Friday, October 29, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव में विकास नहीं, जातीयता हावी…।


संदर्भ विधानसभा चुनाव 2010...!


जैसे जैसे बिहार का चुनाव अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा हैं, वैसे वैसे लालू और नीतीश की सरकार बनानेवालों की दिलों की धड़कन बढ़ती जा रही हैं। हालांकि कमोवेश सभी ने ये माना है कि बिहार में एनडीए यानी नीतीश की सरकार बननी तय है और इसके लिए उन्होंने कई कारण गिनाये है। पटना से प्रकाशित कई समाचार पत्रों तथा दिल्ली से बिहार प्रवास पर गये कई पत्रकारों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। साथ ही कई समाचार चैनलों ने चुनाव विश्लेषन के माध्यम से ये बताने की कोशिश की है कि नीतीश को एक बार फिर बिहार की जनता सिरमौर बनाना चाहती है।
पर अब तक बिहार में तीन चरण के चुनाव संपन्न हो चुके है। और इन क्षेत्रों से जो चुनाव परिणाम आ रहे है वे न तो नीतीश को खुश करनेवाले हैं और न लालू को दुखी करनेवाले है। हां इतना तय है कि कांटे का मुकाबला है। जब पूर्णिया में चुनाव संपन्न हुआ तब हमने वहां के जमीन से जूड़े पत्रकारों से बातचीत की, तब उनका कहना था कि मतदान के पूर्व नीतीश के पक्ष में एक लहर सी देखी गयी थी, ज्यादातर मतदाता विकास को प्राथमिकता देते हुए नीतीश को एक बार फिर सत्ता सौंपने की बात कह रहे थे, पर जैसे ही मतदान का दिन आया, ये मतदाता जातियों और संप्रदायों में विभक्त होते नजर आये, और उन्होंने वोट उसी को दिया, जो उनकी जाति और संप्रदाय को रास आया, यानी यादव और मुस्लिम ने एनडीए को नकार दिया।
यहीं बात रक्सौल के हमारे पत्रकार मित्र ने बतायी। यानी जाति और संप्रदाय से अभी तक बिहार के मतदाता उपर नहीं उठ पाये है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर ठीक ही कहा करते थे, कि भला बिहार में विकास से कहीं वोट मिलते है, वोट मिलने के दूसरे कारण होते है, गर वर्तमान की देखे तो आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू ने अपने प्रदेश में विकास की गंगा बहायी थी। पर आंध्र प्रदेश की जनता ने क्या किया, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। ऐसे भी लोग कहते है और बताते है कि जो लोग अच्छा काम करते हैं, उनका अंत बड़ा दुखद होता है। जैसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी ने इसकी कीमत भी नहीं वसूली, जबकि कई नेताओं ने आजादी के बाद इसकी कीमत वसूली, पर गांधी को मिला क्या, गोली। इसी प्रकार ईसा मसीह को लोगों ने सूली पर लटका दिया। ऐसे कई प्रमाण मौजूद है। जो बताते है कि सत्य के मार्ग पर चलने पर कठिनाईयां ही कठिनाईयां हैं। गर आप सत्य और सेवा की मार्ग पर चलने का प्रण लिया हैं तो स्वर्ग की कामना ही बंद कर दीजिये, पर इसका मतलब ये भी नहीं की हम अच्छा काम करना बंद कर दे।
बिहार के साथ विडम्बना रही हैं कि जब कभी वहां शक्तिशाली नेता उभरा तो उसने राज्य के समग्र विकास पर ध्यान कम और अपने परिवार को सशक्त बनाने, उसके लिए सात पुश्तों तक किसी चीज की कमी न हो, इसका जुगाड़ बिठाने में ज्यादा ध्यान दिया। यहीं नहीं गांधी और लोकनायक के नाम पर राजनीति करनेवालों ने समय आने पर अपनी पत्नी तक को सत्ता सौंप दिया और अब बेटे को आगे कर वे राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें फिलहाल नीतीश को छोड़, रामविलास और लालू ने बड़ी तेजी से कदम बढ़ायी है। रामविलास जी के तो क्या कहने, ये तो भाजपा को सांप्रदायिक बोलते अघाते नहीं, और कभी भाजपा के ही गोद में बैठ कर सत्ता का सुख भी लिये थे, शायद ये भूल गये है। ये वहीं नेता है जो बिहार चुनाव के पहले राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश करने का ड्रामा करते थे, पर आज उपमुख्यमंत्री अपने परिवार से बनाना चाहते हैं। अब बात उठती हैं कि जो व्यक्ति उपमुख्यमंत्री का पद एक मुस्लिम को नहीं दे सकता, वो व्यक्ति राज्य का बागडोर मुस्लिम को कैसे सौंप सकता है। इनके इस ड्रामे से तो लगता हैं कि जब इनकी बहुमत आयेगी, जो कभी संभव नहीं हैं, तो ये खुद ही मुख्यमंत्री बनने के लिए कदम बढ़ा देंगे।
ये हैं हमारे बिहार के कुछ नेताओं का वर्तमान चरित्र, जो बिहार को बुलंदियों तक ले जाने की बात करते है। ये जयप्रकाश आंदोलन के समय संपूर्ण क्रांति की बात करते थे, पर आज अपने परिवारों को सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने के लिए क्रांति की बात करते हैं, क्या ऐसे लोगों के सत्ता में आने से बिहार आगे बढ़ पायेगा, निर्णय तो जनता को लेना हैं और जनता ने क्या निर्णय लिया ये तो चुनाव परिणाम आयेगा, तभी पता चलेगा। फिर भी आशा रखनी चाहिए कि आने वाले बचे हुए विधानसभा सीटों की जनता एक बेहतर सरकार बनाने के पक्ष में मतदान कर, बिहार को आगे बढ़ाने में विशेष रुचि दिखायेगी।

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