जो राम को पा गया,
जो राम में समा गया,
उसी ने दिवाली
मनाया,
किसी अन्य को आज तक
मैंने दिवाली मनाते देखा ही नहीं। दिवाली क्या हैं, आनन्द को महसूस करने, आनन्द
में खो जाने का एक विशिष्ट पर्व। पर लोग इस विशिष्ट पर्व में भी आनन्द से विमुख हो
जाय, तो ऐसे लोगों को क्या कहेंगे। शायद ऐसे ही लोगों के बारे में कबीर ने कहा –
पानी बिच मीन
पियासी,
मोहि सुन सुन आवै
हांसी।
घर में वस्तु नजर
नहीं आवत,
बन बन फिरत उदासी।
आत्मज्ञान बिना जग
झूठा,
क्या मथुरा, क्या
कासी।
कबीर ने साफ कह दिया
कि जिस परम आनन्द को प्राप्त करने के लिए, लोग इधर से उधर भटक रहे हैं, वो तो घर
में ही हैं, पर लोग परम आनन्द को प्राप्त करने के लिए जीवन भर वो सब करते हैं,
जिसे करने की कोई जरुरत नहीं, जरुरत हैं आत्मज्ञान की ओर ध्यान देने की, क्योंकि
आत्मज्ञान प्राप्त करने के बाद मनुष्य स्वयं को प्रकाशित कर लेता हैं, फिर मनाते
रहिए, आप प्रत्येक दिन दिवाली, कौन रोक रहा हैं आपको।
कहा भी गया हैं
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सदा दिवाली संत की,
आठों प्रहर आनन्द,
अकलमता कोई उपजा,
मिले इँद्र को रंक
अर्थात् संतों को जब
आत्मसुख प्राप्त करना होता हैं, या स्वयं को प्रकाशित करना रहता हैं, परम आनन्द को
प्राप्त करना होता हैं तो बस अपने हृदय में झांक लेते हैं, और सब कुछ प्राप्त कर
लेते हैं, पर देवताओं के राजा होने के बाद भी इँद्र को वो सुख प्राप्त नहीं होता,
जो संतों को सहज ही प्राप्त होता है।
जरा मीरा को देखिये,
जब मीरा को उनके गुरुदेव से रामरुपी धन प्राप्त हो जाता है, तो वह कितना परम
आनन्दित हो जाती हैं। वो कैसे स्वयं को धन्य करते हुए, अतिप्रसन्न होकर, गाने लगती
हैं, वो भी आत्मसुख प्राप्त करते हुए...............
पायोजी मैने रामरतन
धन पायो,
वस्तु अमोलक दी मेरे
सद्गुरु कृपा कर अपनायो,
खर्च न खूटे, चोर न
लूटे, दिन-दिन बढत सवायो,
मीरा के प्रभु
गिरिधर नागर, हरषि हरषि यश गायो,
सत की नाव खेवटिया
सद्गुरु, भवसागर तर आयो
पायो जी मैंने
रामरतन धन पायो,
कमाल हैं, गुरु से
मिला भी तो क्या। राम रुपी धन। सोना-चांदी, हीरा-जवाहरात नहीं। आखिर रामरुपी धन ही
मीराबाई को क्यों मिला, क्योंकि मीरा को परम आनन्द चाहिए थी, और परम आनन्द राम में
ही समाया हैं, भौतिक सुख अथवा भौतिक संसाधनों में नहीं। मीरा का गर्व देखिये – ये
ऐसा धन हैं, जो खर्च ही नहीं होता, खर्च करने की सोचे तो दिन –दिन बढ़ता जाता हैं.
अंततः मीरा ये भी कहती हैं कि सत्य रुपी नाव को सिर्फ एक अच्छा गुरु, नेक गुरु,
स्वार्थ और धन के प्रति लालच न रखनेवाला गुरु ही भवसागर पार करा सकता हैं, राम से
साक्षात्कार करा सकता हैं, इसलिए मुझसा धन्य कौन है।
भारतीय वांग्मय कहता
हैं
अधमाः धनम् इच्छन्ति
धनम् मानम् च
मध्यमाः।
उत्तमाः मानम्
इच्छन्ति
मानो हि महतां
धनम्।।
अर्थात् जो दुष्ट
होते हैं, वे सिर्फ धन की कामना करते हैं, जो मध्यमवर्गीय होते है वे धन और मान
दोनों की कामना करते हैं पर जो सर्वोतम लोग हैं, वे कभी धन की कामना नहीं करते, वे
तो सिर्फ सम्मान को ही सर्वोतम धन मानते हैं। इसलिए अपने देश में धन को उतना
मह्त्व दिया ही नही गया। पर लोग दिवाली को धन से जोड़कर देखते हैं, दिवाली धन की
कामना का पर्व नहीं, बल्कि परम आनन्द को प्राप्त करने का पर्व हैं। जरा सोचिये, एक
छोटा सा मोहनदास, महात्मा कैसे बन गया, क्या धन की लालच के कारण, अथवा देश के लिए
सर्वस्व का त्याग, और राम के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा ने उसे दिव्यता प्रदान कर
दी। भला दीपक जलायेंगे तो घर प्रकाशित होगा, पर मन को प्रकाशित करने के लिए आपने
कुछ सोचा हैं। आप कैसे प्रकाशित होंगे, इसकी परिकल्पना की हैं, गर नहीं तो सोचिये।
ये प्रकाश पर्व, प्रतिवर्ष आकर आपको ऐहसास कराता हैं, पर आप ऐहसास करने की जरुरत
नहीं समझते। बस दिवाली आई, गणेश-लक्ष्मी की पूजा की, पटाखे छोड़े, विदेशी वस्तुओं
से घर को सजा दिया और दिवाली हो गयी। ऐसा तो हम बरसों से करते आये हैं, फिर भी
हमें कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ, और बगल का पड़ोसी चीन, हमसे आगे निकल गया। आखिर ऐसा
क्यूं हुआ। आखिर आप चेतेंगे कब, जब सब कुछ हाथ से निकल जायेगा तब, हमारी प्राचीन
संतों व ऋषियों की विशिष्ट परंपरा आपसे कुछ कहती हैं, कहती हैं कि आप इस मूलमंत्र
के भाव को समझिये। तोता जैसा रटिये नहीं, चलिये। सदियों से भारत के कण – कण में ये
मंत्र गूंजता आया हैं, वो आपसे कहता हैं कि अपने मन में ये भाव लाइये और फिर
दीपावली मनाइये तभी इस पर्व की सार्थकता को आप समझ पायेंगे, तभी भारत विशिष्ट हो
पायेगा, अन्यथा नहीं।
असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योर्तिगमय
मृत्योर्मां
अमृतंगमय
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