Monday, October 11, 2010

अयोध्या मुद्दा और तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का विधवा प्रलाप...!

हुत पहले मैंने एक फिल्म देखी थी, उस फिल्म का नाम मैं भूल रहा हूं। उसमें कादर खान बोलते है कि देखो गर नेताजी ट्रेन से जाये तो ये छापो कि एक तरफ जनता बाढ़ से तबाह हो रही है और नेताजी के पास सब कुछ होने के बावजूद देर से मटरगश्ती करते हुए, ट्रेन से बाढ़ प्रभावित इलाकों में पहुंच रहे है, और जब हेलीकॉप्टर से पहुंचे तो ये छापो कि जनता बाढ़ से मर रही है और नेता जी हेलीकॉप्टर पर चढ़कर आनन्द प्राप्त कर रहे है। ठीक यहीं हाल हैं आज के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का। जब से इलाहाबाद कोर्ट ने विवादित स्थल को रामजन्मभूमिस्थल माना हैं, तब से इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों को ऐसा पेट में दर्द हुआ हैं कि उनका ये पेट दर्द खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ये रोज अपनी लेखिनी और टीवी पर आनेवाले बेकार बहसों में शामिल होकर विधवा प्रलाप कर रहे है। यहीं नहीं कल तक ये ही न्यायालय की सम्मान की बात करनेवाले, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह द्वारा न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करा पाने पर उनकी बखिया उधरनेवाले, भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस को उनकी गतिविधियों के लिए बारबार कड़ी आलोचना करनेवाले अब अदालत के ही खिलाफ विषवमन करने लगे है। ये बार – बार कह रहे है कि आखिर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ऐसा क्यूं निर्णय दिया। क्या जब रामलला वहां विराजमान नहीं होते, बाबरी मस्जिद नहीं तोड़ी जाती, तो क्या न्यायालय ऐसा ही फैसला सुनाती। वो भी तब जब दोनों वर्गों के कट्टरपंथियों की बोलती बंद है। न तो भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस इस मुद्दे पर कुछ ऐसी टिप्पणी कर रहे हैं, जिससे सामाजिक समरसता प्रभावित हो, और न ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी। पर अब सामाजिक समरसता में कैसे जहर घूले, कैसे एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम आपस में लड़ कट कर मरें ताकि सामाजिक समरसता का ढिंढोरा पीट कर, हम अपने आप को सेक्यूलर पत्रकार कह सके। इसकी तैयारी अब जोर शोर से हो रही है, रोज कुछ न कुछ ये अपने आपको सेक्यूलर पत्रकार कहनेवाले अखबारों में लिखकर न्यायालय को ही कटघरे में करने का काम कर रहे है। ये वे पत्रकार हैं जो लाखों – करोड़ों में खेलते हैं। जो कांग्रेस और वामपंथी दलों के इशारे पर नाचते हैं। ये वे पत्रकार हैं, जो एनजीओ अथवा सामाजिक संस्थान चलाकर, अपने राजनीतिक आकाओं से उपकृत होते है। अपने राजनीतिक आकाओं के प्रतिद्वंदियों को धूल चटाने के लिए गाहे बगाहे लिखते रहते हैं। इनकी सामाजिकता व राष्ट्रीयता में कोई रुचि नहीं होती, ये महानगरों और विदेशों में अपनी तूती कैसे बजती रहे, इनके संस्थानों में कैसे बड़ी संख्या में रुपये और डॉलरों की बरसात होती रहे, इसकी चिंता रहती हैं। ऐसे लोग इन दिनों बहुत बेचैन हैं, क्योंकि जो ये न्यायालय से सुनना चाहते थे, वो वे नहीं सुन पाये, इसलिए ये अपने आकाओं के इशारे पर विधवा प्रलाप कर रहे हैं, पर इनकी विधवा प्रलाप भी नहीं सुनी जा रही। बेचारे क्या करें।
इसलिए इन्होंने सहारा लिया हैं क्षेत्रीय स्तरों पर छपनेवाले अखबारों का, ताकि महानगरों में न सहीं, छोटे छोटे नगरों में ही उनकी बात लोग पढ़ सकें और देश व समाज एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में झूलस जाये।
कमाल हैं, 30 सितम्बर को रामजन्मभूमि पर आये फैसले पर जब दो समुदाय, एक दूसरे के निकट आ रहे हैं और सामाजिकता व राष्ट्रीयता को मजबूती दे रहे हैं तो ये तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार इस शांति को वे आनेवाले तूफान के पूर्व की शांति बता रहे हैं, लानत हैं ऐसे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर। कमाल ये भी हैं एक एक कर दिन बीतते जा रहे हैं, पर इनकी अयोध्या पर लेखिनी थम नहीं रही, चलती ही जा रही हैं, जैसे देश में लगता हैं कि अब अयोध्या छोड़कर कुछ दूसरा न लिखने को हैं और न बोलने को। ये वे ही लोग हैं जो चिल्ला चिल्लाकर कहा करते थे कि भाजपा राम के नाम पर वोट मांगती हैं, भाजपा सांप्रदायिक हैं, पर अब कौन सांप्रदायिक हैं, कौन बाबर बाबर चिल्ला रहा हैं, ये तो जगजाहिर हैं, किसे बाबर से अत्यधिक अनुराग हो गया हैं, कौन न्यायालय के खिलाफ लिख रहा हैं, ये सब जान रहे हैं, ये तो वहीं बात हुई, कि हमारे पक्ष में फैसले आये तो वाह वाह और दूसरे के पक्ष में फैसले आये तो हो गये तबाह, करने लगे मनमानी। यानी कड़वा कड़वा थू थू और मीठा मीठा चप – चप। जबकि यह फैसला न तो किसी के पक्ष में गया हैं और न ही विपक्ष में। ऐसे भी जब हम न्यायालय की सम्मान की बात करने को कहते है तो क्या ये ही संवाद इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर लागू नहीं होता, जो बेवजह विधवा प्रलाप कर, देश और समाज दोनों को तोड़ने पर लगे है।

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