Monday, November 29, 2010

स्थानांतरण एक एसपी का ......


जनता चाहती हैं, कि वो मेरे पास रहे, मेरे साथ रहे, मेरे हर दुख सुख में साथ दें, क्योंकि वो जब से आयी, तब से धनबाद में वो चीज थम गया, जिसके लिए धनबाद जाना जाता था। आखिर वो कौन हैं – जिसके बारे में धनबाद की जनता ने धनबाद बंद बुला दिया और यहीं नहीं सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार हो गयी। स्पष्ट हैं – वो नाम हैं, धनबाद के वर्तमान एसपी सुमन गुप्ता का। वो हैं महिला, पर पुरुषार्थ इतना भरा कि उनके सामने पुरुष की पुरुषार्थ भी फेल। जब वो धनबाद की एसपी बनी थी, तब मैं उस वक्त ईटीवी धनबाद का प्रभारी था। मनौज कौशिक एसपी की विदाई हो गयी थी और सुमन गुप्ता प्रभार ले रही थी। व्यवसायी वर्ग रोज रोज की रंगदारी से तंग था, कोल माफियाओं की तूती बोल रही थी। नेताओं-माफियाओं-भ्रष्टाचार में लिप्त कुछ पुलिसकर्मी और पत्रकारों का गठजोड़ अपने रंग में था। ऐसे में इन पर नकेल कसना और धनबाद को रास्ते पर लाना कोई सामान्य काम नहीं था। ऐसे भी कहा जाता हैं कि जो भी आईपीएस झारखंड आता है, और उसे पैसे कमाने होते हैं तो वो एक बार धनबाद की पोस्टिंग चाहता हैं, इसके लिए वो सत्ता में बैठे नेताओं को मुंहमांगी रकम देने को भी तैयार होता है। यहीं नहीं जब पैसे के बल पर, वो एसपी धनबाद आ जाता हैं, तब अपने मनमुताबिक, वो थाना प्रभारियों को नियुक्त करता हैं, सस्पेंड करने का नाटक करता हैं और जम कर पैसे कमाता हैं। ऐसे एसपी को कुछ करने की भी जरुरत नहीं पड़ती, धनबाद हैं, इसलिए पैसे खुद ब खुद इनके पास पहुंच रहा होता हैं, पर इसके बदले में एक सामान्य जनता को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती हैं। चाल धंसते हैं, सामान्य लोग मरते हैं, व्यवसायियों से रंगदारी मांगी जाती हैं, अपहरण उद्योग चलता हैं, रेलवे से लोहे और कोयले की चोरी नहीं, तस्करी होती हैं और अपना प्रांत व देश लूट रहा होता हैं। इधर, भ्रष्ट एसपी, आराम से सो रहा होता हैं, क्योंकि उसे सोने की कीमत हर महीने, कार्यालय, आवास अथवा मनमुताबिक जगहों पर पहुंचा दी जाती हैं।
सुमन गुप्ता, झारखंड का एक जाना पहचाना नाम हैं, इसलिए नहीं कि वो एसपी हैं, इसलिए कि वो अपने कामों से जनता का दिल जीती हैं, साथ ही दिल जीती हैं, उन पुलिसकर्मियों का जो ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ हैं, और उक्त जनता का, जिसे लटपट से कोई मतलब नहीं, सिर्फ उसे मतलब हैं कि चैन से जीने का। जब मैं ईटीवी धनबाद में था, तभी मैं समझ गया था कि इनकी नेताओं, माफियाओं, धनबाद में रह रहे कुछ भ्रष्टपुलिसकर्मियों और पीतपत्रकारिता में संलिप्त लोगों से नहीं बनेगी, और हुआ भी ऐसा ही। सुनियोजित साजिश के तहत शुरु से ही ऐसा ताना बाना बनाया जाने लगा, जैसे लगता हैं कि इनके आने से धनबाद में अमन चैन ही खत्म हो गया हो। और रही सही कसर निकाल दी, धनबाद में धीरेन्द्र प्रकरण ने, जो नेता ये मुद्दा उछाल रहे हैं, उन्हें धीरेन्द्र से कोई मतलब नहीं। मतलब हैं कि इसी की आड़ में, अपना उल्लू सीधा कर लें। यहीं नहीं रांची में बैठे सत्तासीन लोगों को भी पैसे की चाहत हैं, वे भी चाहते हैं कि धनबाद में अपने ऐसे लोगों को बिठा दें, जो आराम से उनके चौखट तक पैसे पहुंचा दे। ऐसे में जब तक धनबाद के एसपी सुमन गुप्ता को नहीं हटायेंगे, तो फिर मनचाहा आदमी कैसे बैठेगा। इसलिए उन्होंने तरकीब निकाली कि क्यूं नहीं, विपक्ष के इस हंगामें को आधार बनाकर, अपना उल्लू सीधा कर लिया जाय। हमें याद हैं कि जिस दिन विधानसभा अपना स्थापना दिवस मना रहा था, उस दिन धनबाद के कई पुलिसकर्मियों और पत्रकारों के फोन हमारे पास आये, उनका एक ही प्रश्न था कि धनबाद के एसपी सुमन गुप्ता का क्या हुआ। आज झाविमो विधायक समरेश सिंह और फूलचंद मंडल ने जो हंगामा किया, उसका कितना असर रहा। और जिस दिन आईपीएस अधिकारियों का तबादला हुआ, उसमें सभी समाचार पत्रों ने सुमन गुप्ता को ही प्रमुखता दे दी, जबकि तबादला सिर्फ सुमन गुप्ता का ही नहीं, औरों का भी हुआ था। ये बातें साबित करती हैं कि एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ महिला, कोलमाफियाओं, सत्ता में बैठे अथवा बाहर में रह रहे राजनीतिज्ञों, भ्रष्ट पुलिसकर्मियों और पीत पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों को किस प्रकार खटक रही हैं।
मैं ये भी नहीं कहता कि सुमन गुप्ता हमेशा धनबाद में ही रहे, ऐसी महिला, हर जगह जानी चाहिए, जिससे एक नये समाज की रचना हो, पर उक्त महिला का स्थानांतरण भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, कोलमाफियाओं, भ्रष्टपुलिसकर्मियों और भ्रष्ट पत्रकारों को खुश करने के लिए हो, तो इससे ज्यादा शर्मनाक दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता। धीरेन्द्र सिंह प्रकरण की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, और इसके दोषियों को दंड भी मिलना चाहिए, पर इस प्रकरण को बहाना बनाकर, बिना जनता को विश्वास में लिए, स्थानांतरण करना, सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़ें करता हैं? आखिर सरकार को सोचना चाहिए कि जो लोग रांची से धनबाद अथवा धनबाद से रांची तक ये मामला उठा रहे हैं, वे चाहते क्या हैं, उनका क्या स्वार्थ हैं, पर बिना इन सबकी जांच पड़ताल किये, स्थानांतरण कर देना, बहुत कुछ कह देता हैं। आखिर फुलचंद मंडल, ढुल्लू महतो और समरेश सिंह जैसे विधायक, धनबाद में क्या करते हैं, क्या चाहते हैं, क्या धनबाद की जनता नहीं जानती। कैसे पंचायत चुनाव के दौरान, अर्जुन मुंडा की सरकार ने आनन फानन में, सुमन गुप्ता का स्थानांतरण कर दिया, क्या इस सरकार के क्रियाकलापों को यहां की जनता नहीं जानती। सब जानती हैं, पर जनता करें क्या, यहां तो अंधेर नगरी, चौपट राजा, टके सेर भाजी और टके सेर खाजा वाली कहावत चरितार्थ हो रही हैं।

Thursday, November 25, 2010

चेते लालू, नहीं तो कहीं के नहीं रहेंगे।

रहस्यमय जनादेश बिहार का....!

ये जनादेश बता रही है, कि इस जनादेश में नीतीश की जीत कम एवं लालू, रामविलास और कांग्रेस की करारी हार ज्यादा हैं। गर इस जनादेश के माध्यम से भी लालू, रामविलास और कांग्रेस के राहुल नहीं चेते, तो ये सब आनेवाले समय में कम से कम बिहार में तो समाप्त ही हो जायेंगे। और बिहार से समाप्त होने का मतलब आनेवाले समय में देश की संपूर्ण राजनीति से भी समाप्त हो जाना हैं, ये बातें इन्हें नहीं भूलना चाहिए।
सबसे पहले लालू की बात ----
लालू जी ने जब 1990 में बिहार की पहली बार सत्ता संभाली तो ये सत्ता मिलते ही ऐसे बौराये कि पूछिये मत। अजब गजब के निर्णय, हर किसी को गाली और अपने आगे किसी को नहीं लगाना, मसखरी करना, खुद के लिए लालू चालीसा लिखवाना, अपनी गुणगान कराना इनके रोज का शौक बन गया। मैं, उस लालू की बात कर रहा हूं, जिस लालू के बारे में उस वक्त बिहार की जनता एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती थी, और गर किसी ने भूल से भी लालू के बारे में बोला तो उसके बुखार छुड़ा देती थी। यानी इतना शक्तिशाली बिहार का नायक लालू, आज श्रीहीन हैं, आज का लालू सत्ता तो दूर एक एक सीट के लिए तरस रहा है और जनता उसके बारे में कुछ बात करने से भी परहेज करती हैं। शायद उस वक्त सत्ता के मद में लालू प्रसाद श्रीरामचरितमानस की चौपाई वो भूल गये थे कि
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहु धन खल इतराई।।
फिर भी लालू अब सुधरेंगे, कल सुधरेंगे, ऐसा मानते हुए यहां की जनता ने एक नहीं तीन – तीन बार सत्ता सौंपा, पर बिहार की जनता को मिला क्या। इस व्यक्ति ने सत्ता प्राप्त कर ऐसा चक्कर चलाया कि इसी चक्कर में, इनका पूरा परिवार और ससुराल सत्ता का सुख भोगा, पन्द्रह वर्षों तक ये बिहार का भाग्य विधाता, अपने परिवार का भाग्य विधाता बनकर, सत्ता का परमसुख लेता रहा और बिहार की जनता गरीबी के बोझ तले, इधर से उधर भटकती रही, इसी दरम्यान देश के कुछ प्रांतों के लोग बिहारियों को हीन नजरों से देखकर उस पर लात घूंसों का बौछार करने से नहीं चूके। कमाल हैं बिहारी दूसरे प्रांतों में लात जूते खा रहे थे और इधर इनका ज्यादा समय पटना के गांधी मैदान में जातीयता रैली करने, और उसकी अध्यक्षता करने में जाता, यहीं नहीं गरीब रैला, लाठी पिलावन रैला, तेल पिलावन रैला, यहीं करके खुद को आनन्दित करने में यह व्यक्ति मजा लेता रहा और लोग अपने आप को कोसते रहते। यहीं नहीं इस व्यक्ति को विदेश जाने का भी मौका मिला तब विदेश में भी उसने अपने हाव भाव से बिहार के लोगों की वो तस्वीर पेश की, जिसकी जितनी निंदा की जाय कम हैं। कमाल हैं बिहार की राजनीति में आज तक कोई ऐसा व्यक्ति अथवा राजनीतिज्ञ नहीं हुआ, जिसने सत्ता के मद में आकर, अपने परिवार और ससुरालवालों की इतनी आवभगत की हो या मसखरी करते हुए खुद सत्ता में नहीं है, तो अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया हो। क्या इन्हें बिहार की जनता ने इसीलिए सत्ता सौंपी थी।
बिहार को किसी भी कीमत पर नहीं बांटने की बात करनेवाले इस व्यक्ति को जैसे ही बिहार में कम सीटें मिली, इसने बिहार को बांटने का सहर्ष निर्णय ले लिया। कभी इसने कहा कि ये शाकाहारी हो गये, और कभी कहा कि भगवान उनके सपने में आये और कहा कि मांसाहारी हो जा, और वे मांसाहारी हो गये।
इस व्यक्ति के शासनकाल में महिलाएं, रात तो दूर, सायंकाल में घर से निकलना पसंद नहीं करती थी। अपहरण उद्योग तो इनके शासनकाल में ऐसा फैला कि पूछिये मत और भ्रष्टाचार का तो कहना ही नहीं। इस भ्रष्टाचार में तो खुद ऐसे पारंगत हैं कि इन्हें इसकी पाठशाला खोल देनी चाहिए ताकि लोग भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण लेकर, देश का सत्यानाश कर सके। ये वो व्यक्ति हैं जो कहता हैं कि वो संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट है गर ऐसा व्यक्ति संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट हैं तो मुझे उस संपूर्ण क्रांति आंदोलन पर ही शक हो जाता है। पर लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन पर शक मैं सपने में भी नहीं कर सकता, क्योंकि इसी आंदोलन के प्रोडक्ट कई ऐसे लोग मिले हैं, जो सचमुच में संपूर्ण क्रांति के भाव को जन जन तक पहुंचा रहे हैं। याद करिये, लालू प्रसाद को, कभी ये खुद को किंग मेकर कहा करते थे, पर एक मामूली रेल मंत्रालय लेने के लिए ऐसा जिच किये कि सोनिया ने मनमोहन सिंह से कहा कि लालू को रेल वे दे दें ताकि ये रेल से खेल सकें, जैसा कि एक छोटा सा बच्चा अपनी मां से रेलरुपी खिलौने लेने की जिद कर बैठता हैं। क्या एक किंग मेकर, खुद के लिए ऐसा जिच कर सकता हैं और जो ऐसा जिच करता हैं वो कभी किंग मेकर हो सकता हैं। किंग मेकर क्या होता हैं, लालू को कम से कम सोनिया गांधी से सीखना चाहिए, पर इन्हें मसखरी करने से फुर्सत हो तब न, कुछ सीखेंगे। हर बार ये कहना कि उन्होंने गरीबों, मजलूमों को आवाज दी, जैसे लगता है कि गर ये न होते तो कभी गरीबों और मजलूमों को आवाज ही नहीं मिलती। जरा लालू जी जाकर उन गांवों में देखे कि उनके नाम पर, उनकी जाति के लोगों ने किस प्रकार से आंतक मचा कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया, कैसे अल्पसंख्यकों की कब्रिस्तान की जमीन तक इनके लोगों ने कब्जा कर लिया है। आज ही एक चैनल ने दिखाया कि एक पटना के रिक्शेवाले ने कैसे अपनी दुख भरी कहानी सुना दी कि लालू के शासनकाल में जब वो रिक्शावाला सुबह से शाम तक रिक्शे खींचता, पैसे कमाता तो उसके पैसे को अपराधी कैसे, घर जाने के क्रम में लूट लिया करते, पर नीतीश के शासन में अब उसके साथ ऐसा नहीं होता। क्या रिक्शावाला का ये बयां, लालू के दिमाग में नहीं घूसता। कि वो क्या कहना चाहता है।
आज जब एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिला है, तो इस बहुमत को भी नहीं पचाना और इस पर ये टिप्पणी करना कि इसमें रहस्य हैं, ये लालू प्रसाद जैसे लोग ही बयान दे सकते हैं, जबकि दूसरे नेता तो ऐसे मौके पर अपने प्रतिद्वंदियों के घर जाकर, उसे अपनी शुभकामना देते है पर लालू प्रसाद से ऐसी परिकल्पना मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं।
जरा रामविलास पासवान को देखिये कल तक मुख्यमंत्री मुस्लिम हो, इसकी बात करनेवाला ये शख्स ऐन मौके पर ये बयान ही भूल गया और चल पड़ा अपने परिवार को मजबूत करने के लिए। कल तक कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगानेवाले ये दोनो शख्स खुद ही परिवार के आगे कुछ सोचना भी नहीं चाहता, क्या ऐसे लोगों को बिहार की जनता से वोट मांगने का हक भी हैं, और जब जनता ने अपना फैसला सुना दिया तो उस फैसले पर रहस्य पैदा करनेवाले ये कौन होते हैं। क्या ऐसा कहकर वे जनता का अपमान नहीं कर रहे।
रही बात राहुल की तो उन्हें ये जान लेना चाहिए कि ये उत्तर प्रदेश अथवा महाराष्ट्र नहीं हैं कि उनका जादू चल जायेगा, ये खांटी कर्मयोगियों की भूमि हैं, बिहार हैं, यहां एक्टिंग नहीं चलती, यहां के लोगों को जमीन से जूड़ा हुआ नेता चाहिए, इसलिए पहले वे बिहार के बारे में जानें, तब बिहार में आकर बात करें। कल तक विदेश में अपना सारा समय गंवानेवाले राहुल बिहार को क्या जानेंगे। ऐसे भी कहावत हैं, बांझ का जाने प्रसव का पीड़ा। बिहार और बिहार के लोगों की पीड़ा राहुल क्या जानेंगे। कम समय में जिस प्रकार से उन्होंने बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही और जो करतब दिखायें, वो तो बिहारवासियों ने जनादेश के माध्यम से उन्हें बता दिया। शायद राहुल समझ लिये थे कि बिहार के लोग लालू जैसे होते हैं, और जैसे लालू को उन्होंने अपने कब्जें में कर लिय़ा, उसी प्रकार बिहार के लोगों के मतों पर भी कब्जा कर लेंगे, तभी तो उन्होंने साधु यादव, पप्पू यादव की पत्नी और आनन्द मोहन की पत्नी को कांग्रेस से टिकट देकर, अपनी बुद्धिमता का परिचय दे दिया और जब जनता की बारी आयी तो जनता ने इनकी सारी बुद्धिमता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया, ये कहकर कि उन्हें न तो लालू चाहिए और न ही लालू के पदचिन्हों पर चलनेवाले पूर्व के नेता अथवा उनकी पत्नियों से उपकृत होनेवाली पार्टी।
जनता ने पहली बार, ऐसा जनादेश दिया हैं कि लोगों को बिहारी होने पर गर्व महसूस हो रहा हैं। सारे के सारे जातीय समीकरण ही ध्वस्त हो गये। नेताओं की पत्नियां और उनके परिवार के अन्य लोग हार का मुंह देखे हैं। चारों और एक ही बात की चर्चा का, हमें विकास चाहिए, बिहार का स्वाभिमान चाहिए और जो बिहार का स्वाभिमान लौटायेगा, हम उसके साथ होंगे। हम ऐसा नहीं मानते कि नीतीश ने पूरे बिहार में क्रांति ला दी हैं, पर इतना तो जरुर हैं कि नीतीश के शासनकाल में कानून व्यवस्था ठीक हुई हैं, महिलाओं को उनका अधिकार मिला हैं, लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं हुआ हैं, चाहे वो कोई हो, माध्यमिक शिक्षा से जूड़ी बालिकाओं को साईकिल थमा दी गयी कि वे इससे जहां जाये, जायें, लेकिन पढ़े। सड़कों और आधारभूत संरचनाओं को ठीक किया। अपराधी चाहे वे किसी भी पार्टी के हो, उन्हें जेल का रास्ता दिखाया। लोगों में विश्वास जगाया कि हां राज्य में कोई शासन हैं, पर पहले के पन्द्रह सालों में कहीं कुछ दिखा ही नहीं। लालू के पन्द्रह सालों में तो अखबारों और मीडिया में लालू और लालू से संबंधित ही चीजें दिखाई पड़ती थी, चाहे वो लालू के जानवर ही क्यूं न हो, पर आज वैसी बातें नहीं दिखाई देती। आज बिहार और बिहार का युवा, कहता हैं कि वो मसखरे के राज्य का नहीं हैं, बल्कि सपने देखनेवाले राज्य का युवा हैं, जो अन्य राज्यों की तरह विकास के पथ पर चल पड़ा हैं। लेकिन नीतीश के लिए भी कुछ बातें, उन्हें भी जवाब देना होगा, ऐसा नहीं कि उनकी गलतियों पर जनता का ध्यान नहीं हैं, उन्होंने किस प्रकार इस चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट किया और अपनी गुणगान करायीं, ये भी किसी से छुपा नहीं हैं, उदाहरण अनेक हैं, पर इतना तो तय हैं कि नीतीश के गुनाह, फिलहाल लालू, रामविलास और राहुल के गुनाहों से बहुत ही कम हैं। शायद यहीं कारण हैं कि गुनाहगारों में जो कम गुनाहगार था, जनता ने उसे अपना बहुमत दे दिया कि वो पांच साल तक, एक बेहतर बिहार बनाने की दिशा में काम करें, रही बात भाजपा की, तो वो नीतीश के पीछे पीछे चलते रहे, कुछ न कुछ, उसको इसका लाभ मिलता ही रहेगा। क्योंकि भाजपा, कांग्रेस के पदचिन्हों पर चल रही हैं, गर ये सुधर गयी तो ठीक है, नहीं तो इसका भी कांग्रेस जैसा हाल होना तय है।

Friday, November 12, 2010

एहि सूर्य ..........

( छठ पर विशेष )
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्तया गृहाण अर्घ्यं दिवाकर।।

जब से सृष्टि बनी तभी से मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त हर वस्तूओं को जानने की कोशिश की, और अपने अपने ढंग से परिभाषा गढ़नी शुरु की। जब जब कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी व्रत आता हैं, जिसे सामान्य जन छठ व्रत कहते हैं, अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में छठव्रत से संबंधित मनगढ़ंत बातें छपनी और दिखानी शुरु हो जाती हैं, ऐसी ऐसी बातें, जिनका छठ से कोई लेना देना नहीं होता, और इस कारण से आनेवाली नयी पीढ़ी, इस छठ के आध्यात्मिक पक्ष से विमुख होती जा रही हैं, लेकिन जब इन्हीं से संबंधित उन समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों से ये पूछे कि आखिर उनके पास जो वे लिख रहे हैं या दिखा रहे हैं, उसके क्या शास्त्रीय आधार है, तो वे तुरंत ये कहकर पल्ले झाड़ लेंगे कि इससे संपादक का कोई लेना देना नहीं, पर क्या संपादक को ये अधिकार हैं कि वे अपनी दकियानूसी विचारधाराओं और अविश्वसनीय आलेखों और प्रवचनों से आम लोगों की बुद्धि को प्रभावित कर दें। खैर, जो इन्हें करना था, कर चुके हैं, पर आम जनता को ये जानना अवश्य चाहिए कि आखिर ये छठ व्रत क्या हैं और इसके वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार क्या हैं.....
सर्वप्रथम वैज्ञानिक पक्ष.......
सूर्य क्या है........?

सामान्य सा उत्तर हैं कि सूर्य ग्रह नहीं हैं, यह एक तारा हैं, जो सामान्य तारों की अपेक्षा पृथ्वी के नजदीक हैं और इसी से पृथ्वी प्रकाशित होती हैं और अन्य नौ ग्रह इसके चारों और चक्कर लगाते हैं।
कुछ इस प्रकार भी इसे परिभाषित कर सकते हैं कि सूर्य उच्च तापक्रम वाले अंसख्य पिंडों से बना हैं, इसमें मुख्यतः हाईड्रोजन होती हैं। सूर्य का व्यास पृथ्वी से 109 गुणा बड़ा है, और इसका भार पृथ्वी से 3,30,000 गुणा अधिक है। परंतु सूर्य का घनत्व पृथ्वी की तुलना में केवल एक चौथाई है। वैज्ञानिकों की माने तो करीब 10.5 अरब वर्ष पहले समस्त अंतरिक्ष में फैले गैस के बादल विभिन्न स्थानों पर निकट आये, धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों पर वे पास आते गये। गैस के बादलों की ये गेंदे समय के साथ दबती गयीं। और जैसे जैसे उनका तापमान बढ़ता गया, उनमें से हरेक गेंद एक चमकीला सितारा बन गयी। इस प्रकार अंसख्य तारे बने, जिनमें से हमारा सूर्य भी एक था।
वैज्ञानिक ये भी कहते हैं कि करीब 15 अरब वर्ष पहले, एक उंचे तापमान और घनत्व के बड़े धमाके के कारण यह अंतरिक्ष बना, जहां हम आज है। जैसे-जैसे अंतरिक्ष फैला, वैसे-वैसे तापमान ठंडा होने लगा। विभिन्न प्रकार के पदार्थ और विकिरण उत्पन्न होने लगे। जैसे जैसे यह और बड़ा हुआ, गैस के दो प्रकार के बादल बने – एक में गैस का घनत्व अधिक था, दूसरे में गैस का घनत्व कम था। अंत में अतरिक्ष में तैरते गैसे के ये बादल और पदार्थ कुछ स्थानों पर पास आये और अनेक आकाशगंगाएं बनी। इनमें से एक आकाशगंगा में एक अकेला सितारा बहुत तेजी से चमकने लगा। ये चमकता तारा हमारा सूर्य बना और इसके चारों और मंडराते हुए गैस के बादलों ने ही निकट आकर अन्य ग्रहों और पृथ्वी को बनाया। इस प्रकार माना जाता हैं कि सूर्य आज से कोई 460 करोड़ वर्ष पहले बना हुआ होगा।
वैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि वर्तमान सूर्य हाईड्रोजन गैस के जलने के कारण लगातार गर्मी और प्रकाश दे रहा है। सूर्य के क्रोड में हाईड्रोजन लगातार जलकर हीलियम में बदलती है। जैसे-जैसे हाईड्रोजन की मात्रा कम होती हैं, सूर्य लगातार कमजोर होता है। बाद में सूर्य में ही हीलियम गैसे जलने लगेगी और सूर्य फैलने लगेगा। सूर्य फैलकर इतना बड़ा हो जायेगा कि वह समीप के बुध और शुक्र जैसे ग्रहों को ही निगल सकता हैं। अंत में सूर्य तेजी से सिकुड़ने लगेगा और श्वेत वामन तारा बन जायेगा। फिर सूर्य अपनी जीवन यात्रा खत्म करेगा और अंतरिक्ष की धूल के रुप में शुन्य में विलीन हो जायेगा। और
अब आध्यात्मिक पक्ष......
भगवान सूर्य को धार्मिक शास्त्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है ----------
भास्कर, दिवाकर, प्रभाकर, रवि, भानु, अंशुमाली, मार्तंड, मरीची, आदित्य, सविता, पतंग, दिनकर, हंस आदि।
भगवान सूर्य के अर्चन के लिए विहित पत्र-पुष्प
भविष्य पुराण बताता हैं कि सूर्य भगवान को यदि एक आक का फूल अर्पन किया जाय, तो सोने की दस अशर्फियां चढ़ाने का फल प्राप्त हो जाता है। भगवान सूर्य को बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति, कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया, चंपा, रोलक, कुंद, काली कटसरैया, बर्बर मल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरुपा, कमल, मौलसिरी, अगस्तय और पलाश के फूल तथा दूर्वा अतिप्रिय है। भगवान सूर्य को बेलपत्र, शमी का पत्ता, भँगरैया की पत्ती, तमाल का पत्र, तुलसी और काली तुलसी के पत्ते, कमल के पत्ते भी पसंद है। भगवान सूर्य को गुंजा, धतूरा, कांची, अपराजिता, भटकटैया, तगर और अमड़ा न चढ़ाये, क्योंकि वीरमित्रोदय इन वस्तूओं को सूर्य पर न चढ़ाने को कहा है।
धार्मिक पुस्तकों की माने तो भगवान सूर्य की माता का नाम अदिति और पिता का नाम कश्यप है। इसलिए इन्हें आदित्य और कश्यपनंदन के नाम से भी पुकारा जाता हैं। इनकी पत्नी दक्षकन्या रुपा थी। ये सप्तअश्व से युक्त रथ पर आरुढ़ होते हैं और इनके सारथि अरुण है। इनके एक हाथ में चक्र होता है। भविष्य पुराण की मानें तो दक्षकन्या जिनका नाम रुपा था, उनसे भगवान भास्कर का विवाह हुआ और उससे दो संताने हुई, जिनका नाम था यम और यमुना। किन्तु भगवान भास्कर के तेज को रुपा सहन नहीं कर सकी, और छाया के रुप में अपनी ही एक प्रतिमूर्ति बनाकर वह स्वयं तप करने चली गयी। इसी छाया से शनि और ताप्ती की उत्पत्ति हुई। यमुना और ताप्ती आज भी भूलोक में पृथ्वी पर पवित्र नदियों के रुप में प्रत्यक्ष है।
कहा जाता है कि जड़ व चेतन की आत्मा, प्रत्यक्ष भागवत स्वरुप साकार ब्रह्म रुप हैं – भगवान सूर्यदेव।
वेद कहते हैं -----
ऊं आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। (ऋग्वेद)
ऋग्वेद में तो भगवान भास्कर से संबंधित कई सूक्त आपको मिल जायेंगे। उस ऋग्वेद में जिसे गिनीज बुक ऑफ वलर्ड रिकार्डस नामक पुस्तक मानती हैं कि ये विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक हैं।
यहीं नहीं अथर्ववेद कहता हैं कि ---------------
सूर्यस्तवाधिपतिमृर्त्योरुदायच्छतु रश्मिभिः अर्थात भगवान भास्कर की रश्मियां जीवन प्रदाता, स्वास्थ्य प्रदाता हैं ये अमृततुल्य होती है। ओंकार सूर्य देव की नित्य उपासना व अर्घ्य, पुष्प अर्पण सर्वदा शुभ हैं।
कौन हैं छठि मईया..........?
छठि मईया और कोई नहीं वहीं आदिशक्ति हैं, जिनसे सारी सृष्टि उत्पन्न हुई हैं, वहीं प्रकृति की छठवीं अंश हैं, उन्हें आप षष्टम् कात्यायिनी कहें, अथवा और जो नाम डाल दे। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार देवसेना, जो ब्रह्मा की मानसपुत्री और कार्तिकेय की भार्या है, उन्हें भी षष्ठी देवी के नाम से पुकारते है, क्योंकि कहा गया हैं कि ये ही मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण षष्ठी देवी कहलायी हैं, इन्हीं के प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीनजन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते है। ब्रह्मवैवर्तपुराण की मानें तो रविषष्ठी व्रत के दिन, भगवान भास्कर की रश्मियों में देवी षष्ठी का प्रार्दुभाव हो जाता हैं, और जो लोग इस दौरान भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान कर रहे होते हैं, उन्हें भगवान भास्कर और छठि मईया दोनों की कृपा स्वतः प्राप्त हो जाती है।
सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया ---------------
भविष्योत्तर पुराण कहता हैं कि इस व्रत को सर्वप्रथम नागकन्या की उपदेश सुनकर सुकन्या ने किया था। वो सुकन्या जो महराज शर्याति की पुत्री थी। कहा जाता हैं सतयुग में राजा शर्याति नामक एक राजा हुए। जब राजा शर्याति अपने सपरिवार और राजकीय लोगों को लेकर जंगल में शिकार करने के लिए निकले। तभी उस जंगल में सुकन्या फूल लाने के लिए निकली। सुकन्या वहां पहुंची, जहां महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। महर्षि की तपस्या से ऐसी हालत हो गयी थी कि उनके शरीर में दीमक लग गया था। मुनि के शरीर में दीमक लगा देखकर सुकन्या चिन्तित होकर क्या देखती हैं कि दीमक लगे मिट्टी के टीले के मध्य में दो आंखे, जूगनू की तरह चमक रही हैं। आखिर ये चमकती चीजें क्या हैं, इसे जानने के लिए सुकन्या ने महर्षि के नेत्रों को फोड़ डाला। इससे महर्षि के नेत्रों से खून की धारा निकल पड़ी, महर्षि को असह्य पीड़ा होने लगी और इधर सुकन्या अपने स्थान पर लौट आयी। इधर महर्षि च्यवन के नेत्र, सुकन्या द्वारा फोड़ दिये जाने के कारण राजा शर्याति और उनके परिवार तथा राजकीय अधिकारियों के मलमूत्र बंद हो गये, तीन दिनों तक मल मूत्र बंद हो जाने से सभी व्याकुल हो गये। राजा शर्याति ने इसका कारण अपने पुरोहित से पूछा। पुरोहित ने योग बल के द्वारा राजा शर्याति को सारी कहानी बतायी कि सुकन्या के द्वारा क्या अपराध हुआ है। राजा शर्याति सारा माजरा समझ गये और अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से कर दिया। इधर सुकन्या अपने पति महर्षि च्यवन की खूब सेवा सुश्रुषा करने लगी। एक दिन जब कार्तिक शुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तब सुकन्या ने जल लेने के लिए एक छोटे तालाब के निकट आयी। वहां उसने देखा कि बहुत सारी नागकन्याएं भगवान भास्कर की पूजा कर रही है। सुकन्या उन नागकन्याओं से इस व्रत के विधान और महात्मय पूछे, उन नागकन्याओं ने सुकन्या को सारी विधान बता दी। जब पुनः कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तो सुकन्या ने विधिवत् तरीके से भगवान सूर्य नारायण की पूजा अर्चना की और अपने पति च्यवन की नेत्र ज्योति पुनः प्राप्त कर ली। इसके बाद इस व्रत के महात्मय को महर्षि धौम्य के द्वारा द्रौपदी ने सुना और इस व्रत को की। इसी व्रत के प्रभाव से द्रौपदी अपना खोया सारा सुख प्राप्त कर ली। कहा जाता हैं कि आज भी जो इस व्रत को विधि पूर्वक करते हैं, उन्हें मनोवांछित फल स्वतः प्राप्त हो जाता है।
ऊं नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने।।

अर्थात् समस्त चराचर के एकमात्र नेत्रस्वरुप, जगत के उत्पति, पालन, नाश के कारणभूत, सत्व, रज, तमरुप, ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) त्रिगुणात्मस्वरुपवाले सूर्य नारायण को नमस्कार है।
व्रत कैसे करें -------
गर भगवान ने आपको सबकुछ दिया हैं तो कृपया कंजूसी न करें और गर कुछ नहीं दिया तो फिर आपसे उन्हें कुछ नहीं चाहिए, केवल अंजूली भर जल लेकर अर्घ्य दे दें तो आपको सारी मनोवांछित वस्तूएं प्राप्त हो जायेगी। फिर भी चार दिनों के इस व्रत में कुछ लोकाचार हैं. प्रथम दिन यानी कार्तिक शुक्ल रवि चतुर्थी तिथि को आप अपने शरीर को शुद्ध करने का प्रथम प्रयास करें। लहसुनप्याज रहित, सामान्य मौसमी सब्जी बनाये, कद्दु और चने दाल की मिश्रित दाल बनाये, अरवा चावल की भात बना लें और पूर्वाह्न के आसपास, भगवान भास्कर को ये सारी वस्तुएं भोग लगाकर भोजन करें और अन्य को भी प्रसाद स्वरुप दें। दूसरे दिन पंचमी तिथि को सायं काल में मिट्टी की चुल्हें पर आम की लकड़ी से बनी गुड़ मिश्रित अरवाचावल और दूध की बनी खीर बनाये और उसे रोटी के साथ भगवान भास्कर को भोग लगाकर ग्रहण करें और दूसरे को भी प्रसाद स्वरुप बांटे। तीसरे दिन यानी षष्ठी तिथि को किसी तालाब, नदी अथवा कूएं पर अपने सपरिवार सहित अस्ताचलगामी भगवान भास्कर को सूप में विभिन्न मौसमी फलों नारियल, गुड़ और आटे की बनी ठेकूआ, नैवेद्य स्वरुप अर्घ्य प्रदान करें और फिर यहीं प्रक्रिया चौथे दिन यानी सप्तमी तिथि को उद्याचलगामी भगवान भास्कर को अर्घ्य देते समय अपनायें और इसी के साथ आपकी पूजा – तपस्या संपन्न हो जाती है।
हालांकि ये बिहार में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है। खासकर पटना के गंगा किनारे इस व्रत करने का एक अपना अलग ही आनन्द हैं। छठ व्रत के गीतों में गंगा बार बार आयी है। इस व्रत को डाला छठ या बूढी छठ कहते है। वो इसलिये कि इस व्रत को ज्यादातर पूर्व में बुढ़ी पुरनिया ही किया करती थी, मान्यता ये थी कि वो अपने सारी दायित्वों की पूर्ति कर लेने के बाद, भगवान भास्कर से अपना इहलोक और परलोक सुधारने और अपने परिवार के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए नियम धर्म से व्रत रखती थी, पर वर्तमान में ऐसा दौर चला हैं कि अब ये ठेक ही पूरी तरह से मिट गया हैं। हर उम्र के लोग, इस व्रत को कर रहे हैं। ऐसे भी व्रत करनी चाहिए, क्योंकि व्रत करने से आप अंदर से शुद्ध होते हैं, आपके विचार पुष्ट होते हैं, और इसके बाद जो आप काम करते हैं, उससे आपका परिवार, समाज और राष्ट्र सभी उपकृत होते हैं।
जय छठी मईया................................................।

Wednesday, November 10, 2010

तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय, न तुम हारे, न हम हारे....!

संदर्भ अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा 2010...

अमरीकी राष्ट्रपति की जब कभी भारत यात्रा हुई है, तो ये यात्रा शुरु से लेकर आखिरी तक नयी नयी विवादों में घिरी होती है। जो लोग चाहते हैं कि अमरीका से हमारे संबंध मजबूत हो, उन्हें अमरीकी राष्ट्रपति का प्रत्येक संवाद मन को जीत लेनेवाला लगता हैं, जबकि इसके घुर विरोधी को हर बातों में कुछ न कुछ घालमेल दिखाई देते हैं, खासकर चीन और रुस के कटटर समर्थक भारतीय वामपंथियों को अमरीका और अमरीकन राष्ट्रपति एकदम नहीं सुहाते। आखिर क्यों, इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते, सभी लोग जानते है।
आज की स्थिति और परिस्थिति में भारत की नयी पीढ़ी अमरीका से बेहतर संबंध बनाने में विश्वास रखता है, क्योंकि वो जानता हैं कि बिना बेहतर संबंध के न तो भारत को वो स्थान मिल सकता हैं, जिसकी उसे जरुरत है और न ही आगे बढ़ने का रास्ता। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा छठे राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने भारत की यात्रा में दिलचस्पी दिखायी और अपने हाव भाव और विचारों से भारतीयों के दिल जीतने में कामयाब रहे। खासकर मुबंई में दीवाली फेस्टिवल मनाने के क्रम में भारतीय बच्चों के साथ नृत्य करने का मामला हो अथवा दिल्ली के हुमायूं के मकबरे पर नन्हे – मुन्ने बच्चों के साथ मिलने का तरीका। सभी में वे बीस साबित हुए। रही बात मुंबई में भारतीय उद्योगपतियों से बातचीत और दिल्ली में संसद में उनके दिये गये भाषण बताने के लिए काफी थे कि उनकी आज की सोच क्या हैं। इसमे कोई दो मत नहीं कि जो आज पूरे विश्व की स्थिति है, उसने अमरीका के सोच में काफी बदलाव लाया है और भारत को ऐसे समय में नजरंदाज करना, अमरीका को मुश्किल सा लग रहा हैं। याद करिये जब पूर्व में हमारे देश के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति का अमरीका दौरा होता था तो क्या होता था, अमरीकन राजनीतिज्ञ उन्हें कितना भाव देते थे, यहीं नहीं वहां के समाचार पत्रों की क्या भूमिका होती थी और आज के वहां के राजनीतिज्ञों और समाचार पत्रों की क्या भूमिका है। आज तो वहां के अखबार भारत-अमरीका के इस दौरे और उसके नतीजों और सम्पादकीय से पटे हैं। ये है – बदलाव। और ये बदलाव। भारत के राजनीतिज्ञों के क्रियाकलापों से नही हुए, बल्कि उन सैकड़ों, हजारों, लाखों गुमनाम भारतीयों के उनकी मेहनत और उनसे निकले परिणामों का नतीजा हैं कि आज भारत ऐसे मोड़ पर खड़ा हैं कि अमरीकन राष्ट्रपति बराक ओबामा को कहना पड़ गया कि भारत एक विकसित राष्ट्र हैं, भारत को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए और जब कभी सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या बढाने को हुई तो अमरीका भारत के इस पक्ष का समर्थन करेगा। आज अमरीकन राष्ट्रपति भारतीय उद्योगपतियों से सहयोग मांग रहे हैं, वे भारत के साथ व्यापारिक समझौते करना चाह रहे हैं, क्यों चाह रहे हैं, इसका भी खुलासा करीब – करीब देश व विदेश के समाचार पत्रों ने कर दी है।
एक बहुत ही मशहूर पंक्ति में यहां उद्धृत करना चाहता हूं.......
किसी ने ठीक ही कहा हैं...

खुद ही कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।
क्या पहले के भारतीय प्रधानमंत्री की ये हैसियत थी कि किसी अमरीकन राष्ट्रपति के साथ संवाददाता सम्मेलन में भारतीय पक्ष को इतनी मजबूती से रख सके, जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस बार कह कर जता दिया कि भारत अमरीका की नौकरी चूरा नहीं रहा और हमारी भागीदारी, समान मूल्यों और हितों विश्व के प्रति समान दृष्टिकोण और हमारी जनता की गहरी मैत्री पर आधारित है।
आखिर क्या वजह हुई कि अमरीकन राष्ट्रपति आज जय हिंद तक बोलने पर मजबूर हैं, पाकिस्तान में आतंकी ठिकाने उन्हें मंजूर नहीं और 26 नवम्बर के हमलावरों को पाकिस्तान सजा दे, ये बोलने से नहीं चूके। इसका सीधा सा अर्थ हैं कि अमरीका फिलहाल आर्थिक मंदी से उबर नहीं पाया हैं और वह धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकता जा रहा हैं। वहां बेरोजगारी बढ़ी हैं, और इसका परिणाम खुद अमरीकन राष्ट्रपति झेल रहे हैं, जबकि इसके विपरीत भारत में वैसी स्थिति नहीं हैं, जैसी अमरीका की हैं, और भारत ने जिस प्रकार आर्थिक मंदी को झेला और उबरा, ऐसी कूबत शायद किसी देश में नहीं और इसी का फायदा, अमरीका उठाना चाहता है। सचमुच आज हमें खुशी हैं कि महाशक्ति खुद को माननेवाला अमरीका और उसके राष्ट्रपति बराक ओबामा, भारत की ताकत का लोहा माना हैं और कहा कि भारत एक बड़ी ताकत बन चुका हैं, पर हमें इससे ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं क्योंकि इनके ये बोल, कितने सत्य हैं, ये आनेवाला समय बतायेगा, पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी एक बहुत बड़ी आबादी भूख और गरीबी से लड़ रही हैं। जिनके पास खाने पीने पहनने ओढ़ने और रहने को तक को नहीं हैं, हमे उनके लिए कुछ करना हैं, ताकि हम सचमुच भारत को विकसित राष्ट्र बना सकें। भारत विकसित राष्ट्र, झूठ और भ्रष्टाचार में लिप्त राजनीतिज्ञों से नहीं बनेगा, बल्कि उन करोड़ों युवाओं से होगा, जिसके बारे में आज कहा जा रहा हैं कि भारत में युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज हैं, गर ये युवा सही मायनों में अपनी शक्ति को पहचान लेंगे तो समझ लीजिए, आनेवाला समय सही मायनों में हमारा हैं, 21वीं सदी भारत का है।

Tuesday, November 9, 2010

दस वर्ष झारखंड निर्माण के...

झारखंड बने दस वर्ष हो गये, पर ये प्रांत जितना भ्रष्टाचार के लिए जाना गया, उतना किसी भी चीज के लिए नहीं। भ्रष्टाचार और झारखंड एक दूसरे के गर पर्याय हैं तो ये कहना अतिश्योक्ति भी नहीं होगी। झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई की बात हो या झारखंड के विकास की बात, सभी स्तर पर यहां के राजनीतिज्ञों ने अपने आचरण में गिरावट ही दिखायी, आचरण में शुद्धता तो कहीं दिखी ही नहीं। जिसका खामियाजा आज भी झारखंड भुगत रहा है। गर हम झारखंड निर्माण से पूर्व की बात करें तो पता चलता हैं कि झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई लड़नेवाले ज्यादातर नेता पदलोलुपता में आकर अपने जीवन भर की पूंजी व आंदोलन को कांग्रेस पार्टी के हाथों गिरवी रखा, या अपने पार्टी का विलय ही करा दिया, नतीजा न तो खुद रहे और न ही झारखंड आंदोलन की साख ही बची। ज्यादातर झारखंडी नेता व कार्यकर्ता एक नारा लगाते हैं कि कैसे लिया झारखंड, लड़ के लिए झारखंड। पर सच्चाई क्या हैं, जो लोग झारखंड के निर्माण के साक्षी है, जानते हैं। सच्चाई यहीं हैं कि -- भाजपा बिहार के कुछ पार्टस को अलग कर वनांचल प्रांत बनाने की मांग पर अडिग थी, ( जबकि झामुमो जैसी अनेक झारखंडी पार्टियां बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के कुछ पार्टस को भी इसमें मिलाकर झारखंड बनाने की मांग करती थी, जो संभव ही नहीं था) सन् 2000 में बिहार में राजद को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जो कि झारखंड के निर्माण का कड़ा विरोध कर रही थी। लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के आरोप में इतने घिरे थे, कि किसी भी हालत में वे बिहार का शासन छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने भी हामी भर दी और संयोग ऐसा हुआ कि झारखंड बन गया। इसे कोई जबर्दस्ती झूठलाने की कोशिश करें तो अलग बात हैं, और जब झारखंड बना तो क्या हुआ, स्थिति ऐसी हैं कि कोई भी झारखंडी खुद को झारखंडी कहलाने में गर्व महसूस नहीं करता। झारखंड एकमात्र प्रांत है – जहां निर्माण से लेकर आज तक, जितने भी मुख्यमंत्री हुए, सब के सब आदिवासी, जिनके बारे में कहा जाता हैं कि आदिवासी सरल, सहज और दिल के साफ होते हैं, पर इन मुख्यमंत्रियों के क्रियाकलापों पर नजर डाले, तो ये आदिवासियों को ही कटघरे में खड़ा कर देंगे, और लोगों की आदिवासियों के बारे में जो धारणाएं हैं, वो बदलती नजर आयेगी। सर्वप्रथम बिहार से अलग होने के बाद बने नवोदित झारखंड के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की बात करें। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस शख्स से राज्य को बेहतर दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, आधारभूत संरचनाओं को ठीक करने में समय लगाया, उर्जा, सड़क और शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर, राज्य ही नहीं पूरे देश में नाम कमाया और देश में सबसे अच्छा काम करनेवाले तीसरे मुख्यमंत्री के रुप में लोकप्रिय हो गये। राज्य में जितनी योजनाएं हैं, उन्हीं के समय की हैं, जिसे लेकर, लोग अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, चाहे वो बालिकाओं को स्कूल से जोड़ने के लिए साईकिल देने की बात हो, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना हो, या आदिवासियों के बेहतर विकास की बात हो, इन्हीं के समय में पूरे राज्य में सीबीएसई पैटर्न पर माध्यमिक शिक्षा को लागू किया गया, पर जदयू के उस समय के भ्रष्ट मंत्रियों ने इनकी एक न चलने दी और उर्जा तथा खनन मामलों में इन नेताओं ने बाबूलाल को ऐसी पटखनी दी, कि बेचारे कहीं के नहीं रहे, जिस अर्जुन को वे भरत मानकर अपना उतराधिकारी बना रहे थे, वो अर्जुन ही बाद में ऐसी पट्टी पढ़ाई की बेचारे भाजपा से अलग होकर आज खुद की नयीं पार्टी बना कर भाजपा के जड़े में मट्ठा डालकर भाजपा को समूल नष्ट करने पर तूले हैं, पर इसमें वे कितना सफल होंगे, समय बतायेगा, पर सच्चाई ये ही हैं कि यहीं से भ्रष्टाचार के वटवृक्ष का बीज झारखंड की राजधानी रांची में बोया गया, जो इस दस साल में एक विशाल वृक्ष बनकर सभी भ्रष्टाचारियों को आश्रय दे रहा हैं।
हम कहां की बात करें, कौन ऐसा क्षेत्र हैं, जहां भ्रष्टाचार नहीं हैं। सीबीआई की तो ज्यादातर कार्य झारखंड में ही हैं, लगता हैं कि सीबीआई का निर्माण हमारे पूर्व के राजनीतिज्ञों ने झारखंड को देखते हुए ही किया था। जरा देखिये लालू के चारा घोटाला की बात हो या मधु कोड़ा से जुड़ा मामला सभी का केन्द्र बिन्दु झारखंड ही हैं। पर इनकी बात करने के पूर्व हम झारखंड के विधानसभा की बात कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा। यहां अब तक जितने भी विधानसभाध्यक्ष हुए, अपने ढंग से नियुक्तियां की, और यहां पर नियुक्ति घोटाला हो गया, कौन सा मापदंड रखा गया, कैसे बहाली हुई, इस पर गर बात करें तो रामचरितमानस से भी बड़ा महाकाव्य तैयार हो जायेगा। आश्चर्य इस बात की हैं कि इसे लेकर किसी भी विधानसभाध्यक्ष ने अपनी गलती नहीं मानी हैं और न ही शर्मिदंगी दिखायी।
जरा इस विवरणिका को देखिये तो पता लग जायेगा कि अपने यहां विधायकों और दूसरे जगहों के विधायकों की संख्या कितनी और इसे देखते हुए स्टाफों की संख्या कितनी हैं और उस पर राशि कितनी खर्च हुई हैं -----------------------
राज्य-------विधायकों की संख्या----स्टाफ------वार्षिक खर्च करोड़ रुपये में
छत्तीसगढ़ -------91------------255 -----5.60
उत्तराखंड -------70 ------------190 -----4.25
बिहार --------243-------------630 -----7.25
झारखंड---------81 ------------960 ----16.81
कमाल इस बात की हैं कि विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता हैं और इस मंदिर में आवश्यकता से अधिक अयोग्य लोगों की बहाली, वो भी अपने चहेतों को नौकरी दिलाकर विधानसभाध्यक्षों ने कर दी, क्या ये शर्मनाक नहीं।
कमाल हैं दस साल बने हो गये, झारखंड के इसी बीच सात सरकारें आयी और चली गयी, दो – दो बार राष्ट्रपति शासन लगा, आठवी सरकार भी कैसे बनी, इसको लेकर तरह तरह की अटकलें लगायी गयी हैं, कहनेवाले तो कह भी चुके हैं कि इस सरकार को बनाने में कारपोरेट जगत के लोगों ने रुचि ली हैं, जिसके एवज में इस सरकार ने उन्हें उपकृत करने की योजना पर काम भी शुरु कर दिया हैं। कमाल इस बात की भी कि राज्य को बने दस साल हुए और इससे ज्यादा बार विकास आयुक्त बदले जा चुके हैं, छह – छह बार पुलिस महानिदेशक और महाधिवक्ता का बदलाव हो चुका हैं, औसतन हर दस बाहर महीने में सचिवों का तबादला हो जाता हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो ये हैं कि यहां स्थानांतरण उद्योग भी चलता हैं, और वसूली भी की जाती है।
भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता हैं कि इस राज्य का अपना विधानसभा भवन नहीं, सचिवालय नहीं, जबकि इन्हीं पर करीब दो सौ करोड़ रुपये अब तक खर्च हो चुके हैं। राष्ट्रीय खेल अब तक नहीं हो पाये है। इन मंत्रियों और अधिकारियों की करतूतों को देखिये अपने चहेतों को किस प्रकार झारखंड लोक सेवा आयोग के माध्यम सें शानदार नौकरियां दिलवा दी, ये अलग बात हैं कि पूरे मामले की जांच हो रही हैं, और कुछ लोग इस मामले में जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। यहीं नहीं शायद देश का ये पहला राज्य हैं जहां पर भ्रष्टाचार मामले में ही एक निर्दलीय व्यक्ति जो मुख्यमंत्री बना, अपने रिकार्ड भ्रष्टाचार के कारण, रांची और दिल्ली की जेलों में रहकर झारखंड की मान को गिरवी रख दिया है। यहीं नहीं इनके शासनकाल में ही मंत्री रहे, कई मंत्रियों पर सीबीआई की पकड़ हैं और ये भी फिलहाल विभिन्न जेलों में बंद रहकर अपनी जिंदगी को नारकीय बना रखा हैं। आश्चर्य इस बात की भी हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में बंद इन मंत्रियों और नेताओं के रिश्तेदारों को उनके दैनिक जीवन में कोई दिक्कत नहीं आ रही, बल्कि वे इसका फायदा भी उठा रहे हैं और विधानसभा तक पहुंच जा रहे हैं, यहीं नहीं जेल में रहकर ये लोकसभा के चुनाव तक जीते हैं, ऐसे में यहां की जनता की सोच पर स्वतः प्रश्न चिह्न लग जाता हैं कि क्या वो भ्रष्टाचार को सदाचार की ताबीज मान चुकी हैं, गर नहीं मानती तो भ्रष्टाचार मामलों में बंद ये नेता और उनके रिश्तेदार चुनाव में तो कम से कम नहीं ही जीतते, पर इनकी जीत बताती हैं कि जनता के सोच में भी बदलाव आया हैं और यहां की जनता फिलहाल भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा नहीं मानती, तभी तो सभी मस्त हैं नहीं तो भ्रष्टाचार पर आज तक अंकुश क्यों नहीं लगा, ये तो और पनपता जा रहा हैं, भस्मासुर की तरह।