Sunday, September 5, 2010

शिक्षक दिवस पर विशेष

गुरु क्या, ये तो शिक्षक के भी लायक नहीं...!

एक पत्रकार मित्र ने आज शिक्षक दिवस पर कुछ पंक्तियां मुझसे पूछी, संभवतः वे शिक्षक दिवस पर कुछ स्पेशल रिपोर्ट बनाना चाहते थे। गुरु और गोविंद में कौन बड़ा हैं, इससे संबंधित कुछ पंक्तियां वे मुझसे चाहते थे। शिक्षक दिवस के दौरान ऐसे भी भारत में ये पंक्तियां खूब चलती हैं --------
गुरु गोविंद दोउं खड़ें, काको लागू पायं।
बलिहारी गुरु आपनो, जो गोविंद दियो बतायं।।

और इस पंक्ति के बहाने आज के शिक्षक को गुरु बताकर, ईश्वर से भी, उन्हें श्रेष्ठ बताने की कोशिश की जाती हैं। जबकि आज के शिक्षक कभी गुरु हो ही नहीं सकते। क्योंकि कल के गुरु और आज के शिक्षक में आकाश जमीन का अंतर हैं। कल का गुरु शिक्षक नहीं था, वो मानव संसाधन के अंतर्गत न कभी काम किया था और न ही करने का कभी संकल्प किया था, पर आज का शिक्षक मानव संसाधन बन गया हैं, और एक संसाधन का क्या हश्र होता हैं, वो कल के गुरु का भान करनेवाला आज का शिक्षक खूब समझता हैं।
संस्कृत में एक श्लोक हैं -----------
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

हालांकि इस श्लोक का भी आज के शिक्षक अपने ढंग से भावार्थ बताते हैं, जबकि मेरे अनुसार, गुरु को ब्रह्मा के सदृश होना चाहिए, जो अपने शिष्य का निर्माण करें, गुरु को विष्णु होना चाहिए, जो उसके चरित्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाये, गुरु को शंकर होना चाहिए, जो उसके सभी बुराईयों को शमन कर दें, ऐसे गुरु ही साक्षात् परब्रह्म के समान होते हैं, जो ऐसे हैं, उन्हें नमस्कार हैं, पर ऐसे गुरु आज कितने हैं।
जरा कल के गुरु की एक कहानी सुनाता हूं
महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को कहते हैं कि हे आरुणि। बारिश होनेवाली हैं, इसलिए तुम जाओ खेत में, वहां मेड़ बनाकर, खेत में जानेवाले पानी को रोकने का प्रयास करों ताकि खेत में लगी फसल बर्बाद न हो, महर्षि धौम्य के आदेश को सुनकर आरुणि खेत की ओर चल पड़ता हैं, भारी बारिश होती हैं, पर मिट्टी के मेड़ पानी में बह जा रहे हैं, अंतः में कोई विकल्प न देख आरुणि खुद को मेड़ बना कर लेट जाता है। रात बीत रही हैं, इधर महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को आश्रम में न आया देख, विचलित हो रहे हैं, जैसे ही सुबह होती हैं, वे खेत की ओर अपने अन्य शिष्यों के साथ चल पड़ते हैं। देखते हैं कि आरुणि ने गुरु के वचन का पालन करने के लिए स्वयं को ही मेड़ बना डाला है,
आरुणि की इस दशा को देख, महर्षि धौम्य भाव विह्ववल हो रहे हैं, और अपने प्रिय शिष्य को उसी अवस्था में गले लगा लेते हैं, कहां हैं, ऐसे शिक्षक, जो इस आदर्श को अपना सकें, और उन्हें हम गुरु कह सकें।
जरा एक और कथा सुनिये --------------
रावण की सेना और उसके गुप्तचर भारत के सभी स्थानों को एक एक कर अपने गिरफ्त में ले रहे हैं। इधर गुरु विश्वामित्र को चिंता हो रही हैं, कि गर ऐसा ही चलता रहा तो भारत की दशा अत्यंत दयनीय हो जायेगी, अपने अंदर प्राप्त ज्ञान किसे दें, जिससे भारत की रक्षा हो सकें। वे अयोध्या का रुख करते हैं। अयोध्यापति दशरथ के पुत्र राम लक्ष्मण को अपनी विद्या के लिये योग्य मानकर उन्हें अपने साथ लेकर निकल पड़ते हैं, रास्ते में ही, राम लक्ष्मण की योग्यता की परीक्षा लेते हैं, जब ताड़का मार्ग में ही आ खड़ी होती हैं। दोनों परीक्षा में पास और फिर राम लक्ष्मण को उन्होंने सारी अपनी विद्याएं दे दी और राष्ट्र निर्माण का संकल्प लिया। बाद में गौतम नारी अहल्या का उद्धार कराया, राम का योग्य कन्या सीता के साथ विवाह भी संपन्न कराया और फिर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर नये भारत के निर्माण के लिए निकल पड़ें, और यहीं योग्य राम आगे चलकर क्या किया, आगे की कथा सभी जानते हैं, इसलिए यहां इससे अधिक बातें लिखना उचित नहीं। जरा अब बताईयें कि आज कितने शिक्षक ऐसे हैं जो विश्वामित्र और महर्षि धौम्य की सोच रखते हैं। जब ऐसी सोच इनकी हैं ही नहीं, तो फिर हम इन्हें गुरु क्यों कहें।
अरे ये तो शिक्षक हैं। इनका आज का चरित्र देखिये।
क. पैसे लेकर शिक्षा बांटते हैं। ये तो प्राईवेट फर्मों में पढ़ाते हैं, और आज कोई दूसरे फर्म, उन्हें ज्यादा पैसे देने की बात करें, तो बेस्ट आपर्चूयनिटी का बहाना बनाकर, आराम से अपने वर्तमान शिष्यों को श्रद्धांजलि देकर निकल पड़ते हैं, अपनी मस्ती और भौतिक आनन्द की खोज में।
ख. जिन सरकारी स्कूलों में ये पढ़ाते हैं, उन सरकारी स्कूलों में खूद अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते क्योंकि वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति हैं, इसलिए वे इन्हीं सरकारी स्कूलों से खुद तो बंपर स्केल उठाते हैं, पर अपनी संतानों को इन स्कूलों से दूर रखते हैं, क्योंकि वे खुद कर्तव्यनिष्ठ होकर नहीं पढ़ाते, ये अलग बात हैं कि इन सरकारी स्कूलों में जैसे तैसे पढ़ रहे वंचितों के बच्चे अपनी तकदीर खुद संवार लेते हैं।
ग. आज का शिक्षक खुद को कांट्रेक्ट में बांध दिया हैं, ठेके पर नियुक्त होता हैं, पारा टीचर बनकर गौरवान्वित महसूस करता हैं, खुद कहता हैं कि वो पारा टीचर हैं, और जब उन्हें खुद की मानदेय कम लगती हैं तो सड़कों पर उतर जाता हैं, यहीं नहीं वो कहता हैं कि उसका नियमितिकरण कर दिया जाय, यानी जिन स्कूलों में शिक्षक नियुक्त हुए, जिन प्रक्रियाओँ के द्वारा। भले ही उन प्रक्रियाओं से, ये पारा टीचर की नियुक्ति न हुआ हो, पर सारा सुख, उन्हीं की तरह लेने की बात करता हैं, यानी शार्ट कट फार्मूला, से बंपर स्केल पाना चाहता हैं।
घ. चाहे बंपर स्केल पाने वाले नियमित शिक्षक हो या पारा टीचर। सहीं बात तो ये हैं कि ये कभी भी दिल लगाकर अपने कर्तव्य पथ पर नहीं हैं, गर ये आज कर्तव्यपथ पर होते, तो फिर ये नये – नये निजी विद्यालय खुलते ही नहीं, गर खुलते भी तो इनके आगे टिकते ही नहीं। हमें याद हैं कि एक समय था, जब जिला स्कूलों में नामांकन कराने के लिए बड़े बड़े लोगों की पैरवी होती थी, आज तो इन जिला स्कूलों में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना ही नहीं चाहता, खुद वे टीचर भी नहीं पढ़ाना चाहते, जो यहां नियुक्त हैं। ऐसे में ये मानव संसाधन बन गये शिक्षक, देश व समाज का कितना भला कर रहे हैं, ये तो खुद ही वे जाने।
ड. यहीं नहीं इतनी गिरी हुई व्यवस्था में, इन्हीं शिक्षक बने गुरुओं को शिक्षा जगत का उच्च सम्मान सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का मेडल भी मिल जाता हैं, ये मेडल अथवा पदक कैसे और क्यूं मिलते हैं, इसकी भी गर जांच हो जाये, तो एक पदक घोटाला भी सामने आ जायेगा। जिन शिक्षकों को इस प्रकार के पदक मिलते हैं, जरा उनसे पूछिये कि आपने अपने जीवन में कितने राम, लक्ष्मण, कितने आरुणि, कितने भगत सिंह, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लोकनायक जयप्रकाश नारायण आदि महापुरुष पैदा किये, तो पता लग जायेगा कि स्थिति क्या हैं। पर एक परंपरा हैं, पदक देनी हैं, इसलिए सभी प्रांतों में बैठे राज्य व केन्द्र के शिक्षाधिकारियों की टीम से मंगवा लिया जाता हैं कि किस शिक्षक को पदक देनी हैं, इसलिए ये शिक्षाधिकारी अपने ठकुरसोहाती विधा को अपनाते हुए, ऐसे ऐसे शिक्षकों का नाम भेज देते हैं, पदक के लिए, कि हमे हंसी आती हैं।
अंततः हमे याद हैं कि राजश्री प्रोडक्शनंस प्राईवेट लिमिटेड वालों ने बहुत पहले एक दोस्ती पिक्चर बनायी थी, जिसमें शिक्षक के कर्तव्य बोध का सफल चित्रण हुआ था। केन्द्र व राज्य सरकार और शिक्षक दिवस पर नाना प्रकार के कार्यक्रमों को आयोजित करनेवाले महानुभावों को चाहिए कि वो फिल्म दोस्ती की एक – एक सीडी इन शिक्षकों को उपलब्ध करायें, और ये शिक्षक उस फिल्म को आद्योपांत देखे, और सोचे कि क्या उनका वो चरित्र हैं जो दोस्ती फिल्म में शिक्षक, प्राचार्य और लिपिक का हैं। गर नहीं तो धिक्कार हैं, क्योंकि शिक्षक महोदय, आपका कुछ नहीं जा रहा हैं, देश मिट्टी में मिल रहा हैं, क्योंकि आप राष्ट्र निर्माता हो, गर राष्ट्र निर्माता ही अपने कर्तव्य बोध से भटक जायेगा तो देश गर्त में जायेगा ही, इसलिए वक्त हैं, देश को गर्त में जाने से बचा लो।

No comments:

Post a Comment