Sunday, October 31, 2010

अंगरेजी देवी मईया...?


भारत में एक से एक लोग हैं, जिनकी प्रशंसा करें या आलोचना करें, समझ ही नहीं आता। जिन अंग्रेजों की भाषा अंगरेजी हैं, वे भी इस भाषा को मां मानने को तैयार कभी नहीं होंगे, पर भारत की एक दलित आबादी को कहा गया है कि वो अंगरेजी को देवी मईया माने, और अपना सारा ध्यान इस अंगरेजी पर ही लगाये, तभी उसका कल्याण होगा, और बाकी जातियां उनके आगे पानी भरती नजर आयेंगी। जिस व्यक्ति ने अंगरेजी देवी मईया के नाम पर मंदिर बनाने की ठानी है। उसके इस पर अपनी सोच है और इसे आप मना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वो मानेंगे ही नहीं। उन्होंने सोच लिया है कि बस अंगरेजी को देवी मईया मान लिया और बस ये मईया उन्हें हाथ पकड़ कर वो सब कर डालेगी, जिसकी उन्हें तलाश हैं, पर उन्हें ये मालूम नहीं कि इस देश में मूर्तियों की भरमार है। यहां तो जिंदा व्यक्तियों ने भी अपनी मूर्तियां स्थापित कर अपनी पूजा करवाने की ठानी है, कहीं कहीं तो भारत में ऐसे ऐसे दीवाने हैं कि फिल्मी हीरो हीरोईनों की मंदिर बना रखी हैं, खुद रांची में ही महेन्द्र सिंह धौनी के नाम पर मंदिर बनाने की कुछ लोगों ने सोची है। क्या मंदिर बना देने से बौद्धिक विकास होता हैं, अथवा धन या शक्ति प्राप्त हो जाती है, क्या।
इस देश में सदियों से ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा होती रही है, पर सच्चाई ये हैं कि असली ज्ञान जिसके बदौलत सारी दूनिया अमरीका व ब्रिटेन के आगे पानी भरती नजर आयी, वो पश्चिमी देशों के पास हैं। भारत में धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती हैं, पर दरिद्रता सर्वाधिक भारत के हिस्से में ही हैं, ये ही नहीं आश्विन माह में शक्ति की देवी की धूम पूरे भारत में रहती हैं, पर असली शक्ति सिमट के अमरीका के हाथों में चली गयी और इधर कुछ चीन की ओर सिमटती नजर आ रही हैं, जिसके आगे उसके आस पास के देश, उसकी मनमानी सहने को बाध्य है, और यहीं चीन हमेशा से भारत को अपनी दादागिरी की पाठ पढ़ाता रहता है।
कमाल है जब एक ओर देश में शैक्षिक क्रांति चल रही है, पूरा विश्व शैक्षिक क्रांति की वजह से सिमटता जा रहा हैं, वहा शैक्षिक क्रांति में न बहकर दलितों को कहा जा रहा हैं कि वे अंगरेजी को देवी मईया माने और उसकी पूजा करें, क्या इससे दलितों के जीवन स्तर में सुधार हो जायेगा क्या। इससे तो वे और नीचे जायेंगे। क्योंकि किसी भी प्रतिमा की पूजा करने से व्यक्ति खुद प्रतिमा बन जाता है, जरुरत हैं, मंदिर में उसके नाम पर प्रतिमा न बनाकर दलितों में ये बात पूख्ता करने की, कि आज अंग्रेजी जरुरी हैं, और बिना इसे पढ़े न तो वे खुद का और न अपने समाज को भला कर सकते हैं। इसलिए अंग्रेजी पढ़े पर अपना स्वाभिमान न भूले। भारत को नहीं भूले। क्योंकि भारत हैं तो वे हैं, और उन पर ज्यादा जिम्मा हैं, भारत के बारे में सोचने की, क्योंकि उनकी कौम ने सदियों से सहा हैं, भारत को दिया हैं, पर लिया नहीं हैं।
भारत में एक पत्रिका निकलती है – सरिता। उसमें बार बार एक विज्ञापन निकलता था कि हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा है, ये विज्ञापन उन लोगों के उपर करारा तमाचा होता था, जो हिन्दी भाषी होते हुए भी, गाहे बगाहे अंग्रेजी में अपनी भावनाएं प्रदर्शित कर रहे होते हैं। पूर्व में इस प्रकार के विज्ञापन पर हमें आपत्ति भी होती थी, पर सच्चाई यहीं हैं कि सचमुच आज हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा हो गयी है। उसके कई प्रमाण है।
जरा भारतीय प्रधानमंत्रियों की लिस्ट पर ध्यान दें। हमने देखा हैं कि इस देश में जो भी कोई प्रधानमंत्री बना, चाहे वह हिन्दीभाषी हो अथवा अहिन्दीभाषी सभी ने 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही वह लोकसभा व राज्यसभा अथवा अन्य कार्यक्रमों में भाग लिया, उसकी जूबानें स्वतः अंग्रेजी में बात करने लगी। उसका एक – दो उदाहरण हम आपको बता देना चाहते है। जैसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जब जनता पार्टी के शासनकाल में विदेश मंत्री बने, तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण देकर सबको अचंभित कर दिया था, पर जैसे ही वे प्रधानमंत्री बने, मैंने देखा कि दिल्ली में आयोजित फिक्की के कार्यक्रम में अंग्रेजी में अपना स्पीच देना उन्होंने शान समझा। यहीं नहीं कर्णाटक के कन्नड़भाषी मुख्यमंत्री एच डी देवगौड़ा जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने, बड़ी जल्दी हिन्दी सीख ली और उन्होंने लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही लोकसभा और अन्य जगहों की बात आयी तो वे अंग्रेजी में शुरु हो गये। ये तो राजनीति की बात हैं, अब भारतीय फिल्म कलाकारों को लीजिये, ये हिन्दी फिल्मों में काम करते हैं, इनकी दाल रोटी हिन्दी फिल्मों से चलती हैं, पर जब ये प्रीमियर शो अथवा प्रेस कांफ्रेस कर रहे होते हैं तो जरा देखिये इनकी जूबां अंग्रेजी उगल रही होती हैं। ऐसे में कितने फिल्मी स्टारों को नाम गिनाउं, सभी एक ही हैं। आगे क्रिकेटरों के साथ भी ये ही बात लागू होती हैं।
यहीं नहीं पूरा देश फिलहाल अंग्रेजी भाषा और उसकी संस्कृति का गुलाम हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, ऐसे में दलितों को ये उपदेश देना कि वे ऐसा न करें, वैसा न करें, ये तो बात वहीं हो गयी कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे। दलितों को अंग्रेजी पढ़ना चाहिए और खूब पढ़ना चाहिए, क्योंकि केवल उन्होंने ही हिन्दी के विकास का ठेका नहीं ले रखा हैं, पर गलती ये वे कर रहे कि वे अंग्रेजी को देवी मईया का रुप बनाकर, अपने दलितों को फिर प्राचीनता में ढकेल रहे हैं, जो आनेवाले समय के लिए दलितों को बहुत पीछे धकेल देगी। क्योंकि किसी को चिढ़ाकर आप न तो आगे बढ़ सकते हैं और न आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं, बस आप मंदिर को बनाने और बचाने में ही लग जायेंगे।
इस देश के हालात देखिये, शायद ही कोई गांव होगा, जहां अंग्रेजी स्कूल नहीं होंगे। अब सरकारी स्कूलों में पढ़ते कौन हैं। जो टीचर यहां पढ़ा रहा होता हैं और अपना परिवार चला रहा होता हैं, वो भी अपने बच्चों को किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहा होता हैं। आज तक मैंने किसी प्रशासनिक अधिकारी व नेताओं के बेटे – बेटियों को सरकारी स्कूलों में पढ़ते नहीं देखा, यहीं नहीं जिसके पास थोड़े से भी पैसे आ गये हैं, वो भी सरकारी स्कलों को दूर से प्रणाम कर, अपने बच्चों को वहां पढ़ा रहा होता हैं, जहां टूटी फूटी अंग्रेजी ही क्यूं न चलती हो, वो अंग्रेजी पढ़ाना ज्यादा जरुरी समझता है। पूरे देश में स्पोकेन इंग्लिश की दुकाने खूली हैं, कहीं भी जहां अहिन्दी भाषी क्षेत्र हमें बताईये, जहां स्पोकेन हिन्दी की दुकाने खुली हो।
सभी अंग्रेजी के चक्कर में भारतीयता का श्राद्ध करने पर तूले है। सच्चाई यहीं हैं, पर जब ये ही भारतीय किसी कारण से विदेश चले जा रहे हैं, तो उन्हें भारत याद आ रहा होता हैं, अपनी संस्कृति याद आ रही होती हैं, अपनी भाषा याद आ रही होती हैं, क्यूं ऐसा होता हैं, शायद भारतीयों को भारत में रहकर समझ में नहीं आती। आजकल तो अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले भारतीय बच्चे बड़ी शान से एक कविता दुहराते है -------------
"टम टमा टम टम
टमाटर खाये हम
अंग्रेज का बच्चा क्या जाने
अंग्रेजी जाने हम"
ऐसे हालत में हमारे देश के कर्णधारों, राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, खिलाड़ियों आदि लोगों ने भारत को किस दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा। यकीं मानिये, जैसे ही आप विदेशी भाषा की ओर आकृष्ट होते हैं, आपकी संस्कृति पहले प्रभावित होती हैं, और जब संस्कृति प्रभावित होती हैं, तो आप स्वतः नष्ट हो जाते हैं और जब आप स्वतः नष्ट हो जायेंगे तो यहां कौन राज कर रहा होगा, किसकी सत्ता होगी, गर आप बुद्धिमान हैं तो समझेंगे, नहीं तो आपकी स्थिति वहीं होगी। जैसा कि सुभाषित कहता हैं...............
येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न ज्ञानशीलं, न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोका, भूविभारभूता, मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति ।।
अर्थात् जिसके पास न तो विद्या है, न तपस्या करने की और न दान करने की क्षमता है, जिसके पास न तो आंतरिक ज्ञान और न मर्यादा है, न गुण हैं और न ही धर्म पर चलने की ताकत है। वे इस धरती पर मनुष्यरुप में मृग के समान विचरण करनेवाले है, इससे अधिक कुछ नहीं।

Friday, October 29, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव में विकास नहीं, जातीयता हावी…।


संदर्भ विधानसभा चुनाव 2010...!


जैसे जैसे बिहार का चुनाव अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा हैं, वैसे वैसे लालू और नीतीश की सरकार बनानेवालों की दिलों की धड़कन बढ़ती जा रही हैं। हालांकि कमोवेश सभी ने ये माना है कि बिहार में एनडीए यानी नीतीश की सरकार बननी तय है और इसके लिए उन्होंने कई कारण गिनाये है। पटना से प्रकाशित कई समाचार पत्रों तथा दिल्ली से बिहार प्रवास पर गये कई पत्रकारों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। साथ ही कई समाचार चैनलों ने चुनाव विश्लेषन के माध्यम से ये बताने की कोशिश की है कि नीतीश को एक बार फिर बिहार की जनता सिरमौर बनाना चाहती है।
पर अब तक बिहार में तीन चरण के चुनाव संपन्न हो चुके है। और इन क्षेत्रों से जो चुनाव परिणाम आ रहे है वे न तो नीतीश को खुश करनेवाले हैं और न लालू को दुखी करनेवाले है। हां इतना तय है कि कांटे का मुकाबला है। जब पूर्णिया में चुनाव संपन्न हुआ तब हमने वहां के जमीन से जूड़े पत्रकारों से बातचीत की, तब उनका कहना था कि मतदान के पूर्व नीतीश के पक्ष में एक लहर सी देखी गयी थी, ज्यादातर मतदाता विकास को प्राथमिकता देते हुए नीतीश को एक बार फिर सत्ता सौंपने की बात कह रहे थे, पर जैसे ही मतदान का दिन आया, ये मतदाता जातियों और संप्रदायों में विभक्त होते नजर आये, और उन्होंने वोट उसी को दिया, जो उनकी जाति और संप्रदाय को रास आया, यानी यादव और मुस्लिम ने एनडीए को नकार दिया।
यहीं बात रक्सौल के हमारे पत्रकार मित्र ने बतायी। यानी जाति और संप्रदाय से अभी तक बिहार के मतदाता उपर नहीं उठ पाये है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर ठीक ही कहा करते थे, कि भला बिहार में विकास से कहीं वोट मिलते है, वोट मिलने के दूसरे कारण होते है, गर वर्तमान की देखे तो आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू ने अपने प्रदेश में विकास की गंगा बहायी थी। पर आंध्र प्रदेश की जनता ने क्या किया, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। ऐसे भी लोग कहते है और बताते है कि जो लोग अच्छा काम करते हैं, उनका अंत बड़ा दुखद होता है। जैसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी ने इसकी कीमत भी नहीं वसूली, जबकि कई नेताओं ने आजादी के बाद इसकी कीमत वसूली, पर गांधी को मिला क्या, गोली। इसी प्रकार ईसा मसीह को लोगों ने सूली पर लटका दिया। ऐसे कई प्रमाण मौजूद है। जो बताते है कि सत्य के मार्ग पर चलने पर कठिनाईयां ही कठिनाईयां हैं। गर आप सत्य और सेवा की मार्ग पर चलने का प्रण लिया हैं तो स्वर्ग की कामना ही बंद कर दीजिये, पर इसका मतलब ये भी नहीं की हम अच्छा काम करना बंद कर दे।
बिहार के साथ विडम्बना रही हैं कि जब कभी वहां शक्तिशाली नेता उभरा तो उसने राज्य के समग्र विकास पर ध्यान कम और अपने परिवार को सशक्त बनाने, उसके लिए सात पुश्तों तक किसी चीज की कमी न हो, इसका जुगाड़ बिठाने में ज्यादा ध्यान दिया। यहीं नहीं गांधी और लोकनायक के नाम पर राजनीति करनेवालों ने समय आने पर अपनी पत्नी तक को सत्ता सौंप दिया और अब बेटे को आगे कर वे राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें फिलहाल नीतीश को छोड़, रामविलास और लालू ने बड़ी तेजी से कदम बढ़ायी है। रामविलास जी के तो क्या कहने, ये तो भाजपा को सांप्रदायिक बोलते अघाते नहीं, और कभी भाजपा के ही गोद में बैठ कर सत्ता का सुख भी लिये थे, शायद ये भूल गये है। ये वहीं नेता है जो बिहार चुनाव के पहले राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश करने का ड्रामा करते थे, पर आज उपमुख्यमंत्री अपने परिवार से बनाना चाहते हैं। अब बात उठती हैं कि जो व्यक्ति उपमुख्यमंत्री का पद एक मुस्लिम को नहीं दे सकता, वो व्यक्ति राज्य का बागडोर मुस्लिम को कैसे सौंप सकता है। इनके इस ड्रामे से तो लगता हैं कि जब इनकी बहुमत आयेगी, जो कभी संभव नहीं हैं, तो ये खुद ही मुख्यमंत्री बनने के लिए कदम बढ़ा देंगे।
ये हैं हमारे बिहार के कुछ नेताओं का वर्तमान चरित्र, जो बिहार को बुलंदियों तक ले जाने की बात करते है। ये जयप्रकाश आंदोलन के समय संपूर्ण क्रांति की बात करते थे, पर आज अपने परिवारों को सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने के लिए क्रांति की बात करते हैं, क्या ऐसे लोगों के सत्ता में आने से बिहार आगे बढ़ पायेगा, निर्णय तो जनता को लेना हैं और जनता ने क्या निर्णय लिया ये तो चुनाव परिणाम आयेगा, तभी पता चलेगा। फिर भी आशा रखनी चाहिए कि आने वाले बचे हुए विधानसभा सीटों की जनता एक बेहतर सरकार बनाने के पक्ष में मतदान कर, बिहार को आगे बढ़ाने में विशेष रुचि दिखायेगी।

Tuesday, October 26, 2010

और जुबान फिसली.......................!

संदर्भ बिहार विधानसभा चुनाव 2010...
बिहार विधानसभा चुनाव का अंतिम चरण जैसे जैसे नजदीक आता जा रहा है। नेताओं की जुबां फिसलती जा रही है। खासकर जदयू के नेता अति उत्साहित है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि बस विधानसभा चुनाव मात्र औपचारिकता मात्र है। जनता तो पहले से ही दुबारा नीतीश को सत्ता में बैठाने को बेकरार है। पर उन्हें नहीं मालूम कि, सब कुछ ठीक रहने के बावजूद जब भोजन में नमक बेमन से पड़ जाये तो भोजन खानेलायक नहीं रह जाता। इसलिए जदयू और भाजपा को ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि ज्यादातर चुनावी सर्वेक्षण और पत्रकारों के कलम उन्हीं की जय बोल रहे हैं, पर इसमें सच्चाई क्या हैं ये तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा।
रही बात जुबान फिसलने की, ये कोई नयी बात नहीं हैं, जब आदमी अतिउत्साहित अथवा अति निराश हो जाता है तो उसके मुख से ऐसी भाषाएं या शब्द निकल ही जाते है जो उनके विरोधियों समेत सज्जनों को अच्छी नहीं लगती। राजद के नेता लालू प्रसाद यादव हो या रावड़ी देवी अथवा फिलहाल दूसरे पार्टी में चले गये इन्हीं के रिश्तेदार, सभी जुबान फिसलने के लिए जाने जाते हैं, कुछ के तो केस जुबान फिसलने के कारण ही अभी न्यायालय की शोभा बढ़ा रहे है। अभी जदयू और एनडीए के बड़े नेता शरद यादव सुर्खियों में है – उन्होंने एक चुनावी सभा में राहुल को गंगा नदी में फेंक देने की बात कह डाली। जबकि रांची में भाजपा नेता हरेन्द्र प्रताप कहते हैं कि यूपीए के नेता जिस प्रकार से एनडीए के खिलाफ विषवमन कर रहे है, ऐसे में कोई भी होगा, उग्र हो ही जायेगा।
सचमुच किसी भी बड़े अथवा छोटे नेता व कार्यकर्ता को इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना लोकतंत्र में गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य ही कहा जायेगा और इस प्रकार की भाषा प्रयोग करनेवाले की कड़ी आलोचना होनी ही चाहिए। पर शरद यादव ने बहुत जल्द ही इस प्रकार के बयान से अपने आपको अलग कर लिया, इसके लिए उन्हें साधुवाद। पर कुछ बात कांग्रेसियों से भी, जो इस मुददे को हवा देते हुए, बात चुनाव आयोग तक ले जाने की बात करते हैं, क्या वे बता सकते हैं कि उन्हीं के राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना राष्ट्रद्रोही संगठन सिमी से कर डाली अथवा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के जो बयान आरएसएस पर आये हैं, उसे क्या कहा जायेगा, क्या आरएसएस के खिलाफ उनके दिये गये बयान गैरजिम्मेदाराना नहीं। खासकर उस आरएसएस पर जिसके बारे में खुद उन्हीं के पार्टी के बड़े दिवंगत नेता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री और महात्मा गांधी तक प्रशंसा कर चुके है। आगे चलकर बाबा साहेब अम्बेडकर, पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी आरएसएस के कार्यों की भूरिभूरि प्रशंसा की है। "पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन ने तो आरएसएस के बारे में कहा था कि आरएसएस पर मुसलमानों के प्रति हिंसा और घृणा फैलाने के आरोप सर्वथा झूठे हैं। मुसलमानों को आरएसएस से परस्पर प्रेम सहयोग और संगठन की शिक्षा लेनी चाहिए।" क्या राहुल बता सकते हैं कि संघ से घनिष्ठ संबंध और प्रचारक तक रह चुके पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी क्या सिमी से जूड़े है। जिस संगठन के बारे में राहुल ने बचकाना बयान दे डाला और जब इन कांग्रेसी नेताओं के पास आरएसएस के खिलाफ ठोस सबूत है तो फिर ये कर क्या रहे हैं, उनकी सरकार है, जल्द से ठोस निर्णय ले, देश से बड़ा कोई संगठन नहीं होता, पर गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य देकर देश की जनता के समक्ष बार बार आरएसएस के खिलाफ बयान देना और उसकी तुलना राष्ट्रद्रोहियों से कर देना, क्या शर्मनाक नहीं।
सच्चाई तो ये हैं कि वर्तमान में किसी भी पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं के जुबान पर कंट्रोल नहीं है, जिसे देखिये बक बक कर रहा है, और पतली गली से निकल जा रहा है, बाद में अपनी बयान पर चिंतन भी नहीं करता, कि उसने जो आज भाषण अथवा बयान दिया, वो सही है अथवा गलत। क्या ऐसे में लोकतंत्र मजबूत होगा। क्या इन्हें ये दोहा पढ़ने की जरुरत नहीं --------
बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जानी।
हिये तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनी।।

सुभाषित तो कहता है --------
वचने किम दरिद्रता ---- अर्थात् बोलने में दरिद्रता कैसी। आखिर ये नेता कब अपनी वाणी पर नियंत्रण रखेंगे।

Friday, October 22, 2010

एक कौआ था...!


जब मैं दूसरी कक्षा में था – तब एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी। एक कौआ था। उसे मोर का एक पंख मिला। उसने उस पंख को अपने पूंछ में लगा लिया और ये कहकर इठलाने लगा कि वो अब मोर है। फिर क्या था – वो मोर के झूंड में पहुंचकर मोर जैसी हरकतें करने लगा और कहने लगा कि वो भी मोर है, मोर है। तब उन मोर के झूंडों में से एक मोर बोला कि कही मोर के पंख लगा लेने से कोई मोर हो जाता हैं क्या। तुम तो कौए हो और कौए ही रहोगे, इस प्रकार उस मोर के पंख लगाये कौए की, उस झुंड में हंसाई होने लगी। अपनी हंसाई होता देख, वह कौआ फिर कौए की झूंड में गया. तभी सारे कौए ने कहा कि तुम कौए कैसे हो सकते हो, तुम तो मोर का पंख लगा लिये हो, तुम तो मोर हो, और फिर उसे कौए के झूंड में भी हंसी का पात्र बनना पड़ा। अपनी इस प्रकार की हंसाई होता देख और दोनों जगहों पर अपमान का बोध होता देख, वह कौआ अंत में स्वयं अपने पूंछ से मोर का पंख निकाल फेंका और कांव कांव करने लगा। कहने लगा कि वो कौआ हैं – कांव कांव कांव कांव...............................। ये बचपन में पढ़ी हुई छोटी सी कहानी सीख देती हैं कि हम क्या हैं, इसका हमेशा भान रहना चाहिए, नहीं तो हम हर जगह हंसी के पात्र बनेंगे और कहीं के नहीं रह पायेंगे। आज जो देश और देश के नागरिकों की स्थिति हैं, ठीक उस कौवे की तरह है जो अपने पूंछ में मोर का पंख लगाकर ये भान कर बैठा हैं कि वो मोर हैं, जबकि सच्चाई कुछ और ही है।
भारत कभी भी भोगवादी संस्कृति में नहीं रहा, पर आजकल यहां के लोग पश्चिमी सभ्यता का इस प्रकार अनुकरण करने लगे है कि अब तो इनके आगे पश्चिम भी फेल होता जा रहा है। जो भारतीय आध्यात्मिक संत हैं – वे भी धन लोलुपता और कामलोलुपता में इस प्रकार से लिप्त होते जा रहे हैं कि इन्हें देख कर लगता ही नहीं कि ये उस देश के आध्यात्मिक संत हैं, जहां नानक, तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, रविदास, शंकराचार्य आदि जैसे महान संत पैदा लिये थे और जिन्होंने अपने सुकर्मों से देश और समाज को नयी दिशा दी थी। यहीं हाल आज के साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की है, जो सिर्फ और सिर्फ पैसों के लिए साहित्य सृजन और झूठी एनजीओ चलाकर स्वयं को समाजसेवी बता कर ये सामाजिक कार्यकर्ता देश और समाज को ठगने का काम कर रहे है। राजनीतिज्ञों की तो बात ही निराली हैं, ये कभी गांधी, जयप्रकाश आदि बनेंगे, ये तो इन्हें देखकर लगता ही नहीं क्योंकि ये पैसों के आगे अपने शरीर को इतना झूका लिये हैं कि इनकी शरीर को ठीक करने की कोशिश हुई तो केवल कोशिश मात्र सुनते ही, ये बिलबिलाकर दम तोड़ देंगे।
पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां जीवन का आदर्श सुनिश्चित कर दिया गया है, जबकि अन्य देशों में ऐसा है ही नहीं। और देशों में सिर्फ भोगवादी संस्कृतियां ही हैं, यानी जन्म ले लिया, और पशुओं की तरह, खाओ पियो, ऐश करो मौज करो और मर जाओ। पर अपने देश में जीवन का आदर्श – परमेश्वर का धाम बताया गया है। यहां तो कहां गया हैं कि जीवेद शरदः शतम्। यानी सौ वर्ष तक जियो, कैसे जियो, उसकी भी विवेचना की गयी है। यानी सौ को चार भागों में बांटो। पच्चीस वर्ष – ब्रह्चर्य पालन यानी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग, छब्बीस से पचास वर्ष – प्रकृति द्वारा दी गयी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का पान। इक्यावन से पचहतर वर्ष – जिन सुख सुविधाओं का आपने पान किया, अब उसका धीरे धीरे परित्याग करने की कोशिश, तथा आनेवाले पीढ़ियों के लिए कुछ करने की कोशिश, और छिहतर से सौ वर्ष – पूर्णतः प्रत्येक वस्तुओं का त्याग और निरंतर भगवद् भक्ति। कुछ तो कहते है कि कौन जानता हैं कि जीवन कब खत्म हो जाये, इसलिए निरंतर प्रभु से ये कामना कि वो उस पर कृपा बनाये रखे और हमेशा एक अच्छा काम स्वयं द्वारा कराता चला जाये ताकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाये, पर आज के भारत को देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि समाज के विभिन्न वर्गों का कोई भी व्यक्ति ये भाव रखकर अपना जीवन शुरु कर रहा हैं और खत्म कर रहा हैं।
इधर आज के अखबारों को देखकर, गजब निराशा हुई हैं कोई बाबा रामदेव हैं, जो योग सीखाते हैं, चूर्ण चटनी का अच्छा कारोबार भी उन्होंने फैलाया हैं, काफी नाम भी कमाया है और अब वे राजनीतिक दुकान खोलने की भी सोच रहे हैं, उन्हें लगता है कि योग और चूर्ण चटनी के कारोबार से राजनीतिक दुकान का कारोबार कुछ ज्यादा ही मनोहारी और सर्वस्व सुख प्राप्त करने का अमोघ अस्त्र हैं। गर ऐसा होता हैं तो ये देश के पहले स्वयंभू संत होंगे जो देश के पूर्व के संतों को त्याग की मूल भावना और धर्म को मटियामेट करेंगे, ऐसे भी कलयुग चल रहा हैं, यहां तो अब वो सब होगा, जिसकी परिकल्पना किसी ने नही की। क्योंकि अब तो धर्म की भी व्याख्या, लोग अपने अपने ढंग से करने लगे हैं, यानी जितने लोग, उतने धर्म, जबकि धर्म क्या हैं, रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदासजी साफ कह देते है...

"दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण"


कमाल की बात हैं, भारत में सभी आदर्शवादिता को छोड़, येन केन प्रकारेन पैसे कमाने के लिए, लंपट विद्या की ओर आकर्षित हो रहे हैं, और वे सब कर रहे हैं, जिसकी आशा तक नहीं की जानी चाहिए, फिर भी हमे आशा हैं कि 21 वीं सदी हमारा हैं, एक दिन ऐसा होगा कि सभी भारतीय रंग में रगेंगे और भारतीय संस्कृति को अपनाकर, इस मूल मंत्र को साकार करेंगे, जो भारतीय वांगमय में और इसकी हवाओं में सदियों से गूंज रहा हैं...

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्रानि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत्।।

Monday, October 11, 2010

अयोध्या मुद्दा और तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का विधवा प्रलाप...!

हुत पहले मैंने एक फिल्म देखी थी, उस फिल्म का नाम मैं भूल रहा हूं। उसमें कादर खान बोलते है कि देखो गर नेताजी ट्रेन से जाये तो ये छापो कि एक तरफ जनता बाढ़ से तबाह हो रही है और नेताजी के पास सब कुछ होने के बावजूद देर से मटरगश्ती करते हुए, ट्रेन से बाढ़ प्रभावित इलाकों में पहुंच रहे है, और जब हेलीकॉप्टर से पहुंचे तो ये छापो कि जनता बाढ़ से मर रही है और नेता जी हेलीकॉप्टर पर चढ़कर आनन्द प्राप्त कर रहे है। ठीक यहीं हाल हैं आज के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का। जब से इलाहाबाद कोर्ट ने विवादित स्थल को रामजन्मभूमिस्थल माना हैं, तब से इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों को ऐसा पेट में दर्द हुआ हैं कि उनका ये पेट दर्द खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ये रोज अपनी लेखिनी और टीवी पर आनेवाले बेकार बहसों में शामिल होकर विधवा प्रलाप कर रहे है। यहीं नहीं कल तक ये ही न्यायालय की सम्मान की बात करनेवाले, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह द्वारा न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करा पाने पर उनकी बखिया उधरनेवाले, भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस को उनकी गतिविधियों के लिए बारबार कड़ी आलोचना करनेवाले अब अदालत के ही खिलाफ विषवमन करने लगे है। ये बार – बार कह रहे है कि आखिर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ऐसा क्यूं निर्णय दिया। क्या जब रामलला वहां विराजमान नहीं होते, बाबरी मस्जिद नहीं तोड़ी जाती, तो क्या न्यायालय ऐसा ही फैसला सुनाती। वो भी तब जब दोनों वर्गों के कट्टरपंथियों की बोलती बंद है। न तो भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस इस मुद्दे पर कुछ ऐसी टिप्पणी कर रहे हैं, जिससे सामाजिक समरसता प्रभावित हो, और न ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी। पर अब सामाजिक समरसता में कैसे जहर घूले, कैसे एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम आपस में लड़ कट कर मरें ताकि सामाजिक समरसता का ढिंढोरा पीट कर, हम अपने आप को सेक्यूलर पत्रकार कह सके। इसकी तैयारी अब जोर शोर से हो रही है, रोज कुछ न कुछ ये अपने आपको सेक्यूलर पत्रकार कहनेवाले अखबारों में लिखकर न्यायालय को ही कटघरे में करने का काम कर रहे है। ये वे पत्रकार हैं जो लाखों – करोड़ों में खेलते हैं। जो कांग्रेस और वामपंथी दलों के इशारे पर नाचते हैं। ये वे पत्रकार हैं, जो एनजीओ अथवा सामाजिक संस्थान चलाकर, अपने राजनीतिक आकाओं से उपकृत होते है। अपने राजनीतिक आकाओं के प्रतिद्वंदियों को धूल चटाने के लिए गाहे बगाहे लिखते रहते हैं। इनकी सामाजिकता व राष्ट्रीयता में कोई रुचि नहीं होती, ये महानगरों और विदेशों में अपनी तूती कैसे बजती रहे, इनके संस्थानों में कैसे बड़ी संख्या में रुपये और डॉलरों की बरसात होती रहे, इसकी चिंता रहती हैं। ऐसे लोग इन दिनों बहुत बेचैन हैं, क्योंकि जो ये न्यायालय से सुनना चाहते थे, वो वे नहीं सुन पाये, इसलिए ये अपने आकाओं के इशारे पर विधवा प्रलाप कर रहे हैं, पर इनकी विधवा प्रलाप भी नहीं सुनी जा रही। बेचारे क्या करें।
इसलिए इन्होंने सहारा लिया हैं क्षेत्रीय स्तरों पर छपनेवाले अखबारों का, ताकि महानगरों में न सहीं, छोटे छोटे नगरों में ही उनकी बात लोग पढ़ सकें और देश व समाज एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में झूलस जाये।
कमाल हैं, 30 सितम्बर को रामजन्मभूमि पर आये फैसले पर जब दो समुदाय, एक दूसरे के निकट आ रहे हैं और सामाजिकता व राष्ट्रीयता को मजबूती दे रहे हैं तो ये तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार इस शांति को वे आनेवाले तूफान के पूर्व की शांति बता रहे हैं, लानत हैं ऐसे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर। कमाल ये भी हैं एक एक कर दिन बीतते जा रहे हैं, पर इनकी अयोध्या पर लेखिनी थम नहीं रही, चलती ही जा रही हैं, जैसे देश में लगता हैं कि अब अयोध्या छोड़कर कुछ दूसरा न लिखने को हैं और न बोलने को। ये वे ही लोग हैं जो चिल्ला चिल्लाकर कहा करते थे कि भाजपा राम के नाम पर वोट मांगती हैं, भाजपा सांप्रदायिक हैं, पर अब कौन सांप्रदायिक हैं, कौन बाबर बाबर चिल्ला रहा हैं, ये तो जगजाहिर हैं, किसे बाबर से अत्यधिक अनुराग हो गया हैं, कौन न्यायालय के खिलाफ लिख रहा हैं, ये सब जान रहे हैं, ये तो वहीं बात हुई, कि हमारे पक्ष में फैसले आये तो वाह वाह और दूसरे के पक्ष में फैसले आये तो हो गये तबाह, करने लगे मनमानी। यानी कड़वा कड़वा थू थू और मीठा मीठा चप – चप। जबकि यह फैसला न तो किसी के पक्ष में गया हैं और न ही विपक्ष में। ऐसे भी जब हम न्यायालय की सम्मान की बात करने को कहते है तो क्या ये ही संवाद इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर लागू नहीं होता, जो बेवजह विधवा प्रलाप कर, देश और समाज दोनों को तोड़ने पर लगे है।

Monday, October 4, 2010

अयोध्या से दिल्ली तक...!

संपूर्ण विश्व के देशों में अयोध्या से दिल्ली तक की चर्चा हैं। चर्चा इस बात की है आखिर भारत जैसा देश अयोध्या जैसे मसले पर कैसे शांत रहा और कल तक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा कॉमनवेल्थ गेम्स आज कैसे अपने शानदार आयोजन के लिए पूरे विश्व से बधाई संदेश प्राप्त कर रहा हैं, जबकि कॉमनवेल्थ गेम्स व अयोध्या मुद्दे को लेकर हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी खूब शेखी बघार चुका हैं।
अयोध्या --- नाम लेते ही, 6 नवम्बर 1992 का चित्र उभरता है, जब कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर डाला, और भगवान श्रीराम की बालस्वरुप जिसे रामलला कहते हैं, उनकी प्रतिमा विध्वंस हुए जगह पर आनन फानन में एक टेंट बनाकर प्रतिस्थापित कर डाली। इसे लेकर पूरे देश में कई जगहों पर दंगे हुए, भारत की छवि को गहरा धक्का लगा, ऐसे भी ये कोई पहली घटना नहीं थी, राम और अयोध्या के नाम पर कई बार ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं, पर जब 30 सितम्बर को अयोध्या का अदालती फैसला आया, तब देश में एक खून का कतरा भी नहीं बहा, इस पर सभी आश्चर्यचकित हैं, केवल भारत के ही लोग नहीं, बल्कि विश्व के सभी देश के लोग व मीडिया जगत भी, कि आखिर भारत आज शांत क्यों हैं। वो भारत जो हर छोटे-बड़े मुद्दे पर एक दूसरे से भिड़ जाता हैं, आज क्यों नहीं भिड़ा।
तभी ऐसे हाल में हमारे देश के ऋषि मनीषियों की याद बरबस आ जाती हैं कि जब बिगड़ने के समय आते हैं तो हालात बिगड़ने के हो जाते हैं और जब संवरने के दिन आते हैं तो हालात संवरने से हो जाते हैं। मैं देख रहा हूं कि भारत के कई संतों ने 19 वीं शताब्दी के दौरान विश्व के कई देशों में प्रवास के दौरान कहां था कि 21 वीं सदी भारत का हैं, और आज 21 वीं सदी के दस साल गुजरने को तैयार हैं, और जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, उससे हमें एहसास हो रहा हैं कि सचमुच 21 वीं सदी भारत का हैं और ये इतिहास शायद अयोध्या के द्वारा ही लिखा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी राम को काल्पनिक मानते हैं, कुछ तो राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं कि राम का जन्म कभी हुआ ही नहीं था, पर ऐसा कहनेवाले भूल जाते हैं कि राम भारत के प्राण हैं, आत्मा हैं, राम के बिना भारत की परिकल्पना नहीं की जा सकती, और राम के आधार को किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे भी बिना राम की कृपा के भारत अपनी खोयी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता। राम को हिन्दू और मुसलमान में बांटना भी मूर्खता हैं। राम तो सभी के हैं, उन पर एकाधिकार कैसे हो सकता हैं। राम की शान में तो कई मुस्लिम कवियों और बुद्धिजीवियों ने भी बहुत कुछ लिखे हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा लिखनेवाले अल्लामा इकबाल ने तो राम को इमामे हिन्द तक कह डाला। क्या कोई बता सकता हैं कि इमामे-हिन्द का मतलब क्या होता हैं।
गर सच पूछा जाये तो राम के नाम पर झगड़े आज तक भारत में नहीं हुए, भारत में जब भी झगड़े हुए तो राजनीति के चलते, राजनीतिबाजों के चलते, और ये राजनीतिबाज सभी दलों में हैं, सभी अपने अपने ढंग से राम को देखते हैं और इसी दौरान वे सब कुछ कर डालने की कोशिश करते हैं, जिसमें गांधी के राम दम तोड़ रहे होते हैं। गांधी के राम की गर आप परिकल्पना करें तो साफ पता लग जायेगा कि वे किस राम को पसंद करते है। गर गांधी राम राज्य की परिकल्पना अथवा सुराज की परिकल्पना करते थे, तो गांधी के राम किस आदर्शवादिता पर खड़े उतरते थे। ये उनसे पूछिये, जिस राजनीतिबाजों के बयान, बेडरुम के चादर की तरह, राम के नाम पर बदलते रहते हैं।
अयोध्या में जब फैसले आ रहे थे, तब कई मीडियाकर्मियों ने अखबारों में लिखा और कई इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोस्तों ने दिखाया कि आज के भारत का युवा राम में कम, मंदिर – मस्जिद विवाद में ध्यान कम, और अपने कैरियर, पावर और अपनी आर्थिक शक्ति मजबूत करने पर ज्यादा ध्यान दे रहा हैं, इसलिए अयोध्या में राम मंदिर बने अथवा न बनें इस पर वो ध्यान नहीं देता। जबकि सच्चाई ये हैं कि इस प्रकार के युवाओं की तादाद स्वतंत्रता आंदोलन में भी थी, जिसे आजादी के आंदोलन में दिलचस्पी कम और अन्य कामों में दिलचस्पी ज्यादा थी। ऐसे लोगों के तादाद हर युग में होते हैं जिन्हें देश से कम और अपने आप में ज्यादा दिलचस्पी होती हैं, पर जो राष्ट्र की चिंता करते हैं उनकी तादाद सदियों से बहुत ही कम होती हैं। आज के युवा जिन्हें राष्ट्र में दिलचस्पी हैं, वे अयोध्या के राम मंदिर को मंदिर मस्जिद के रुप में नहीं लेते, वे राष्ट्र के स्वाभिमान से इसे जोड़ते हैं, बात आज राम मंदिर के निर्माण की नहीं, मुद्दा इस बात का हैं कि भारत राम के नाम से जाना जायेगा या विदेशी आक्रांता बाबर के नाम से। अब तो अदालत ने भी मान लिया है कि विवादित स्थल रामजन्मभूमि स्थल हैं, जहां बाबर ने मंदिर की जगह मस्जिद बना दी। तो क्या उस विदेशी आक्रांता द्वारा निर्मित मस्जिद को इसलिए छाती से लगाकर रखा जाय कि उसने हमारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचायी या स्वतंत्रता के बाद उस काम को करें, जिससे हमारे पूर्वज गौरवान्वित हो। क्या ये सहीं नहीं कि स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर का हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उद्धार करवाया था, क्यों उद्धार कराया था, इसकी जानकारी क्या किसी के पास हैं गर नहीं हैं, तो क्या ये जानने की कोशिश की।
हमें अच्छी तरह पता हैं कि देश का कोई सच्चा मुसलमान, रामजन्मभूमिस्थल पर मंदिर निर्माण हो, इसका विरोध नहीं करता, विरोध तो वो करते हैं, जिनकी राजनीति की दाल नहीं गलती, जैसे देखिये, कल तक हर छोटे छोटे मुद्दे पर अदालत का सम्मान करनेवाले, राजनीतिबाज और उनके समर्थक कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आये फैसले को राजनीति के चश्मे से देख कर बयान दे रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को गलत ठहरा रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं और एक बार फिर वे उस वर्ग को बरगलाने का काम कर रहे हैं जो अब रामजन्मभूमि पर अलग राय रख रहा हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें लग रहा हैं कि इस प्रकार के फैसले से उनकी राजनीति बर्बाद हो जायेगी, इसलिए वोट और राजनीतिक समर्थन पाने के लिए वे हर प्रकार का बयान दे रहे हैं, जिसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए, पर खुशी इस बात की हैं कि कई मुस्लिम संगठनों ने ही उन राजनीतिबाजों के बयान की हवा निकाल दी। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी संगठनों ने तो अब इस मुददे को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती न दी जाय, इसकी अपील भी की हैं, साथ ही कई मुस्लिम संगठनों ने रामजन्मभूमि स्थल पर मंदिर बनाने की पहल भी की हैं, जो ये बताने के लिए काफी है कि भारत अब किस ओर चल पड़ा हैं।
जान लीजिये, ये भारत अब पूरी तरह से परिपक्व हो गया है. भारत की जनता पूरी तरह से परिपक्व हो गयी हैं। वो दिन अब दूर नहीं कि ये मुसलमान, हिन्दूओं के साथ मिलकर विवादितस्थल जो अब विवादित नहीं रही हैं, एक साथ मिलकर राममंदिर का निर्माण करेंगे और दूनियां को दिखायेंगे कि भारत अब वो राम के नाम पर लड़ने भिड़नेवाला भारत नहीं, बल्कि राम के नाम पर एक साथ चलनेवाला भारत हैं, वो अब मीडिया और राजनीतिबाजों के चिकनीचुपड़ी बातों में न आकर भारत की एकता अखंडता को मजबूत करनेवाले मार्ग को प्रशस्त करनेवाला भारत हैं। अब इसे कोई छू नहीं सकता, बस उसका लक्ष्य सामने हैं, अपने देश को सर्वोच्च शिखर पर ले जाने का.............................। उसका उदाहरण भी साफ साफ दिखाई पड़ रहा हैं, क्योंकि इसी 21 वीं शताब्दी में भारत पर राम की कृपा स्पष्ट रुप से नजर आयी। जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, जहां विकसित राष्ट्र के बैंकों का समूह औंधे मूंह गिर रहा था, वहीं भारत पर इसका प्रभाव न के बराबर था। भारत आर्थिक रुप से मजबूती से खड़ा रहा। 2007 में महात्मा गांधी जिनकी प्रार्थना ही राम से शुरु हुआ करती थी, उनके जन्मदिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर भारत को प्रतिष्ठा दी। विश्व के कई देशों में भारतीय आर्थिक रुप से मजबूत होकर, भारत का लोहा मनवा रहे हैं, कई देशों में तो भारतीयों का प्रत्यक्ष रुप से शासन चल रहा हैं तो कहीं अप्रत्यक्ष रुप से। कई देशों में तो भारतीय मूल के लोगों ने अपनी प्रतिभा से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया हैं, तभी तो अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी सभी से भारतीयों से सीख लेने की अपील तक कर डाली और अब दिल्ली की बात कामनवेल्थ गेम्स जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा था, आज वो पूरे विश्व में शानदार आयोजन के लिए तालियां बटोर रहा हैं, ये हैं राम के देश का कमाल, ये राम की कृपा। बस इसे आध्यात्मिकता की नजरों से देखिये, भारत त्यागभूमि हैं भोगभूमि नहीं।

अरे ये तो चीन व पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं........!

पाकिस्तान तो अपने जन्म से ही कश्मीर पर अपना हक जताता रहा है, वहीं चीन ये मानने को तैयार ही नहीं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इधर इस साल से वो कश्मीरियों के लिए अलग प्रकार के वीसा जारी कर अपना इरादा भी जाहिर कर दिया है और चीन के इस हरकत को हवा दी है, भारत में ही रह रहे वो लोग जो अपने आपको बुद्धिजीवी मानते हैं, जो अपने आप को वामपंथ की मुख्यधारा में रहने की बात करते हैं, जो खाते पीते भारतीय भूभाग पर हैं पर दिलों दिमाग से चीन व पाकिस्तान के ज्यादा निकट हैं। आश्चर्य है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उस हर प्रकार की राष्ट्रविरोधी हरकतें करते हैं, जिससे भारत की संप्रभुता को चोट पहुंचती है, पर भारत सरकार इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती।
हाल ही में अखबारों और मीडिया के माध्यम से एक बयान पढ़ने और सुनने को मिला कि अपने बयानों से हमेशा चर्चा में रहनेवाली एक महिला बूकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय मानती है कि कश्मीर भारत का कभी अभिन्न अंग नहीं रहा, ठीक इसी प्रकार लादेन की भाषा में नक्सली नेता किशन का कहना था कि कश्मीर को आजाद कर दिया जाय, साथ ही गर वहां भारतीय सेना कश्मीर में कुछ करती है तो वह ऐसे मुद्दे पर नक्सली, मुसलमानों का साथ देंगे, अरे तुम किसी का साथ दो, देश को और देशभक्तों को क्या फर्क पड़ता हैं, वो तुम जिसके लिए लड़ने की बात करते हो, उसका तुम कितना भला कर रहे हो, वो तो भारत की आत्मा और भारतीय जनता खूब जान रही हैं।
कमाल है ये अरुंधती राय और किशन जैसे नक्सली को, जब कश्मीर में हिंदूओं का कत्लेआम होता हैं, जब इस्लाम के नाम पर सिक्खों को धमकी दी जाती हैं कि वे इस्लाम कबूल करें तो ये दोनों उस वक्त वामपंथी किताबों में उलझे रहते हैं, लेकिन जैसे ही इस्लाम, पाकिस्तान और चीन की बात आती हैं तो ये दरवे से निकल कर पाकिस्तान और चीन जैसे देशों तथा इस्लाम के साथ होने की बात करते हैं।
ये नक्सली क्या कर रहे हैं, इससे देश रोज दो चार हो रहा हैं। खूलकर नक्सलियों और उनके गतिविधियों को समर्थन करनेवाली अरुंधती राय को जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस उड़ायी जाती है और निर्दोष रेलयात्रियों की लाशों से पुरा इलाका पट जाता हैं तो उसमें उन्हें इंसानियत नष्ट होता नहीं दीखता। जब आतंकी पूरे कश्मीर से हिंदूओं को एक कर निकाल बाहर कर रहे होते हैं तो इनकी छाती नहीं पसीजती, पर जब देश के स्वाभिमान की रक्षा, एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय सेना अपनी जान गवां रही होती हैं और देशद्रोहियों व आतंकियों को उनकी औकात बताती हैं, तो इनकी छाती फटने लगती हैं, इनकी क्यों छाती फटती हैं, भारतीय जनता अब खूब जान रही हैं।
सदियों से शांति व प्रेम का संदेश देनेवाले भारत में ये लोग बंदूक की गोली से शांति व प्रेम फैलाना चाहते हैं। इनका मानना हैं कि बंदूक की निकली गोली से ही शांति और विकास का द्वार खुलता हैं, क्योंकि ये जिनके आदर्शों पर चलने की बात करते हैं, इनके आका कभी भारत से जुड़े ही नहीं, और न ही उनकी भारतीय आदर्शों में दिलचस्पी थी, ये तो मार काट की ही भाषा समझते थे और है, और जो उनकी ये भाषा नहीं समझता या उनके विचारों को नहीं मानता, उसे सदा के लिए मौत की नींद सुला देते ताकि इनके खिलाफ दूसरा कोई विचार जन्म ही न ले। गर किसी को लगता हैं कि ये लिखे हुए शब्द गलत हैं तो चीन के थ्येन मन चौक की घटना याद कर लें।
इस अरुंधती और किशन को कश्मीर पर बोलना बहुत अच्छा लगता हैं और जो चीन तिब्बत पर बल पूर्वक कब्जा कर बैठा हैं, जहां के लाखों तिब्बती दूसरे देशों में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके पक्ष में बोलने में इनका गला सूखता हैं कारण कि उन्हें अपने आका चीन के खिलाफ बोलने में शर्म महसूस होती हैं, वहां उन्हें चीन की ये गंदी हरकतें बहुत अच्छी लगती है, क्यों आप खूद समझिये। हर बात को समझाने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं, बल्कि इनकी हरकतों, इनके विचारों, जहां ये बोलते हैं, केवल उस पर ध्यान दीजिए।
मेरा रांची से 25 सालों का संबंध रहा है, पर मैने निकट से देखा हैं कि जितने भी जनवादी कार्यक्रम होते हैं, या इस प्रकार के वामपंथी चिंतक, देशतोड़क बयान देनेवाले लोग आते हैं, उनके कार्यक्रम इसाई मिशनरी इलाकों में ही होते हैं, मिशनरी प्रेक्षागृहों में ही होती हैं, आज तक इनके कार्यक्रम मैंने सार्वजनिक जगहों पर होते नहीं देखा। ये धर्म को अफीम मानते हैं, पर सच्चाई ये हैं कि हिंदू धर्म के खिलाफ बोलने, उनके खिलाफ गाली देने में ये शान समझते हैं और चूंकि इस प्रकार के गाली देनेवाले शब्द, देश तोड़क बयान सिर्फ मिशनरीज इलाकों में आराम से बोले जा सकते हैं, कार्यक्रम आयोजित होते हैं। एक बार मैंने इन्हीं मुददों पर एक वामपंथी नेता से पूछा कि आखिर इस प्रकार के आयोजन मिशनरीज इलाकों अथवा मिशनरीज संगठनों के बीच क्यों, अन्य जगहों पर क्यों नहीं, तब इनका कहना था कि ऐसा संभव ही नहीं। आज भी नक्सल प्रभावित इलाकों में मिशनरीज धर्म प्रचार कर आदिवासियों का बलात् धर्म परिवर्तन कर रहे हैं और उनके मूल धर्म और मूल पहचान से अलग कर रहे हैं, किसके इशारे पर ये सब हो रहा हैं। शायद इसका जवाब भी अरुंधती और किशन के पास नहीं होगा। क्या कारण हैं कि विदेशों में लोग भारतीय धर्म के प्रति सहानुभूति रखते हैं पर अपने देश में केवल पेट के लिए लोग धर्म परिवर्तन कर ले रहे हैं।
आजकल इन्हें बहुत अच्छा बहाना मिल गया हैं नक्सलियों को समर्थन देने का कि केन्द्र और राज्य सरकार खनन के नाम पर, कल-कारखाने लगाने के नाम पर पूंजीपतियों को जमीन देने के लिए, जमीन हड़पने के लिए एमओयू कर रही हैं, ग्रीन हंट चला रही हैं। मैं भी मानता हूं कि इसमें कुछ सच्चाई हैं पर ये कौन सी बात हो गयी कि आप इसकी आड़ में देश को तोड़ने पर आमदा हो जाओ, कह दो कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है। ये बोलने का अधिकार किसने आपको दे दिया, आखिर चीन और पाकिस्तान के साथ आपको इतनी हमदर्दी हैं तो फिर भारत में रहने का क्या मतलब हैं, इसे भी तो यहां की जनता को बताओ पर आप ऐसा करोगे, हमें नहीं लगता, क्योंकि आप क्या हो, आज जनता जान चुकी हैं।