Monday, February 28, 2011

राष्ट्रीय खेल के शानदार आयोजन पर झारखंड को बधाई..............

झारखंड की आज सभी मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहे हैं, प्रशंसा हो भी क्यूं नहीं। झारखंड ने वो कर दिखाया है, जिसकी आशा किसी को न थी। जब तक राष्ट्रीय खेल शुरु नहीं हो पाया था, राज्य व देश के कई समाचार पत्रों में झारखंड की तीखी आलोचना हो रही थी, कि झारखंड ऐसा प्रांत है, जहां राष्ट्रीय खेल भी यहां की सरकार आयोजन नहीं करा पाती, जो शर्मनाक है, पर आज जब राष्ट्रीय खेल संपन्न हो चुका है, सभी की बोलती बंद है। कमाल की बात ये है कि राष्ट्रीय खेल प्रारंभ से लेकर संपन्न होने तक झारखंड सुर्खियों में रहा है, जिस कारण हमें बड़ी प्रसन्नता हो रही है। इस राष्ट्रीय खेल के दौरान जो कौतूक हमने देखे, उसका जिक्र मैं कर देना आवश्यक समझता हूं।
पहली बात कामनवेल्थ गेम्स देश की राजधानी दिल्ली में जब चल रहे थे, तो वहां दर्शकों और खेलप्रेमियों को टोटा नजर आता था। वहीं रांची के खेलगांव में, वलर्ड कप अंतराष्ट्रीय क्रिकेट के समय पर भी, यहां के झारखंडियों ने राष्ट्रीय खेल में दिलचस्पी ली, स्थिति तो ऐसी हो गयी कि एक दिन इतने खेलप्रेमी आ गये कि खेलगांव ही छोटा पड़ गया। खेलप्रेमियों ने खेलगांव में प्रदर्शन किया, हद हो गयी, खेलप्रेमियों के विशाल समूह ने, खेल न देख पाने से आक्रोशित होकर हंगामा तक खड़ा कर दी, पुलिस को लाठी चार्ज तक करनी पड़ गयी। यहीं नहीं इसी राष्ट्रीय खेल के दौरान जब महाराष्ट्र और झारखंड के बीच खेल में दर्शकों ने बेईमानी होती देखी तो उसके भी खिलाफ, यहां के दर्शकों ने अपना गुस्सा उतारा। इससे स्पष्ट है अथवा हम कह सकते हैं कि ऐसा दृश्य भारत के किसी भी प्रांत में अथवा नगर में राष्ट्रीय खेलों के दौरान आज तक देखने को नहीं मिला है। ये घटना इस बात की संकेत है कि यहां के लोग खेल को किस प्रकार से लेते है।
दूसरी बात, इसमें कोई दो मत नहीं कि यहां के अधिकारियों ने दिल से काम किया और अंतर्राष्ट्रीय तरह का स्टेडियम, खड़ा कर दिया। पर ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर के स्टेडियम कितने दिनों तक टिके रहेंगे, ये तो समय बतायेगा। पर जनता जानना चाहती हैं कि इसके अंदर की बात। पूरे राष्ट्रीय खेल पर शुरुआत से लेकर संपन्नता तक, क्या खर्च हुए, कैसे खर्च हुए, इस पूरे प्रकरण पर श्वेत पत्र तो अवश्य जारी होना चाहिए। यहां के नेताओं ने करीब करीब सत्तापक्ष या विपक्ष सभी ने यहां के अधिकारियों को बधाई दी है, पर सच्चाई ये भी हैं कि इन अधिकारियों और सत्तापक्ष व विपक्ष के नेताओं ने जिस प्रकार से उद्घाटन समारोह और समापन समारोह में अपने अपने चहेतो को दिल खोलकर पास दिये, मुफ्तखोरी का मजा लिया तथा जिस प्रकार पुलिसकर्मियों को राष्ट्रीय खेलों के दौरान अपने परिवारों की सेवा में लगा दी। वो दृश्य जनता भूली नहीं है।
राष्ट्रीय खेल को देखते हुए, हमें लगा था कि यहां झारखंड में परिवर्तन दिखेगा, पर हमें परिवर्तन नहीं दिखा। कुड़ें कर्कट आम दिनों की तरह सड़कों पर दीखे, रोड जाम आम दिनों की तरह था, सड़कों पर बने गड्ढे सरकार के चरित्र को दर्शा रहे थे, स्ट्रीट लाईट कहीं जल रही थी तो कहीं बूझी थी। ट्रैफिक लाईट तो कभी काम ही नहीं की और जब काम करनी शुरु की, तब तक राष्ट्रीय खेल अवसान की ओर चल पड़ा था। सड़कों पर चलनेवाले टेम्पूचालकों और बसचालकों ने तो कसम खा ली थी कि वे नहीं सुधरेंगे, इसलिए वे सुधरें नहीं, वे हर उस काम को किये, जिससे यातायात के नियमों के उल्लंघन होते थे, पुलिसकर्मी भी सोच लिये थे कि भला कुत्ते के पूछ भी कहीं सीधे होते हैं, इसलिए उन्होंने इन्हें सीधी करने की कोशिश भी नहीं की। एक पुलिसकर्मी ने कहा कि भला राष्ट्रीय खेल आज हो रहा है, कल खत्म हो जायेगा, उन्हें तो नौकरी यहीं बजानी है, गर किसी टेम्पू अथवा बस के मालिक ने, उसी के बॉस से शिकायत कर दी, तो फिर लेने के देने पड़ जायेंगे, कहीं ऐसी जगह बदली हो गयी तो फिर नक्सली के आगे बैंड कौन बजाये। राष्ट्रीय खेल हो जाना, ये तो होना ही था, ये कौन सी बड़ी बात हैं, जिसके लिए लोग एक दूसरे को श्रेय दे रहे हैं तो दूसरा श्रेय लेने के लिए तिकड़मबाजी कर रहा हैं। सच्चाई ये हैं कि जिस प्रकार से राष्ट्रीय खेल का आयोजन होना चाहिए, जैसी व्यवस्था करनी चाहिए, वैसी हुई ही नहीं।
पहली बार हमने देखा कि राष्ट्रीय खेल से दिल्ली की केन्द्र सरकार, यानी भारत सरकार दूरी बनायी रखी, यहां तक केन्द्रीय खेल मंत्री ने भी इस राष्ट्रीय खेल के आयोजन में आना जरुरी नहीं समझा। कहनेवाले कह सकते हैं कि केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रुप में सुबोध कांत सहाय तो मौजूद ही थे, पर क्या यहां की जनता को नहीं मालूम की रांची संसदीय सीट का प्रतिनिधित्व सुबोधकांत सहाय करते हैं और वे राष्ट्रीय खेल आयोजन समिति से भी जूड़े है, इसलिए उनका केन्द्र सरकार की ओर से प्रतिनिधित्व करने का सवाल ही नहीं उठता। पूर्व में राज्य सरकार ने राज्य की जनता को भरोसा दिलाया था कि भारत की राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री में से कोई न कोई, राष्ट्रीय खेल के उद्घाटन अथवा समापन समारोह में जरुर पहुंचेगा, पर खेल समाप्त हो गया, इन बड़े – बड़े महानुभावों को छोड़ दीजिये, केन्द्रीय खेल मंत्री ने भी, इसमें अपना योगदान देना उचित नहीं समझा, क्यूं नहीं समझा। ये केन्द्रीय खेल मंत्री ही बता सकते है। पर आम जनता इतना जरुर जानती हैं कि इन सब का न आना खेल की राजनीति का एक अंग है। शायद केन्द्र सरकार के नेताओं व मंत्रियों को यहां के कुछ नेताओं ने फीडबैक दिया होगा कि पूरे इस राष्ट्रीय खेल को राज्य सरकार ने हाईजैक कर लिया है, इसलिए उनका यहां आना ठीक नहीं होगा, जिसकी वजह से केन्द्र के नेताओं अथवा मंत्रियों ने झारखंड में आयोजित राष्ट्रीय खेल से ऐसी दूरी बना ली कि जिसकी जितनी आलोचना की जाये, कम है। हालांकि केन्द्र के नेता अपने बचाव के लिए, अनेक डायलॉग संभाल कर रखे हैं, जिसमें एक संवाद तो सुरेश कलमाडी से जूड़ा है।
मैं बता देना चाहता हूं केन्द्र और राज्य सरकारों को। कि वे कृपया खेल में राजनीति न आने दें, नहीं तो उनका सत्यानाश हो या न हो पर खेल का सत्यानाश अवश्य हो जायेगा।
झारखंड में आयोजित राष्ट्रीय खेल ने एक और वाकया आम जनता के समक्ष पेश किया। जो भारत के राज्य सामाजिक और आर्थिक विकास के पायदान पर पहले और दूसरे स्थान पर हैं, यानी गुजरात और बिहार वे खेलों के मामले में फिसड्डी साबित हुए हैं, जबकि खेलों के मामले में मणिपुर जैसा पिछड़ा राज्य अग्रगणी बन गया। ये बता रहा हैं कि आनेवाले समय में, खासकर खेलों में मणिपुर क्या करने जा रहा है। हमें ये समझ में नहीं आता कि जो राज्य, जैसे गुजरात और बिहार सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में प्रगति कर रहे हैं तो उनका ध्यान खेलों की ओर क्यूं नहीं हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन राज्यों ने पूर्व के समय में प्रचलित कविता को कंठस्थ कर लिया हैं कि
पढ़ोगे लिखोगे, होगे नवाब
खेलोगे कूदोगे, होगे खराब
और इसी आधार पर, वे चलते चले जा रहे हैं। इन राज्यों को सोचना चाहिए कि विकास समग्रता में होनी चाहिए। इस राष्ट्रीय खेल में सर्विसेज के बाद पूरे राज्यों में भारत का पूर्व का छोटा राज्य मणिपुर 48 स्वर्ण, 37 रजत, 33 कांस्य यानी कुल 118 पदक जीतकर प्रथम स्थान पर रहा, जबकि गुजरात एक भी स्वर्ण नहीं जीत सका। गुजरात 3 रजत और 4 कांस्य पदक यानी मात्र सात पदक ही जीते, जबकि बिहार एक स्वर्ण, पांच रजत और 6 कांस्य पदक जीतकर मात्र बारह पदक जीतने में ही सफल रहा। बधाई झारखंड को, इस बात के लिए, जहां कल तक खेल का माहौल नहीं था, सरकार ने खिलाड़ियों को, अपनी ओर से कुछ भी नहीं उपलब्ध कराया था। पर झारखंड की जनता की जोश, उमंग और उत्साह ने खिलाड़ियों का ऐसा उत्साहवर्द्धन किया कि पदक तालिका में झारखंड 33 स्वर्ण, 26 रजत, 37 कांस्य यानी कुल 96 पदक जीतकर पांचवा स्थान प्राप्त किया। बिना किसी सरकारी सहायता के पांचवा स्थान प्राप्त कर लेना कोई सामान्य बात नहीं, इसलिए झारखंड के खिलाडी बधाई के पात्र है।
चलिए राष्ट्रीय खेल, झारखंड में संपन्न हो चुका है। सभी खेल से जूड़े अधिकारी, राज्य सरकार, पुलिसकर्मी और इससे जूड़े सभी अन्य लोग, आराम के मूड में होंगे, पर इतना तो तय हैं कि दक्षिण के एक छोटे से राज्य केरल ने रांची में राष्ट्रीय खेल के दौरान आयोजित समापन समारोह में, अपने प्रांत की एक सांस्कृतिक झलक दिखाकर, यहां के नेताओं, मंत्रियों और अधिकारियों को बता ही दिया कि उनका प्रांत आनेवाले राष्ट्रीय खेल को किस प्रकार ले रहा है और उसकी आयोजन किस प्रकार की है। कम से कम यहां की सरकार को तो इससे सबक लेनी ही चाहिए।
अंत में, एक बात और, यहां के नेता व मंत्री, पता नहीं कब भाषणबाजी करना बंद करेंगे। इनकी आदत होती है. चाहे वो जगह भाषणबाजी की हो अथवा न हो। ये भाषणबाजी करेंगे, जरुर। चाहे दर्शकों को, उनकी भाषणबाजी पसंद आये या नहीं, ये अपनी भाषणबाजी की जन्मघूंटी पिलायेंगे, जरुर। आश्चर्य इस बात की हैं कि जब जनता इनके भाषण को पसंद नहीं कर रही होती, और हूड करती हुई ताली बजाती हैं, तो इन नेताओं को लगता हैं कि जनता उनकी भाषण को पसंद कर रही होती है। राष्ट्रीय खेल के समापन समारोह में इसकी झलक भी मिली, जब एक नेता के भाषण के दौरान, आम जनता ने खुब हुल्लडबाजी की, पर यहां के नेता, इससे सबक लेंगे, हमें नहीं लगता।

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