Tuesday, November 9, 2010

दस वर्ष झारखंड निर्माण के...

झारखंड बने दस वर्ष हो गये, पर ये प्रांत जितना भ्रष्टाचार के लिए जाना गया, उतना किसी भी चीज के लिए नहीं। भ्रष्टाचार और झारखंड एक दूसरे के गर पर्याय हैं तो ये कहना अतिश्योक्ति भी नहीं होगी। झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई की बात हो या झारखंड के विकास की बात, सभी स्तर पर यहां के राजनीतिज्ञों ने अपने आचरण में गिरावट ही दिखायी, आचरण में शुद्धता तो कहीं दिखी ही नहीं। जिसका खामियाजा आज भी झारखंड भुगत रहा है। गर हम झारखंड निर्माण से पूर्व की बात करें तो पता चलता हैं कि झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई लड़नेवाले ज्यादातर नेता पदलोलुपता में आकर अपने जीवन भर की पूंजी व आंदोलन को कांग्रेस पार्टी के हाथों गिरवी रखा, या अपने पार्टी का विलय ही करा दिया, नतीजा न तो खुद रहे और न ही झारखंड आंदोलन की साख ही बची। ज्यादातर झारखंडी नेता व कार्यकर्ता एक नारा लगाते हैं कि कैसे लिया झारखंड, लड़ के लिए झारखंड। पर सच्चाई क्या हैं, जो लोग झारखंड के निर्माण के साक्षी है, जानते हैं। सच्चाई यहीं हैं कि -- भाजपा बिहार के कुछ पार्टस को अलग कर वनांचल प्रांत बनाने की मांग पर अडिग थी, ( जबकि झामुमो जैसी अनेक झारखंडी पार्टियां बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के कुछ पार्टस को भी इसमें मिलाकर झारखंड बनाने की मांग करती थी, जो संभव ही नहीं था) सन् 2000 में बिहार में राजद को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जो कि झारखंड के निर्माण का कड़ा विरोध कर रही थी। लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के आरोप में इतने घिरे थे, कि किसी भी हालत में वे बिहार का शासन छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने भी हामी भर दी और संयोग ऐसा हुआ कि झारखंड बन गया। इसे कोई जबर्दस्ती झूठलाने की कोशिश करें तो अलग बात हैं, और जब झारखंड बना तो क्या हुआ, स्थिति ऐसी हैं कि कोई भी झारखंडी खुद को झारखंडी कहलाने में गर्व महसूस नहीं करता। झारखंड एकमात्र प्रांत है – जहां निर्माण से लेकर आज तक, जितने भी मुख्यमंत्री हुए, सब के सब आदिवासी, जिनके बारे में कहा जाता हैं कि आदिवासी सरल, सहज और दिल के साफ होते हैं, पर इन मुख्यमंत्रियों के क्रियाकलापों पर नजर डाले, तो ये आदिवासियों को ही कटघरे में खड़ा कर देंगे, और लोगों की आदिवासियों के बारे में जो धारणाएं हैं, वो बदलती नजर आयेगी। सर्वप्रथम बिहार से अलग होने के बाद बने नवोदित झारखंड के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की बात करें। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस शख्स से राज्य को बेहतर दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, आधारभूत संरचनाओं को ठीक करने में समय लगाया, उर्जा, सड़क और शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर, राज्य ही नहीं पूरे देश में नाम कमाया और देश में सबसे अच्छा काम करनेवाले तीसरे मुख्यमंत्री के रुप में लोकप्रिय हो गये। राज्य में जितनी योजनाएं हैं, उन्हीं के समय की हैं, जिसे लेकर, लोग अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, चाहे वो बालिकाओं को स्कूल से जोड़ने के लिए साईकिल देने की बात हो, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना हो, या आदिवासियों के बेहतर विकास की बात हो, इन्हीं के समय में पूरे राज्य में सीबीएसई पैटर्न पर माध्यमिक शिक्षा को लागू किया गया, पर जदयू के उस समय के भ्रष्ट मंत्रियों ने इनकी एक न चलने दी और उर्जा तथा खनन मामलों में इन नेताओं ने बाबूलाल को ऐसी पटखनी दी, कि बेचारे कहीं के नहीं रहे, जिस अर्जुन को वे भरत मानकर अपना उतराधिकारी बना रहे थे, वो अर्जुन ही बाद में ऐसी पट्टी पढ़ाई की बेचारे भाजपा से अलग होकर आज खुद की नयीं पार्टी बना कर भाजपा के जड़े में मट्ठा डालकर भाजपा को समूल नष्ट करने पर तूले हैं, पर इसमें वे कितना सफल होंगे, समय बतायेगा, पर सच्चाई ये ही हैं कि यहीं से भ्रष्टाचार के वटवृक्ष का बीज झारखंड की राजधानी रांची में बोया गया, जो इस दस साल में एक विशाल वृक्ष बनकर सभी भ्रष्टाचारियों को आश्रय दे रहा हैं।
हम कहां की बात करें, कौन ऐसा क्षेत्र हैं, जहां भ्रष्टाचार नहीं हैं। सीबीआई की तो ज्यादातर कार्य झारखंड में ही हैं, लगता हैं कि सीबीआई का निर्माण हमारे पूर्व के राजनीतिज्ञों ने झारखंड को देखते हुए ही किया था। जरा देखिये लालू के चारा घोटाला की बात हो या मधु कोड़ा से जुड़ा मामला सभी का केन्द्र बिन्दु झारखंड ही हैं। पर इनकी बात करने के पूर्व हम झारखंड के विधानसभा की बात कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा। यहां अब तक जितने भी विधानसभाध्यक्ष हुए, अपने ढंग से नियुक्तियां की, और यहां पर नियुक्ति घोटाला हो गया, कौन सा मापदंड रखा गया, कैसे बहाली हुई, इस पर गर बात करें तो रामचरितमानस से भी बड़ा महाकाव्य तैयार हो जायेगा। आश्चर्य इस बात की हैं कि इसे लेकर किसी भी विधानसभाध्यक्ष ने अपनी गलती नहीं मानी हैं और न ही शर्मिदंगी दिखायी।
जरा इस विवरणिका को देखिये तो पता लग जायेगा कि अपने यहां विधायकों और दूसरे जगहों के विधायकों की संख्या कितनी और इसे देखते हुए स्टाफों की संख्या कितनी हैं और उस पर राशि कितनी खर्च हुई हैं -----------------------
राज्य-------विधायकों की संख्या----स्टाफ------वार्षिक खर्च करोड़ रुपये में
छत्तीसगढ़ -------91------------255 -----5.60
उत्तराखंड -------70 ------------190 -----4.25
बिहार --------243-------------630 -----7.25
झारखंड---------81 ------------960 ----16.81
कमाल इस बात की हैं कि विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता हैं और इस मंदिर में आवश्यकता से अधिक अयोग्य लोगों की बहाली, वो भी अपने चहेतों को नौकरी दिलाकर विधानसभाध्यक्षों ने कर दी, क्या ये शर्मनाक नहीं।
कमाल हैं दस साल बने हो गये, झारखंड के इसी बीच सात सरकारें आयी और चली गयी, दो – दो बार राष्ट्रपति शासन लगा, आठवी सरकार भी कैसे बनी, इसको लेकर तरह तरह की अटकलें लगायी गयी हैं, कहनेवाले तो कह भी चुके हैं कि इस सरकार को बनाने में कारपोरेट जगत के लोगों ने रुचि ली हैं, जिसके एवज में इस सरकार ने उन्हें उपकृत करने की योजना पर काम भी शुरु कर दिया हैं। कमाल इस बात की भी कि राज्य को बने दस साल हुए और इससे ज्यादा बार विकास आयुक्त बदले जा चुके हैं, छह – छह बार पुलिस महानिदेशक और महाधिवक्ता का बदलाव हो चुका हैं, औसतन हर दस बाहर महीने में सचिवों का तबादला हो जाता हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो ये हैं कि यहां स्थानांतरण उद्योग भी चलता हैं, और वसूली भी की जाती है।
भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता हैं कि इस राज्य का अपना विधानसभा भवन नहीं, सचिवालय नहीं, जबकि इन्हीं पर करीब दो सौ करोड़ रुपये अब तक खर्च हो चुके हैं। राष्ट्रीय खेल अब तक नहीं हो पाये है। इन मंत्रियों और अधिकारियों की करतूतों को देखिये अपने चहेतों को किस प्रकार झारखंड लोक सेवा आयोग के माध्यम सें शानदार नौकरियां दिलवा दी, ये अलग बात हैं कि पूरे मामले की जांच हो रही हैं, और कुछ लोग इस मामले में जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। यहीं नहीं शायद देश का ये पहला राज्य हैं जहां पर भ्रष्टाचार मामले में ही एक निर्दलीय व्यक्ति जो मुख्यमंत्री बना, अपने रिकार्ड भ्रष्टाचार के कारण, रांची और दिल्ली की जेलों में रहकर झारखंड की मान को गिरवी रख दिया है। यहीं नहीं इनके शासनकाल में ही मंत्री रहे, कई मंत्रियों पर सीबीआई की पकड़ हैं और ये भी फिलहाल विभिन्न जेलों में बंद रहकर अपनी जिंदगी को नारकीय बना रखा हैं। आश्चर्य इस बात की भी हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में बंद इन मंत्रियों और नेताओं के रिश्तेदारों को उनके दैनिक जीवन में कोई दिक्कत नहीं आ रही, बल्कि वे इसका फायदा भी उठा रहे हैं और विधानसभा तक पहुंच जा रहे हैं, यहीं नहीं जेल में रहकर ये लोकसभा के चुनाव तक जीते हैं, ऐसे में यहां की जनता की सोच पर स्वतः प्रश्न चिह्न लग जाता हैं कि क्या वो भ्रष्टाचार को सदाचार की ताबीज मान चुकी हैं, गर नहीं मानती तो भ्रष्टाचार मामलों में बंद ये नेता और उनके रिश्तेदार चुनाव में तो कम से कम नहीं ही जीतते, पर इनकी जीत बताती हैं कि जनता के सोच में भी बदलाव आया हैं और यहां की जनता फिलहाल भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा नहीं मानती, तभी तो सभी मस्त हैं नहीं तो भ्रष्टाचार पर आज तक अंकुश क्यों नहीं लगा, ये तो और पनपता जा रहा हैं, भस्मासुर की तरह।

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