( छठ पर विशेष )
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्तया गृहाण अर्घ्यं दिवाकर।।
जब से सृष्टि बनी तभी से मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त हर वस्तूओं को जानने की कोशिश की, और अपने अपने ढंग से परिभाषा गढ़नी शुरु की। जब जब कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी व्रत आता हैं, जिसे सामान्य जन छठ व्रत कहते हैं, अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में छठव्रत से संबंधित मनगढ़ंत बातें छपनी और दिखानी शुरु हो जाती हैं, ऐसी ऐसी बातें, जिनका छठ से कोई लेना देना नहीं होता, और इस कारण से आनेवाली नयी पीढ़ी, इस छठ के आध्यात्मिक पक्ष से विमुख होती जा रही हैं, लेकिन जब इन्हीं से संबंधित उन समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों से ये पूछे कि आखिर उनके पास जो वे लिख रहे हैं या दिखा रहे हैं, उसके क्या शास्त्रीय आधार है, तो वे तुरंत ये कहकर पल्ले झाड़ लेंगे कि इससे संपादक का कोई लेना देना नहीं, पर क्या संपादक को ये अधिकार हैं कि वे अपनी दकियानूसी विचारधाराओं और अविश्वसनीय आलेखों और प्रवचनों से आम लोगों की बुद्धि को प्रभावित कर दें। खैर, जो इन्हें करना था, कर चुके हैं, पर आम जनता को ये जानना अवश्य चाहिए कि आखिर ये छठ व्रत क्या हैं और इसके वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार क्या हैं.....
सर्वप्रथम वैज्ञानिक पक्ष.......
सूर्य क्या है........?
सामान्य सा उत्तर हैं कि सूर्य ग्रह नहीं हैं, यह एक तारा हैं, जो सामान्य तारों की अपेक्षा पृथ्वी के नजदीक हैं और इसी से पृथ्वी प्रकाशित होती हैं और अन्य नौ ग्रह इसके चारों और चक्कर लगाते हैं।
कुछ इस प्रकार भी इसे परिभाषित कर सकते हैं कि सूर्य उच्च तापक्रम वाले अंसख्य पिंडों से बना हैं, इसमें मुख्यतः हाईड्रोजन होती हैं। सूर्य का व्यास पृथ्वी से 109 गुणा बड़ा है, और इसका भार पृथ्वी से 3,30,000 गुणा अधिक है। परंतु सूर्य का घनत्व पृथ्वी की तुलना में केवल एक चौथाई है। वैज्ञानिकों की माने तो करीब 10.5 अरब वर्ष पहले समस्त अंतरिक्ष में फैले गैस के बादल विभिन्न स्थानों पर निकट आये, धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों पर वे पास आते गये। गैस के बादलों की ये गेंदे समय के साथ दबती गयीं। और जैसे जैसे उनका तापमान बढ़ता गया, उनमें से हरेक गेंद एक चमकीला सितारा बन गयी। इस प्रकार अंसख्य तारे बने, जिनमें से हमारा सूर्य भी एक था।
वैज्ञानिक ये भी कहते हैं कि करीब 15 अरब वर्ष पहले, एक उंचे तापमान और घनत्व के बड़े धमाके के कारण यह अंतरिक्ष बना, जहां हम आज है। जैसे-जैसे अंतरिक्ष फैला, वैसे-वैसे तापमान ठंडा होने लगा। विभिन्न प्रकार के पदार्थ और विकिरण उत्पन्न होने लगे। जैसे जैसे यह और बड़ा हुआ, गैस के दो प्रकार के बादल बने – एक में गैस का घनत्व अधिक था, दूसरे में गैस का घनत्व कम था। अंत में अतरिक्ष में तैरते गैसे के ये बादल और पदार्थ कुछ स्थानों पर पास आये और अनेक आकाशगंगाएं बनी। इनमें से एक आकाशगंगा में एक अकेला सितारा बहुत तेजी से चमकने लगा। ये चमकता तारा हमारा सूर्य बना और इसके चारों और मंडराते हुए गैस के बादलों ने ही निकट आकर अन्य ग्रहों और पृथ्वी को बनाया। इस प्रकार माना जाता हैं कि सूर्य आज से कोई 460 करोड़ वर्ष पहले बना हुआ होगा।
वैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि वर्तमान सूर्य हाईड्रोजन गैस के जलने के कारण लगातार गर्मी और प्रकाश दे रहा है। सूर्य के क्रोड में हाईड्रोजन लगातार जलकर हीलियम में बदलती है। जैसे-जैसे हाईड्रोजन की मात्रा कम होती हैं, सूर्य लगातार कमजोर होता है। बाद में सूर्य में ही हीलियम गैसे जलने लगेगी और सूर्य फैलने लगेगा। सूर्य फैलकर इतना बड़ा हो जायेगा कि वह समीप के बुध और शुक्र जैसे ग्रहों को ही निगल सकता हैं। अंत में सूर्य तेजी से सिकुड़ने लगेगा और श्वेत वामन तारा बन जायेगा। फिर सूर्य अपनी जीवन यात्रा खत्म करेगा और अंतरिक्ष की धूल के रुप में शुन्य में विलीन हो जायेगा। और
अब आध्यात्मिक पक्ष......
भगवान सूर्य को धार्मिक शास्त्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है ----------
भास्कर, दिवाकर, प्रभाकर, रवि, भानु, अंशुमाली, मार्तंड, मरीची, आदित्य, सविता, पतंग, दिनकर, हंस आदि।
भगवान सूर्य के अर्चन के लिए विहित पत्र-पुष्प
भविष्य पुराण बताता हैं कि सूर्य भगवान को यदि एक आक का फूल अर्पन किया जाय, तो सोने की दस अशर्फियां चढ़ाने का फल प्राप्त हो जाता है। भगवान सूर्य को बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति, कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया, चंपा, रोलक, कुंद, काली कटसरैया, बर्बर मल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरुपा, कमल, मौलसिरी, अगस्तय और पलाश के फूल तथा दूर्वा अतिप्रिय है। भगवान सूर्य को बेलपत्र, शमी का पत्ता, भँगरैया की पत्ती, तमाल का पत्र, तुलसी और काली तुलसी के पत्ते, कमल के पत्ते भी पसंद है। भगवान सूर्य को गुंजा, धतूरा, कांची, अपराजिता, भटकटैया, तगर और अमड़ा न चढ़ाये, क्योंकि वीरमित्रोदय इन वस्तूओं को सूर्य पर न चढ़ाने को कहा है।
धार्मिक पुस्तकों की माने तो भगवान सूर्य की माता का नाम अदिति और पिता का नाम कश्यप है। इसलिए इन्हें आदित्य और कश्यपनंदन के नाम से भी पुकारा जाता हैं। इनकी पत्नी दक्षकन्या रुपा थी। ये सप्तअश्व से युक्त रथ पर आरुढ़ होते हैं और इनके सारथि अरुण है। इनके एक हाथ में चक्र होता है। भविष्य पुराण की मानें तो दक्षकन्या जिनका नाम रुपा था, उनसे भगवान भास्कर का विवाह हुआ और उससे दो संताने हुई, जिनका नाम था यम और यमुना। किन्तु भगवान भास्कर के तेज को रुपा सहन नहीं कर सकी, और छाया के रुप में अपनी ही एक प्रतिमूर्ति बनाकर वह स्वयं तप करने चली गयी। इसी छाया से शनि और ताप्ती की उत्पत्ति हुई। यमुना और ताप्ती आज भी भूलोक में पृथ्वी पर पवित्र नदियों के रुप में प्रत्यक्ष है।
कहा जाता है कि जड़ व चेतन की आत्मा, प्रत्यक्ष भागवत स्वरुप साकार ब्रह्म रुप हैं – भगवान सूर्यदेव।
वेद कहते हैं -----
ऊं आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। (ऋग्वेद)
ऋग्वेद में तो भगवान भास्कर से संबंधित कई सूक्त आपको मिल जायेंगे। उस ऋग्वेद में जिसे गिनीज बुक ऑफ वलर्ड रिकार्डस नामक पुस्तक मानती हैं कि ये विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक हैं।
यहीं नहीं अथर्ववेद कहता हैं कि ---------------
सूर्यस्तवाधिपतिमृर्त्योरुदायच्छतु रश्मिभिः अर्थात भगवान भास्कर की रश्मियां जीवन प्रदाता, स्वास्थ्य प्रदाता हैं ये अमृततुल्य होती है। ओंकार सूर्य देव की नित्य उपासना व अर्घ्य, पुष्प अर्पण सर्वदा शुभ हैं।
कौन हैं छठि मईया..........?
छठि मईया और कोई नहीं वहीं आदिशक्ति हैं, जिनसे सारी सृष्टि उत्पन्न हुई हैं, वहीं प्रकृति की छठवीं अंश हैं, उन्हें आप षष्टम् कात्यायिनी कहें, अथवा और जो नाम डाल दे। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार देवसेना, जो ब्रह्मा की मानसपुत्री और कार्तिकेय की भार्या है, उन्हें भी षष्ठी देवी के नाम से पुकारते है, क्योंकि कहा गया हैं कि ये ही मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण षष्ठी देवी कहलायी हैं, इन्हीं के प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीनजन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते है। ब्रह्मवैवर्तपुराण की मानें तो रविषष्ठी व्रत के दिन, भगवान भास्कर की रश्मियों में देवी षष्ठी का प्रार्दुभाव हो जाता हैं, और जो लोग इस दौरान भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान कर रहे होते हैं, उन्हें भगवान भास्कर और छठि मईया दोनों की कृपा स्वतः प्राप्त हो जाती है।
सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया ---------------
भविष्योत्तर पुराण कहता हैं कि इस व्रत को सर्वप्रथम नागकन्या की उपदेश सुनकर सुकन्या ने किया था। वो सुकन्या जो महराज शर्याति की पुत्री थी। कहा जाता हैं सतयुग में राजा शर्याति नामक एक राजा हुए। जब राजा शर्याति अपने सपरिवार और राजकीय लोगों को लेकर जंगल में शिकार करने के लिए निकले। तभी उस जंगल में सुकन्या फूल लाने के लिए निकली। सुकन्या वहां पहुंची, जहां महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। महर्षि की तपस्या से ऐसी हालत हो गयी थी कि उनके शरीर में दीमक लग गया था। मुनि के शरीर में दीमक लगा देखकर सुकन्या चिन्तित होकर क्या देखती हैं कि दीमक लगे मिट्टी के टीले के मध्य में दो आंखे, जूगनू की तरह चमक रही हैं। आखिर ये चमकती चीजें क्या हैं, इसे जानने के लिए सुकन्या ने महर्षि के नेत्रों को फोड़ डाला। इससे महर्षि के नेत्रों से खून की धारा निकल पड़ी, महर्षि को असह्य पीड़ा होने लगी और इधर सुकन्या अपने स्थान पर लौट आयी। इधर महर्षि च्यवन के नेत्र, सुकन्या द्वारा फोड़ दिये जाने के कारण राजा शर्याति और उनके परिवार तथा राजकीय अधिकारियों के मलमूत्र बंद हो गये, तीन दिनों तक मल मूत्र बंद हो जाने से सभी व्याकुल हो गये। राजा शर्याति ने इसका कारण अपने पुरोहित से पूछा। पुरोहित ने योग बल के द्वारा राजा शर्याति को सारी कहानी बतायी कि सुकन्या के द्वारा क्या अपराध हुआ है। राजा शर्याति सारा माजरा समझ गये और अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से कर दिया। इधर सुकन्या अपने पति महर्षि च्यवन की खूब सेवा सुश्रुषा करने लगी। एक दिन जब कार्तिक शुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तब सुकन्या ने जल लेने के लिए एक छोटे तालाब के निकट आयी। वहां उसने देखा कि बहुत सारी नागकन्याएं भगवान भास्कर की पूजा कर रही है। सुकन्या उन नागकन्याओं से इस व्रत के विधान और महात्मय पूछे, उन नागकन्याओं ने सुकन्या को सारी विधान बता दी। जब पुनः कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तो सुकन्या ने विधिवत् तरीके से भगवान सूर्य नारायण की पूजा अर्चना की और अपने पति च्यवन की नेत्र ज्योति पुनः प्राप्त कर ली। इसके बाद इस व्रत के महात्मय को महर्षि धौम्य के द्वारा द्रौपदी ने सुना और इस व्रत को की। इसी व्रत के प्रभाव से द्रौपदी अपना खोया सारा सुख प्राप्त कर ली। कहा जाता हैं कि आज भी जो इस व्रत को विधि पूर्वक करते हैं, उन्हें मनोवांछित फल स्वतः प्राप्त हो जाता है।
ऊं नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने।।
अर्थात् समस्त चराचर के एकमात्र नेत्रस्वरुप, जगत के उत्पति, पालन, नाश के कारणभूत, सत्व, रज, तमरुप, ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) त्रिगुणात्मस्वरुपवाले सूर्य नारायण को नमस्कार है।
व्रत कैसे करें -------
गर भगवान ने आपको सबकुछ दिया हैं तो कृपया कंजूसी न करें और गर कुछ नहीं दिया तो फिर आपसे उन्हें कुछ नहीं चाहिए, केवल अंजूली भर जल लेकर अर्घ्य दे दें तो आपको सारी मनोवांछित वस्तूएं प्राप्त हो जायेगी। फिर भी चार दिनों के इस व्रत में कुछ लोकाचार हैं. प्रथम दिन यानी कार्तिक शुक्ल रवि चतुर्थी तिथि को आप अपने शरीर को शुद्ध करने का प्रथम प्रयास करें। लहसुनप्याज रहित, सामान्य मौसमी सब्जी बनाये, कद्दु और चने दाल की मिश्रित दाल बनाये, अरवा चावल की भात बना लें और पूर्वाह्न के आसपास, भगवान भास्कर को ये सारी वस्तुएं भोग लगाकर भोजन करें और अन्य को भी प्रसाद स्वरुप दें। दूसरे दिन पंचमी तिथि को सायं काल में मिट्टी की चुल्हें पर आम की लकड़ी से बनी गुड़ मिश्रित अरवाचावल और दूध की बनी खीर बनाये और उसे रोटी के साथ भगवान भास्कर को भोग लगाकर ग्रहण करें और दूसरे को भी प्रसाद स्वरुप बांटे। तीसरे दिन यानी षष्ठी तिथि को किसी तालाब, नदी अथवा कूएं पर अपने सपरिवार सहित अस्ताचलगामी भगवान भास्कर को सूप में विभिन्न मौसमी फलों नारियल, गुड़ और आटे की बनी ठेकूआ, नैवेद्य स्वरुप अर्घ्य प्रदान करें और फिर यहीं प्रक्रिया चौथे दिन यानी सप्तमी तिथि को उद्याचलगामी भगवान भास्कर को अर्घ्य देते समय अपनायें और इसी के साथ आपकी पूजा – तपस्या संपन्न हो जाती है।
हालांकि ये बिहार में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है। खासकर पटना के गंगा किनारे इस व्रत करने का एक अपना अलग ही आनन्द हैं। छठ व्रत के गीतों में गंगा बार बार आयी है। इस व्रत को डाला छठ या बूढी छठ कहते है। वो इसलिये कि इस व्रत को ज्यादातर पूर्व में बुढ़ी पुरनिया ही किया करती थी, मान्यता ये थी कि वो अपने सारी दायित्वों की पूर्ति कर लेने के बाद, भगवान भास्कर से अपना इहलोक और परलोक सुधारने और अपने परिवार के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए नियम धर्म से व्रत रखती थी, पर वर्तमान में ऐसा दौर चला हैं कि अब ये ठेक ही पूरी तरह से मिट गया हैं। हर उम्र के लोग, इस व्रत को कर रहे हैं। ऐसे भी व्रत करनी चाहिए, क्योंकि व्रत करने से आप अंदर से शुद्ध होते हैं, आपके विचार पुष्ट होते हैं, और इसके बाद जो आप काम करते हैं, उससे आपका परिवार, समाज और राष्ट्र सभी उपकृत होते हैं।
जय छठी मईया................................................।