अर्थात हे हनुमान जी अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि बिना ईश्वरीय कृपा के सज्जनों से मुलाकात नहीं होती।
सचमुच इन दिनों में ईश्वर से प्रतिदिन साक्षात्कार करता हूं। विजय झा की पत्नी डा. शिवानी झा, एक अच्छी चिकित्सक हैं, और उन्होंने कोयलांचल के कतरास इलाके की माताओँ और बहनों पर बड़ी कृपा लुटाती हैं, वो मेरे आंखों ने देखे हैं, यहीं कारण है कि यहां की सामान्य जन उन्हें बहुत सम्मान देती हैं। ये श्रीकृष्ण से इतना प्रेम रखती हैं कि उन्होंने अपना निजी अस्पताल के नामकरण ही भगवान कृष्ण के नाम से कर दिया हैं। उन्होंने अपने चिकित्सालय का नाम ही रखा हैं -- कृष्णा मातृ सदन। ज्यादातर डाक्टरों को देखिये तो अपने चिकित्सालयों के नाम - नर्सिंग होम, या अस्पताल, या हास्पिटल वगैरह - वगैरह रख देते हैं, पर यहां तो भारतीय धर्म और संस्कृति का मूल ध्येय वाक्य -- सेवा का स्पष्ट रुप ही झलक जाता हैं। जरा गोस्वामी तुलसीदास की पंक्तियां को समझे ---
दया धर्म का मूल हैं, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोडि़ये, जब तक घटि में प्राण।।
लोग ये क्यूं भूल जाते हैं, धर्म का मूलस्वरुप दया हैं, गर आपने करुणा व दया हृदय में रखा तो जीवन धन्य, नहीं तो आप खुद अपने ही हाथों, अपनी चित्ता क्यूं सजा रहे हैं। जरुरत हैं, अपने हृदय को पवित्र बनाने की, ताकि आपके घर में भी, आपके घर के हर कमरे में, राधिका संग भगवान श्रीकृष्ण विराज सकें।