Thursday, July 22, 2010

नेता, मीडिया व हमारा बिहार

ऐसे तो देश के ज्यादातर नेताओं का चरित्र एक जैसा ही होता हैं। वे अपने लिए हर विकल्पों की तलाश कर लेते हैं, और जब इन पर सामूहिक तौर पर संकट आता हैं, तो वे उससे बचने के लिए एक होकर, एकता के सूत्र में बंध जाते हैं। जब इनकी चर्चा नहीं होती, तो ये तरह तरह के हथकंडे अपनाते हैं कि वे सूर्खियों में रहे, और इसके लिए सदन की गरिमा तक को ताक पर रख देते हैं। इसके लिए किसी एक पार्टी को दोष देना मूर्खता को सिद्ध करने के बराबर हैं, क्योंकि देश में कोई ऐसी पार्टी नहीं जो कह सकें कि वो सिद्धांत और जनसरोकार से संबंधित राजनीति कर रही हैं। हम यहां एक एक कर यथासंभव सभी राष्ट्रीय पार्टियों की चल रही राजनीति पर चर्चा करेंगे।
सर्वप्रथम – वामपंथी पार्टियों को ले लें. सांप्रदायिकता का विरोध करनेवाली पार्टी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी जिसकी सरकार बंगाल में पच्चीस वर्षों से चल रही हैं, यहां जब कुछ मुट्ठीभर अल्पसंख्यकों ने तसलीमा नसरीन के खिलाफ सड़कों पर उतरने की कोशिश की, तब इसी पार्टी ने अल्पसंख्यकों के वोट बिदक जाने के भय से तसलीमा नसरीन को बंगाल से निर्वासित कर दिया, और जब सरस्वती, लक्ष्मी और हमारे देवी-देवताओं को नग्न चित्र मकबूल फिदा हुसैन ने बनाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मकबूल फिदा हुसैन के साथ ये सभी हो लिये। ये हैं वामपंथियों को चरित्र।
कांग्रेस के क्या कहने, सरकार बचाने के लिए हाल ही मे मनमोहन सिंह और उनकी मंडली ने क्या किया, पूरा देश देखा, जब सदन में नोटों की बंडल दिखाई पड़ी, जिसका विजूयल एक राष्ट्रीय चैनल के पास था, पर उसने पत्रकारिता धर्म का निर्वहन न कर किस धर्म का निर्वहण किया, ये वो खुद जाने, पर जैसे ही, आरोप प्रत्यारोप का दौर चला, उक्त राष्ट्रीय चैनल ने वे सारे दृश्य दिखाये पर तब तक देर हो चुका था, कांग्रेस अपना काम कर चुकी थी।
यहीं कांग्रेस नरसिंहराव के शासन में झामुमो के सांसदों को कैसे सरकार बचाने के लिए क्या सौदा की थी, उसके बारे में भी सारा देश जानता हैं।
हाल ही में महाराष्ट्र विधानसभा में जब समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने हिन्दी में शपथ लेनी चाही तब वहां महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायकों ने जिस प्रकार उक्त विधायक के साथ दुर्व्यवहार किया और इस मामले में मनसे के विधायकों का सदन से निलंबन हुआ, फिर उनकी निलंबन समाप्त कर दी गयी, इसमें कैसे मनसे और कांग्रेस के लोगों ने गुपचुप समझौते किये, इसके बारे में भी यहां की जनता जानती हैं।
इसलिए यहां के राजनीतिक दलों से मर्यादा, चरित्र और आदर्श की परिकल्पना संजोना, मूर्खता से कम नहीं हैं. ये सदन में मर्यादा, चरित्र और आदर्शवाद की स्थापना करने नहीं जाते, ये जाते हैं, सिर्फ और सिर्फ हठधर्मिता को स्थापित करने की, इस हठधर्मिता में देश व प्रांत का सम्मान चला जाये, उनकी बला से, उन्हें सम्मान से क्या मतलब।
झारखंड विधानसभा जहां के विधायक पूरे देश में सर्वाधिक वेतन उठाते हैं, उन्होंने हाल ही में बजट सत्र के दौरान अपना वेतन बढाने के लिए सरकार से इसी बजट सत्र में प्रस्ताव लाने की बात कहीं, इस मुद्दे को सदन में सभी विधायकों के सौजन्य (भाकपामाले छोड़) से राजद विधायक सुरेश पासवान ने उठाया ये अलग बात है कि सुरेश पासवान की आवाज पर सदन नें तत्काल मुहर नहीं लगायी और अब देश की लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों के वेतन पांच गुणा बढे, इसकी चर्चा जोरों पर हैं।
ऐसे तो अब पूरे देश के विभिन्न विधानसभाओं में मेजे पलटने, माइक तोड़ने, विधेयक की प्रतियां फाड़ने, राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान, राज्यपाल के उपर ही कागज के पन्ने फाड़ कर फेंकने की बात आम बात हो गयी हैं। अपने ही विधायक मित्रों के बांह मरोड़ने, उन पर गंदी गंदी छीटाकशीं करने, जान से मार देने की धमकी अब आम बात हो गयी हैं तथा पूरे विधानसभा को युद्धभूमि बना देने के दृश्य आम बात हो गये हैं, और इससे अब शायद ही कोई विधानसभा बचा रह गया हैं, हालांकि इसका प्रभाव अब लोकसभा पर भी पड़ने लगा हैं।
उत्तरप्रदेश, झारखंड, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार में ये दृश्य आम हो गये हैं, पर हमारे जनप्रतिनिधियों को शर्म नहीं। शर्म आयेगी कैसे शर्म तो एक गहना हैं, जिसे पहनकर ही शर्म आ सकती हैं, जब शर्म का गहना किसी ने पहना ही नहीं तो उसे शर्म कैसा। जरा देखिये, बिहार की -------------
20 जूलाई को विपक्षी दलों ने बिहार विधानसभा में मेजे पलट दी, कुर्सियां तोड़ दी, हाथापाई की, मारपीट की, और ठीक 21 जूलाई को विधानसभाध्यक्ष के उपर चप्पल फेंक दी, एक महिला विधायक तो इतनी आक्रोशित थी कि अपना गुस्सा वो गमले पर उतार रही थी, जो विधायक इस प्रकार की हरकतें कर रहे थे, क्या बता सकते हैं कि उनके इलाके की जनता उन्हें इसी प्रकार के आचरण करने के लिए विधानसभा भेजती हैं क्या। या किसके इशारे पर वे ऐसी हरकतें कर रहे थे। आश्चर्य इस बात की भी, जिन पार्टियों के विधायक ऐसी गंदी हरकते कर रहे थे, उन पार्टियों के नेता टीवी पर बयान दे रहे थे, कि उन्होंने अथवा उनकी पार्टियों के नेताओं व विधायकों ने ऐसा कुछ नहीं किया, जब कुछ नहीं किया तो क्या टीवी में उनके डूप्लीकेट काम कर रहे थे क्या।
इस घटना के बाद एक बात और सामने आयी हैं कि ऐसी हरकते विधायक इसलिए करते हैं कि वे टीवी के माध्यम से सभी जगह छा जाये, उनकी चर्चा हो, हो सकता हैं इसमें कुछ सच्चाई भी हो, क्योंकि जब से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने अपनी जगह मजबूत बनायी हैं, ऐसी हरकते ज्यादा देखने को मिल रही हैं, क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया उन खबरों को नहीं दिखाती, जिससे जनसरोकार हो, वो तो ऐसी ही चीजे ढूंढती हैं, जिससे कुछ दिनों तक माहौल गरमाया रहे, लोग मीडिया से चिपके रहे, और बाकी सारी महत्वपूर्ण मुद्दे गौण हो जाये। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। सभी को मीडिया के अंदर छा जाने का एक फैशन चल पड़ा हैं विधायकों में मर्यादित आचरण कर नहीं, बल्कि अमर्यादित आचरण कर शोभा पाने की इच्छा बलवती होती जा रही हैं। जो शर्मनाक हैं।
कमाल हैं, भले ही जिन बातों को लेकर विपक्ष गर्म था, उसे शांतिपूर्वक बातों से सदन में ही, अपना विरोध वे दर्ज करा सकते थे, पर एक दूसरे को बाहुबल से देख लेने की क्षमता, ये कहां से आ रही हैं, इन विधायकों में। मुझे समझ में नहीं आ रहा। हमें लगता हैं कि शायद जनता जान रही हैं क्योंकि पांच साल पूरे होने को हैं, क्या सत्तापक्ष और विपक्ष सभी जनता की नजरों में नंगे हो चुके हैं, सभी अपने अपने चेहरे को चमकाने में लगे हैं, एक को नरेन्द्र मोदी के संग फोटो छप जाने पर अपना चेहरा गंदा नजर आने लगता हैं और वो अपना चेहरा चमकाने के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आग – बबूला होता हैं, और वो इसके लिए गुजरात की जनता की ओर से मिली हुई बाढ़पीड़ितों की सहयोग राशि लौटा देने से भी गुरेज नहीं करता, तो दूसरी ओर विपक्ष देखता हैं कि भाई उसे तो अपना चेहरा चमकाने का मौका ही नहीं मिला, इसलिए महालेखाकार की रिपोर्ट का ही आश्रय लेता हैं, कहता है कि घोटाला हुआ हैं और लगे हाथों विधानसभा की मर्यादा का चीरहरण करता हैं, आश्चर्य इस बात की हैं कि इस चीरहरण में मीडिया भी अपना हाथ सेंक रहा होता हैं, और ताली ठोकने से परहेज तक नहीं करता।
अंत में एक और बात ---
जिस दिन भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक हो रही थी, भाजपा के बड़े नेता जनता को संबोधित कर रहे थे, मैंने नौ बजे की रात, एक प्रादेशिक चैनल का प्राईम टाईम खोला कि देखूं कि आज का क्या – क्या महत्वपूर्ण समाचार हैं, मैने देखा कि आधे घंटे की बूलेटिन में नीतीश कुमार का भाषण ही बीस मिनट तक चलता रहा, जब मैंने उक्त चैनल के डेस्क पर बैठे लोगों से बातचीत की कि भाई आज के प्राईम न्यूज में केवल नीतीश ही दिखाई पड़ेंगे क्या, उनका कहना था कि भाई पेड न्यूज हैं, यानी न्यूज फारमेट में विज्ञापन चल रहा हैं, तो कम से कम इस नौ बजे के न्यूज में ज्यादा समय नीतीश ही दीखेंगे, और समाचारों के लिए आगे की बुलेटिन देखिये।
जरा सोचिये, जहां सभी चरित्र, संस्कार और आदर्श की श्रद्धांजलि दे दिये हो, वहां इस प्रकार की हरकतें होगी ही, तो फिर बिहार में ऐसा हुआ, फलां जैसा वहां हुआ, इस प्रकार का विधवा प्रलाप मीडिया क्यूं कर रहा हैं, इसके लिए तो सभी दोषी हैं, इस हमाम में सभी नंगे हैं, बस डूबकी लगाने भर की देर हैं।

Friday, July 16, 2010

घर का जोगी जोगरा, बाहर का जोगी सिद्ध।

चपन में पढ़ा था, आज महसूस कर रहा हूं। बिहार में एक लोकोक्ति खूब चलती हैं। घर का जोगी जोगरा, बाहर का जोगी सिद्ध। आप भले ही काबिल हो, आप में किसी संस्थान अथवा समाज को नयी दिशा देने की ताकत हो, पर गर आप घर में हैं, तो प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, ये अलग बात हैं कि बाहर जाकर आप अपना लोहा मनवा लें और फिर जब अपने प्रांत में पांव रखें तो ये ही जो आपको नापसंद करते थे, आपकी चापलूसी और चरणवंदना में सबसे आगे रहेंगे। हमें बड़ी खूशी होती हैं कि जब बिहार में कुछ नया होता हैं, चाहे वो राजनीति की विसात हो, अथवा सामाजिक सांस्कृतिक की बात। एक साल पहले किसी ने हमसे कहा कि एक बिहार का ही व्यक्ति पटना से एक चैनल ला रहा हैं, बड़ी खुशी हुई चलो अच्छी बात हैं एक नयी शुरुआत हो रही हैं, बिहार मीडिया के क्षेत्र में नया कदम बढ़ा रहा हैं, पर जैसे ही पता चला कि वहां महत्वपूर्ण पद पर एक बिहार के बाहर के व्यक्ति को बैठा दिया गया, हमें समझते देर नहीं लगी कि यहां वहीं कहावत चरितार्थ होने जा रहा हैं, घर का जोगी जोगरा बाहर को जोगी सिद्ध. और अब तो ये सोलह आने सच होता जा रहा हैं. जनाब बिहार के बारे में बिहार के लोग बेहतर जानेंगे या अन्य प्रदेश के लोग। बिहार की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धरोहरों को बिहार के लोग बेहतर जान सकते हैं या अन्य प्रदेश के लोग। जाहिर सी बात हैं – बिहार के बारे में यहीं के लोग बेहतर जान सकते हैं, न कि दूसरे जगहों के। मैंने देखा हैं कि कैसे दक्षिण के हैदराबाद से संचालित एक चैनल ने बिहार से संबंधित चैनल खोलनी चाही तो उसने बिहार के ही एक व्यक्ति और इलेक्ट्रानिक मीडिया में महारत हासिल व्यक्ति गुंजन सिन्हा को उसकी प्रमुख जिम्मेदारी सौंप दी, नतीजा सामने आया, जब तक गुंजन सिन्हा उस चैनल में रहे, चैनल बिहार और झारखंड में एक नबंर पर रहा। आखिर क्या वजह रही कि दक्षिण से संचालित चैनल बिहार व झारखंड में समाचारों के लिए हर बिहारियों की जगह में दिल बना लिया। स्पष्ट हैं कि उस व्यक्ति ने बिहार की परंपरा और संस्कृति को जीवंत बनाने के लिए वो चीजें लाकर खड़ा कर दी, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। आज भी उस चैनल के बिहार गौरव गाथा जब उक्त चैनल पर चलती हैं तो हर बिहारी शान से कह उठता हैं -------
ये हैं मेरा बिहार, ये हैं मेरा बिहार
आखिर ये छोटी सी बात, हम बिहारियों को क्यूं समझ में नहीं आती, हम अपने लोगों को अपने ही घरों में इज्जत क्यों नहीं देते, आखिर कब तक हम अपनी ही घरों में गैरों को शान से बैठाकर अपनी ही छाती पर मूंग दलवायेंगे और अपनो को कहेंगे, कि आपका काम हो गया, बाहर का रास्ता देखे। क्या लोगों को फिल्म जुदाई का वो गाना याद नहीं कि
अपनो को जो ठुकरायेगा, गैरो की ठोकरे खायेगा।
एक पल की गलतफहमी के लिए, सारा जीवन पछतायेगा।
क्या कर्मफल का सिद्धात अथवा न्यूटन का तीसरा सिद्धांत भी लोगों को नहीं मालूम कि क्रिया तथा प्रतिक्रिया बराबर और विपरीत दिशा में होती हैं। क्या विद्यापति के गीत लोगों को नहीं मालूम, क्या उनके ये भाव भी लोगों को नहीं मालूम जो कहता हैं कि --------
देसी बयना सब जन मिट्ठा
गर ये सब नहीं मालूम तो जान लीजिए, रामचरितमानस की वो पंक्ति जो लंकाकांड से उद्धृत हैं वो एक न एक दिन सत्य होगा -------
याको फलु पावहिगो आगे। बानर भालु चपेटन्हि लागे।।
रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी।।

Saturday, July 10, 2010

अथ भड़ास कथा...


भड़ास किसकी, भड़ास की आवश्यकता क्यों, भड़ास की आड़ में कौन अपनी उल्लू सीधे कर रहा है, क्या इस प्रकार की भडास से वे पत्रकार लाभावन्वित हो रहे है जो पत्रकारिता में मर्यादा स्थापित करने का काम कर रहे है या इस भड़ास से वे चालबाज़ पत्रकार अपने सपने को साकार कर रहे है जो नहीं चाहते की देश व समाज में वैल्यू वाली पत्रकारिता स्थापित हो. इन दिनों पत्रकारों में गर कोई पोर्टल ज्यादा लोकप्रिय है तो वो है www.bhadas4media.com पर एक सच्चाई ये भी है की इसमें सत्य का बड़ी ही बेदर्दी से खून हो रहा है, जो बता रहा है की वैल्यू वाली पत्रकारिता के लिए खासकर इसमें कोई स्थान नहीं. ये साबित करने के लिए हमारे पास कई प्रमाण है, पर यहाँ तीन प्रमाणों से ही मै सब कुछ कह देना चाहता हूँ.
. आज मैंने इसी पोर्टल में पढ़ा की, "संपादक से परेशान तीन पत्रकारों ने प्रभात खबर छोड़ा". सच्चाई क्या है इसी पोर्टल में सुशील झा ने स्वयम कमेंट्स देकर बता दिया और पोर्टल पर समाचार लिखनेवालो की धज्जियाँ उडा दी. साथ ही ख़ुशी की बात हमारे लिए ये है की प्रभात खबर के पटना संपादक स्वयं प्रकाश जी और यही कार्यरत सुशील झा को मै बहुत अच्छी तरह जानता हूँ. ये दोनों भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणाश्रोत है, इनसे गड़बड़ियों की आशा करना, बेमानी है. क्योकि ये दोनों विशुद्ध रूप से पत्रकार है और धनलोलुपता एवम मर्यादाविहीन इनमे से कोई नहीं है.
ख. इसी में रांची से एक सूचना थी की "ब्राह्मण संपादक ने क्षत्रिय पत्रकारों को भगाए". मै तो जानता था की पत्रकार, सिर्फ पत्रकार होता है वो ब्राह्मण, क्षत्रिय और दलित कैसे होता जा रहा है, हमारी समझ के बाहर है. यानी आप अपने ढंग से किसी को ब्राह्मण और क्षत्रिय अथवा दलित कह कर अपमानित करते रहे. यानि गर उसने इमानदारी से कभी पत्रकारिता की भी होगी तो क्षण भर में उसे जाति में तौल कर उसे नीचे गिरा दिया. खैर आपकी मर्जी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मानमर्दन करते रहिये.
ग. ---1 जुलाई को इसी पोर्टल में एक समाचार आया की "मौर्य टीवी से 6 महीने में 8 गए". पहली बात की इसमें संख्या ही गलत थी, जानेवालो की संख्या 8 से भी ज्यादा थी. जो समाचार लिखे है वो गर मुझसे संपर्क करते तो हम बताते.
दूसरी बात जब आप लिखते है की उन्हें हटाया गया, तो हटाये जानेवाले का पक्ष भी इमानदारी से देना चाहिए. गर आप उसका पक्ष नहीं देते तो ये भी साफ़ है की आप किसकी आरती उतार रहे है.
तीसरी बात जब आपने कमेंट्स मंगाई, और लोगों ने कमेंट्स खुलकर दिए, तो उन 13 कमेंट्स को 3 जुलाई को किसके कहने पर उडा दिया. आखिर जो कमेंट्स उस पर अच्छा हो या बुरा जा रहा है, तो उससे किसको तकलीफ हो रही थी. जनाबे आली को बताना चाहिए. इसका मतलब है कि भडास4मीडिया. कॉम या तो यूज कर रहा है या यूज हो रहा है.
एक तकलीफ इस पोर्टल से मुझे कुछ ज्यादा ही होती है, वो ये की ये पोर्टल होती तो मीडियावालो के लिए पर आलेखों और कमेंट्स में जो छद्म नामों से एक - दुसरे नापसंदों के लिए जो अपशब्दों के प्रयोग होते है, वो बताते है की हम कितने शालीन और एक-दुसरे को इज्ज़त करनेवाले है. जरूरत है स्वयम को सुधारने की, जब आप सुधरेंगे, धीरे धीरे लोग आपका अनुसरण करेंगे, नहीं तो क्या होगा, शायद आप कबीर की पंक्ति भूल रहे है ------------------
बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मीलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय
।।

Monday, July 5, 2010

और महंगाई डायन खाय जात है...

"अभी अभी टीवी पर न्यूज़ देखने के दौरान एक गाना सुनने को मिला ----------------------संभवत: ये नई फिल्म का गाना है,
बोल है -------------
"सखी सैयां तो खूब ही कमात है,
और महंगाई डायन खाय जात है।"
इस गाने को सुनने के बाद मुझे मनोज कुमार कि वो फिल्म याद आ गयी ---- रोटी कपडा और मकान. जिसमे एक गाना महंगाई को लेकर था. गीत इतना प्रभावित करनेवाला था कि आज भी वो गीत सम सामयिक ही लगता है, पर उसका एक अन्तरा आज भी हमें झकझोड़ता है,
जिसके बोल है -----------
"हाय महंगाई, महंगाई महंगाई,
तू कहा से आयी,
तेरी मौत न आयी,
हाय महंगाई...................."
आज ५ जुलाई को भारत के इक्के दुक्के पार्टियों को छोड़ सम्पूर्ण विपक्ष ने महंगाई के खिलाफ भारत बंद बुलाया है, और इस भारत बंद को आप माने अथवा न माने जनता का समर्थन प्राप्त है, गर जनता का समर्थन न मिला होता तो भारत बंद का इतना व्यापक असर नहीं पड़ता. रही बात इस बंद का केंद्र सरकार पर असर पड़ता है या नहीं, ये अलग बात है, पर जनता ने अपनी राय जता दी है कि वो क्या चाहती है. पर इसके उलट एक- दो राष्ट्रीय चैनलों ने और कुछ पत्रकारों ने, इस जनसरोकार के मुद्दे पर भी, केंद्र व युपीए सरकार के पक्ष में समाचार दिखाते नज़र आये और इस जनसरोकार के मुद्दे पर आयोजित बंद को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया. इन चैनलों को महंगाई से तड़पते लोगो के विजुअल नहीं दिखाई पड़ते, दिखाई क्या पड़ती है तो ऐसी खबरे जो इस महंगाई के नाम को ही गौण कर दे. और उन्होंने बड़े ही बेशर्मी से उन समाचारों को प्रमुखता दे दी जो महंगाई के खिलाफ बंद के सवाल पर प्रश्न चिन्ह लगा दे. खैर ये लाखों करोडो में खेलनेवाले चैनल और उनके पत्रकार क्या जाने कि चावल दाल और दो जून की रोटी कमाने में भारत की ७० प्रतिशत आबादी कैसे घुट घुट कर जीती है. मैंने तो महंगाई का प्रभाव देखा है आज भी झारखण्ड के उन गलियों और कस्बों में जाकर रिपोर्टिंग की है जहा लोगो से आज भी रोटी बहुत दूर है, पर उन्हें और उनके पत्रकारों को महंगाई का दंश नहीं दिखाई पड़ता. ईश्वर से प्रार्थना है की उन चैनलों को और उनके पत्रकारों को वो सदबुद्धि दे, ताकि महंगाई और भूख जैसे मुद्दे पर वे कम से कम पत्रकारिता धर्म का पालन कर सके. क्योकि मात्र दो सालों में महंगाई ने सुरसा की तरह ऐसा मुख खोला है की वो मुख बंद होने का नाम नहीं ले रहा है. जिसका प्रभाव ये है की इस महंगाई रूपी सुरसा अथवा डायन ने भारत की गरीब जनता को लीलने को तैयार है. सरकार और नेताओं को क्या है, वे अपने लिए सारी तैयारी कर ही लेते है, जैसे इस बार वे अपना पांच गुना वेतन बढ़ाने जा रहे है, ऐसे चैनलो और उनके पत्रकारों को भी नेताओं और सरकारों से मधुर सम्बन्ध होते है और समय समय पर ये इस कारण से उपकृत भी होते है, पर आप बताये कि भारत की गरीब जनता अपना वेतन कैसे पांच गुना बढ़ाये अथवा नेताओं से उपकृत हो. ऐसे हालत में तो बस उसके पास एक ही काम बच जाता है कि वो चौपाल पर बैठ जाये और झाल करताल ढोल लेकर शुरू हो जाये और उस फ़िल्मी गाने कि तरह गाने लगे ----
"सखी सैयां तो खूब ही कमात है,
और महंगाई डायन खाय जात है।"

Thursday, July 1, 2010

मौर्य चैनल में मेरे ५ महीने...!

मौर्य चैनल में मेरे ५ महीने...!
मौर्य चैनल से मुझे छुटकारा मिल गया. आज मै बहुत खुश हूँ, इस ख़ुशी का ठिकाना नहीं है. पर बहुत सारे ऐसे लोग है, जो जानना चाहते होंगे की आखिर क्या वजह हो गयी की मै इतनी जल्दी मौर्य से किनारा कर लिया. १४ जनवरी २०१० को मौर्य में आने से पहले मै हमेशा मौर्य चैंनेल जाया करता था, क्योकि धरमवीर जी इसी ऑफिस में बैठा करते और मौर्य को दिशा देते, उस वक्त उनसे मेरी गाढ़ी मित्रता थी, वो चाहते थे की मै मौर्य से जुडु. इसी दरम्यान गुंजन सिन्हा समाचार निदेशक के रूप में मौर्य से जुड़े. पटना में उनसे मुलाकात हुई, उनकी भी इच्छा थी की मै मौर्य से जुडु. गुंजन जी के इस भाव को देख मुझे ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, मुझे लगा की अब मुझे कुछ काम करने को मौका मिलेगा, पर पांच महीने बीत गए काम करने का मौका ही नहीं मिला, ज्यादा समय बेवजह की बातो में ही कटा. इस दरम्यान उन लोगों से हमारी कटुता हो गयी, जिनसे हमारे बहुत ही मधुर सम्बन्ध थे. इस कटुता को बढ़ाने में वे लोग भी ज्यादा सक्रिय दिखे. जिनकी दाल हमारी वजह से गल नहीं पा रही थी. पर ईश्वर की इच्छा वे आज कामयाब है.
हमें ये कहने में कोई गुरेज नहीं की, मौर्य रांची ऑफिस में शुरू से ही अनुशासन की कमी थी, सभी राम भरोसे काम किया करते, अमित राजा ने हमसे कहा था की यहाँ उन्होंने भी सुधार करने की कोशिश की पर वे सुधार तो नहीं कर सके, चूकि नौकरी करनी है, इसलिए खुद ही सुधर गए. मै चुकी इटीवी में काम करके वहा गया था, मै चाहता था की अनुशासन हो पर अफ़सोस अनुशासन न के बराबर यहाँ दिखा. जब मैंने कुछ करना चाहा, परिस्थितियां ऐसी बन जाती की मै किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता. ऑफिस में अनुशासन हो इसके लिए मैंने कुछ ठोस डिसीजन लिए, गुंजनजी को अपने इस्तीफे की पेशकश की, एक दो पत्र लिखे जिसमे यहाँ की स्थितियों का चित्रण था. इस पत्र से ऑफिस का भला हो सकता था, पर वो पत्र पटना में बैठे मेरे कट्टर विरोधियों ने पुन: रांची भिजवा दिया. और हुआ वही जिसका अंदेशा था. रांची में बैठे वे सारे लोग जो गलत कर रहे थे, मेरे खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से लडाईया लड़ी. गन्दी गन्दी गालिया दी, मुझे जान से मारने की धमकी दी गयी. इसकी जानकारी मैंने अपने ऊपर के अधिकारीयों को दी, पर ऊपर बैठे मुकेश कुमार डायरेक्टर और सुनील पाण्डे इनपुट हेड को मेरे खिलाफ हो रही ये घटना में दिलचस्पी नहीं थी. ये दोनों यहाँ के लोगों को बढ़ावा देने में लगे थे. मुझे समझ में नहीं आ रहा था की आखिर ये दोनों ऐसा क्यों कर रहे है.
हर बात में आदर्श की बात करनेवाले मुकेश कुमार इसी बीच २८ मई को रांची पहुचे, जमकर आदर्शवाद की दुहाई दी, कहा की उनके कान चुगली सुनने अथवा चापलूसी सुनने के लिए नहीं बने है पर जब मैंने प्रमाण के साथ २३ जून को उन्ही को संबोधित पत्र लिखा कि उनके कान चुगली और चापलूसी सुनने के लिए ही बने है, उनके हालत पस्त हो गए.
पत्र की प्रतिलिपि...
"सेवा में,
श्री मुकेश कुमार,
निदेशक,
मौर्य न्यूज़, पटना.
मैंने आपको कई बार फोन किया, पर आप मेरा फोन नहीं उठा रहे और न ही कोई जवाब दे रहे है, कारण क्या है आप जाने इसलिए मै आपको मेल कर रहा हूँ. ------- क्योकि जरूरी है, मुझे अपने कामों से १० दिनों की छुट्टी चाहिए थी आपने कन्फर्म नहीं किया, मैंने सोचा की आप १० दिन की छुट्टी देने में असमर्थ है, ३ दिनों की छुट्टी मांगी पर आपने कन्फर्म नहीं किया, फिर भी मुझे बहुत जरूरी है, मै २३ से २५ जून तक छुट्टी पर हूँ, और इसकी सूचना sms के द्वारा मैंने सबको दे दी है.
कुछ मै आपकी बातो को याद दिला दू, जो रांची में २८ मई को मीटिंग के दौरान आपने कही थी -------------
आपने कहा था की आपके कान चुगली सुनने के लिए नहीं बने, पत्रकारिता सम्बन्धी कार्यों के लिए बने है, पर आपने रांची और पटना में बैठे लोगों की चुगलियों के आधार पर जिसके कहने पर मेरे उपर एक्शन लिया, वो बताता है आपके कान चुगली सुनने के लिए ही बने है. नहीं तो आप एक आदर्श स्थापित कर सकते थे.
क्या आप जानते है की हमने रांची में कितनों की गालिया और किसके लिए सुनी है. जानने की आपने कोशिश की. आपको याद है जब मेरे खिलाफ ऑफिस के कंप्यूटर में गालिया लोड की गयी, आपसे मैंने न्याय माँगा, आपको जिन पर कारवाई करनी चाहिए थी उसे बचा लिया और मुझे ही बाहर का रास्ता दिखा दिया. जिन्होंने मेरे और मेरे परिवार के खिलाफ भद्दी भद्दी गालिया लिखी उन्हें आपने खुली छुट दे दी की जो चाहे वो करो, आज आपके ऑफिस में क्या हो रहा है. जरा खुद देखिये ----------------------
कमाल है मैंने आकाशवाणी, आर्यावर्त्त हिंदी दैनिक, हिन्दुस्तान हिंदी दैनिक, दैनिक जागरण और etv जैसे संस्थानों में काम किया वहाँ मेरे कामों और आदर्शों की इज्ज़त की गयी, पर आपके यहाँ, आदर्शों और काम की कोई मूल्य नहीं. आपके यहाँ झूठी चुगलियों का बोलबाला है. तभी तो मानसून की झूठी खबर भेजनेवालो को सम्मानित और मुझे अपमानित कर दिया गया, यही नहीं आपके लोगो के द्वारा एक सज्ज़न व्यक्ति पर्यावरणविद नीतीश प्रियदर्शी की धज्जियां उडा दी गयी. रांची में मौर्य की क्या इज्ज़त है, आप खुद पता लगा लीजिये, बस कुछ करने की जरूरत नहीं है, आप अपना बूम लेकर किसी भी कार्यक्रम में चले जाइए, आपके अगल बगल में बैठे पत्रकार क्या कहते है सुन लीजिये.
मेरे १६ साल के पत्रकारिता के जीवन में, मेरे ऊपर किसी ने सवाल नहीं उठाये है पर आपने उठाये है, वो भी चुगलियों के आधार पर.
हां आप कहते है की मुझे यानि आपको चापलूसी पसंद नहीं है, पर मेरे पास इसके भी पुख्ता प्रमाण है की आपको चापलूसी पसंद है, जैसे भड़ास ४ मीडिया. कॉम में आपके छपे interview में रांची के ही एक स्टाफ ने आपके गुणगान कमेंट्स में किये है और लिखा है on the behalf of all staffs of ranchi office क्या आपने उससे पूछा की जो उसने कमेंट्स लिखे है, वो उसके है या सभी staff के. आपने नहीं पूछा क्योकि गर आप पूछते तो भले ही नौकरी चले जाने की डर से सभी हां कर देते, पर मै विरोध करता क्योकि मै सच बोलता हु, मुझे नौकरी की नहीं अपने जीवन मूल्य की ज्यादा चिंता है.
आप किसी से मत पूछिये, आप अपनी अंतरात्मा से पूछिये की क्या किसी ऐसे व्यक्ति को जो दुसरे संस्थान में जमा हुआ हो, उसे बुलाकर, इतनी जल्दी बे-इज्ज़त कर कर के निकालना उचित है. गर आपको लगता है की यही उचित है देर क्यूँ कर रहे है निर्णय लीजिये. पर याद कर लीजिये. ईश्वर जो आपके ह्रदय में बैठा है, वो देख रहा है, आपको भविष्य में खुद पर लज्जित होना पड़ेगा.
अभी आप जो सुनील पाण्डे -- सुनील पाण्डे जप रहे है, वो क्या है, मै खूब जानता हूँ. उनके आदर्श क्या है, ये भी मै जानता हूँ, वो मुझसे क्या चाहते है, ये भी जानता हूँ, पर क्या करू, इस ४३ वर्ष में, जो माता-पिता ने मुझे संस्कार दिया है और जिस आदर्श के लिए जीना सिखाया है उसे मै झूठी शान के लिए, वो संस्कार बीस हज़ार की नौकरी के लिए कैसे बर्बाद कर दू.
अंत में,
महत्वपूर्ण ये नहीं, की मौर्य में कौन कितने दिन काम किया.
महत्वपूर्ण ये है, वो जितने दिन काम किया, कैसे किया.
मुझे गर्व है की -------------------
क. मैंने ट्रान्सफर-पोस्टिंग का सहारा लेकर कोई न्यूज़ नहीं भेजा, जो भी न्यूज़ भेजी, वो मेरा अपना था.
ख. मैंने मौर्य के लिए अपने ही संस्थानों के लोगों की गालियाँ सुनी पर मैंने किसी को गालियाँ नहीं दी.
ग. मैंने जो भी कदम उठाये या बाते रखी, वो खुद को प्रतिष्ठित करने के लिए नहीं, बल्कि अपने संस्थान को बेहतर करने के लिए, ये अलग बात है की आपको समझ में नहीं आया.
घ. मुझे सबसे बनती है, पर ऐसे लोगो से नहीं बनती जिनकी कथनी और करनी में अंतर हो, चाहे वो कोई भी हो.
आपसे प्रार्थना है की जैसे ही आपने २१ जून से मुझे काम करने पर रोक लगा दिया आपके ऑफिस से लेकर पुरे रांची में तथा पटना ऑफिस में बैठे हमारे कट्टर विरोधियों में जश्न का माहौल है. कुछ तो रांची ऑफिस में पार्टी भी दे चुके है, आशा है आप उनके दिलों पर कुठाराघात नहीं करेंगे, और जल्द से वो पत्र भी भेज देंगे, जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार है. आप समझ सकते है, मेरा इशारा किस ओर है...
भवदीय
कृष्ण बिहारी मिश्र
पत्रकार, रांची.
दिनांक -- २३. जून २०१०."
जिस दिन मौर्य लाँच हुआ था, हमें ऐसा लगा था की मौर्य की पुनरावृति हो रही है, एक और चाणक्य उदय ले रहा है, पर मै भूल गया की, उस वक़्त और आज के वक़्त में काफी अंतर आ चूका है, प्रदुषण बढ़ा है, चारित्रिक पतन हुआ है. पत्रकारिता के नाम पर लोग दूकान खोल रहे है. और दूकान में क्या होता है. सभी जानते है. रही बात मौर्य ने कृष्ण बिहारी मिश्र को हटाया अथवा मैंने मौर्य को छोड़ा, ये जनता अथवा आदर्श पत्रकारिता में विश्वास रखनेवाले लोग निर्णय करे तो अच्छा रहेगा.
कृष्ण बिहारी मिश्र
पत्रकार.रांची (झारखण्ड).