भारत में एक से एक लोग हैं, जिनकी प्रशंसा करें या आलोचना करें, समझ ही नहीं आता। जिन अंग्रेजों की भाषा अंगरेजी हैं, वे भी इस भाषा को मां मानने को तैयार कभी नहीं होंगे, पर भारत की एक दलित आबादी को कहा गया है कि वो अंगरेजी को देवी मईया माने, और अपना सारा ध्यान इस अंगरेजी पर ही लगाये, तभी उसका कल्याण होगा, और बाकी जातियां उनके आगे पानी भरती नजर आयेंगी। जिस व्यक्ति ने अंगरेजी देवी मईया के नाम पर मंदिर बनाने की ठानी है। उसके इस पर अपनी सोच है और इसे आप मना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वो मानेंगे ही नहीं। उन्होंने सोच लिया है कि बस अंगरेजी को देवी मईया मान लिया और बस ये मईया उन्हें हाथ पकड़ कर वो सब कर डालेगी, जिसकी उन्हें तलाश हैं, पर उन्हें ये मालूम नहीं कि इस देश में मूर्तियों की भरमार है। यहां तो जिंदा व्यक्तियों ने भी अपनी मूर्तियां स्थापित कर अपनी पूजा करवाने की ठानी है, कहीं कहीं तो भारत में ऐसे ऐसे दीवाने हैं कि फिल्मी हीरो हीरोईनों की मंदिर बना रखी हैं, खुद रांची में ही महेन्द्र सिंह धौनी के नाम पर मंदिर बनाने की कुछ लोगों ने सोची है। क्या मंदिर बना देने से बौद्धिक विकास होता हैं, अथवा धन या शक्ति प्राप्त हो जाती है, क्या।
इस देश में सदियों से ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा होती रही है, पर सच्चाई ये हैं कि असली ज्ञान जिसके बदौलत सारी दूनिया अमरीका व ब्रिटेन के आगे पानी भरती नजर आयी, वो पश्चिमी देशों के पास हैं। भारत में धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती हैं, पर दरिद्रता सर्वाधिक भारत के हिस्से में ही हैं, ये ही नहीं आश्विन माह में शक्ति की देवी की धूम पूरे भारत में रहती हैं, पर असली शक्ति सिमट के अमरीका के हाथों में चली गयी और इधर कुछ चीन की ओर सिमटती नजर आ रही हैं, जिसके आगे उसके आस पास के देश, उसकी मनमानी सहने को बाध्य है, और यहीं चीन हमेशा से भारत को अपनी दादागिरी की पाठ पढ़ाता रहता है।
कमाल है जब एक ओर देश में शैक्षिक क्रांति चल रही है, पूरा विश्व शैक्षिक क्रांति की वजह से सिमटता जा रहा हैं, वहा शैक्षिक क्रांति में न बहकर दलितों को कहा जा रहा हैं कि वे अंगरेजी को देवी मईया माने और उसकी पूजा करें, क्या इससे दलितों के जीवन स्तर में सुधार हो जायेगा क्या। इससे तो वे और नीचे जायेंगे। क्योंकि किसी भी प्रतिमा की पूजा करने से व्यक्ति खुद प्रतिमा बन जाता है, जरुरत हैं, मंदिर में उसके नाम पर प्रतिमा न बनाकर दलितों में ये बात पूख्ता करने की, कि आज अंग्रेजी जरुरी हैं, और बिना इसे पढ़े न तो वे खुद का और न अपने समाज को भला कर सकते हैं। इसलिए अंग्रेजी पढ़े पर अपना स्वाभिमान न भूले। भारत को नहीं भूले। क्योंकि भारत हैं तो वे हैं, और उन पर ज्यादा जिम्मा हैं, भारत के बारे में सोचने की, क्योंकि उनकी कौम ने सदियों से सहा हैं, भारत को दिया हैं, पर लिया नहीं हैं।
भारत में एक पत्रिका निकलती है – सरिता। उसमें बार बार एक विज्ञापन निकलता था कि हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा है, ये विज्ञापन उन लोगों के उपर करारा तमाचा होता था, जो हिन्दी भाषी होते हुए भी, गाहे बगाहे अंग्रेजी में अपनी भावनाएं प्रदर्शित कर रहे होते हैं। पूर्व में इस प्रकार के विज्ञापन पर हमें आपत्ति भी होती थी, पर सच्चाई यहीं हैं कि सचमुच आज हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा हो गयी है। उसके कई प्रमाण है।
जरा भारतीय प्रधानमंत्रियों की लिस्ट पर ध्यान दें। हमने देखा हैं कि इस देश में जो भी कोई प्रधानमंत्री बना, चाहे वह हिन्दीभाषी हो अथवा अहिन्दीभाषी सभी ने 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही वह लोकसभा व राज्यसभा अथवा अन्य कार्यक्रमों में भाग लिया, उसकी जूबानें स्वतः अंग्रेजी में बात करने लगी। उसका एक – दो उदाहरण हम आपको बता देना चाहते है। जैसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जब जनता पार्टी के शासनकाल में विदेश मंत्री बने, तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण देकर सबको अचंभित कर दिया था, पर जैसे ही वे प्रधानमंत्री बने, मैंने देखा कि दिल्ली में आयोजित फिक्की के कार्यक्रम में अंग्रेजी में अपना स्पीच देना उन्होंने शान समझा। यहीं नहीं कर्णाटक के कन्नड़भाषी मुख्यमंत्री एच डी देवगौड़ा जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने, बड़ी जल्दी हिन्दी सीख ली और उन्होंने लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही लोकसभा और अन्य जगहों की बात आयी तो वे अंग्रेजी में शुरु हो गये। ये तो राजनीति की बात हैं, अब भारतीय फिल्म कलाकारों को लीजिये, ये हिन्दी फिल्मों में काम करते हैं, इनकी दाल रोटी हिन्दी फिल्मों से चलती हैं, पर जब ये प्रीमियर शो अथवा प्रेस कांफ्रेस कर रहे होते हैं तो जरा देखिये इनकी जूबां अंग्रेजी उगल रही होती हैं। ऐसे में कितने फिल्मी स्टारों को नाम गिनाउं, सभी एक ही हैं। आगे क्रिकेटरों के साथ भी ये ही बात लागू होती हैं।
यहीं नहीं पूरा देश फिलहाल अंग्रेजी भाषा और उसकी संस्कृति का गुलाम हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, ऐसे में दलितों को ये उपदेश देना कि वे ऐसा न करें, वैसा न करें, ये तो बात वहीं हो गयी कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे। दलितों को अंग्रेजी पढ़ना चाहिए और खूब पढ़ना चाहिए, क्योंकि केवल उन्होंने ही हिन्दी के विकास का ठेका नहीं ले रखा हैं, पर गलती ये वे कर रहे कि वे अंग्रेजी को देवी मईया का रुप बनाकर, अपने दलितों को फिर प्राचीनता में ढकेल रहे हैं, जो आनेवाले समय के लिए दलितों को बहुत पीछे धकेल देगी। क्योंकि किसी को चिढ़ाकर आप न तो आगे बढ़ सकते हैं और न आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं, बस आप मंदिर को बनाने और बचाने में ही लग जायेंगे।
इस देश के हालात देखिये, शायद ही कोई गांव होगा, जहां अंग्रेजी स्कूल नहीं होंगे। अब सरकारी स्कूलों में पढ़ते कौन हैं। जो टीचर यहां पढ़ा रहा होता हैं और अपना परिवार चला रहा होता हैं, वो भी अपने बच्चों को किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहा होता हैं। आज तक मैंने किसी प्रशासनिक अधिकारी व नेताओं के बेटे – बेटियों को सरकारी स्कूलों में पढ़ते नहीं देखा, यहीं नहीं जिसके पास थोड़े से भी पैसे आ गये हैं, वो भी सरकारी स्कलों को दूर से प्रणाम कर, अपने बच्चों को वहां पढ़ा रहा होता हैं, जहां टूटी फूटी अंग्रेजी ही क्यूं न चलती हो, वो अंग्रेजी पढ़ाना ज्यादा जरुरी समझता है। पूरे देश में स्पोकेन इंग्लिश की दुकाने खूली हैं, कहीं भी जहां अहिन्दी भाषी क्षेत्र हमें बताईये, जहां स्पोकेन हिन्दी की दुकाने खुली हो।
सभी अंग्रेजी के चक्कर में भारतीयता का श्राद्ध करने पर तूले है। सच्चाई यहीं हैं, पर जब ये ही भारतीय किसी कारण से विदेश चले जा रहे हैं, तो उन्हें भारत याद आ रहा होता हैं, अपनी संस्कृति याद आ रही होती हैं, अपनी भाषा याद आ रही होती हैं, क्यूं ऐसा होता हैं, शायद भारतीयों को भारत में रहकर समझ में नहीं आती। आजकल तो अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले भारतीय बच्चे बड़ी शान से एक कविता दुहराते है -------------
"टम टमा टम टम
टमाटर खाये हम
अंग्रेज का बच्चा क्या जाने
अंग्रेजी जाने हम"
ऐसे हालत में हमारे देश के कर्णधारों, राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, खिलाड़ियों आदि लोगों ने भारत को किस दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा। यकीं मानिये, जैसे ही आप विदेशी भाषा की ओर आकृष्ट होते हैं, आपकी संस्कृति पहले प्रभावित होती हैं, और जब संस्कृति प्रभावित होती हैं, तो आप स्वतः नष्ट हो जाते हैं और जब आप स्वतः नष्ट हो जायेंगे तो यहां कौन राज कर रहा होगा, किसकी सत्ता होगी, गर आप बुद्धिमान हैं तो समझेंगे, नहीं तो आपकी स्थिति वहीं होगी। जैसा कि सुभाषित कहता हैं...............
येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न ज्ञानशीलं, न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोका, भूविभारभूता, मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति ।।
अर्थात् जिसके पास न तो विद्या है, न तपस्या करने की और न दान करने की क्षमता है, जिसके पास न तो आंतरिक ज्ञान और न मर्यादा है, न गुण हैं और न ही धर्म पर चलने की ताकत है। वे इस धरती पर मनुष्यरुप में मृग के समान विचरण करनेवाले है, इससे अधिक कुछ नहीं।