रहस्यमय जनादेश बिहार का....!
ये जनादेश बता रही है, कि इस जनादेश में नीतीश की जीत कम एवं लालू, रामविलास और कांग्रेस की करारी हार ज्यादा हैं। गर इस जनादेश के माध्यम से भी लालू, रामविलास और कांग्रेस के राहुल नहीं चेते, तो ये सब आनेवाले समय में कम से कम बिहार में तो समाप्त ही हो जायेंगे। और बिहार से समाप्त होने का मतलब आनेवाले समय में देश की संपूर्ण राजनीति से भी समाप्त हो जाना हैं, ये बातें इन्हें नहीं भूलना चाहिए।
सबसे पहले लालू की बात ----
लालू जी ने जब 1990 में बिहार की पहली बार सत्ता संभाली तो ये सत्ता मिलते ही ऐसे बौराये कि पूछिये मत। अजब गजब के निर्णय, हर किसी को गाली और अपने आगे किसी को नहीं लगाना, मसखरी करना, खुद के लिए लालू चालीसा लिखवाना, अपनी गुणगान कराना इनके रोज का शौक बन गया। मैं, उस लालू की बात कर रहा हूं, जिस लालू के बारे में उस वक्त बिहार की जनता एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती थी, और गर किसी ने भूल से भी लालू के बारे में बोला तो उसके बुखार छुड़ा देती थी। यानी इतना शक्तिशाली बिहार का नायक लालू, आज श्रीहीन हैं, आज का लालू सत्ता तो दूर एक एक सीट के लिए तरस रहा है और जनता उसके बारे में कुछ बात करने से भी परहेज करती हैं। शायद उस वक्त सत्ता के मद में लालू प्रसाद श्रीरामचरितमानस की चौपाई वो भूल गये थे कि
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहु धन खल इतराई।।
फिर भी लालू अब सुधरेंगे, कल सुधरेंगे, ऐसा मानते हुए यहां की जनता ने एक नहीं तीन – तीन बार सत्ता सौंपा, पर बिहार की जनता को मिला क्या। इस व्यक्ति ने सत्ता प्राप्त कर ऐसा चक्कर चलाया कि इसी चक्कर में, इनका पूरा परिवार और ससुराल सत्ता का सुख भोगा, पन्द्रह वर्षों तक ये बिहार का भाग्य विधाता, अपने परिवार का भाग्य विधाता बनकर, सत्ता का परमसुख लेता रहा और बिहार की जनता गरीबी के बोझ तले, इधर से उधर भटकती रही, इसी दरम्यान देश के कुछ प्रांतों के लोग बिहारियों को हीन नजरों से देखकर उस पर लात घूंसों का बौछार करने से नहीं चूके। कमाल हैं बिहारी दूसरे प्रांतों में लात जूते खा रहे थे और इधर इनका ज्यादा समय पटना के गांधी मैदान में जातीयता रैली करने, और उसकी अध्यक्षता करने में जाता, यहीं नहीं गरीब रैला, लाठी पिलावन रैला, तेल पिलावन रैला, यहीं करके खुद को आनन्दित करने में यह व्यक्ति मजा लेता रहा और लोग अपने आप को कोसते रहते। यहीं नहीं इस व्यक्ति को विदेश जाने का भी मौका मिला तब विदेश में भी उसने अपने हाव भाव से बिहार के लोगों की वो तस्वीर पेश की, जिसकी जितनी निंदा की जाय कम हैं। कमाल हैं बिहार की राजनीति में आज तक कोई ऐसा व्यक्ति अथवा राजनीतिज्ञ नहीं हुआ, जिसने सत्ता के मद में आकर, अपने परिवार और ससुरालवालों की इतनी आवभगत की हो या मसखरी करते हुए खुद सत्ता में नहीं है, तो अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया हो। क्या इन्हें बिहार की जनता ने इसीलिए सत्ता सौंपी थी।
बिहार को किसी भी कीमत पर नहीं बांटने की बात करनेवाले इस व्यक्ति को जैसे ही बिहार में कम सीटें मिली, इसने बिहार को बांटने का सहर्ष निर्णय ले लिया। कभी इसने कहा कि ये शाकाहारी हो गये, और कभी कहा कि भगवान उनके सपने में आये और कहा कि मांसाहारी हो जा, और वे मांसाहारी हो गये।
इस व्यक्ति के शासनकाल में महिलाएं, रात तो दूर, सायंकाल में घर से निकलना पसंद नहीं करती थी। अपहरण उद्योग तो इनके शासनकाल में ऐसा फैला कि पूछिये मत और भ्रष्टाचार का तो कहना ही नहीं। इस भ्रष्टाचार में तो खुद ऐसे पारंगत हैं कि इन्हें इसकी पाठशाला खोल देनी चाहिए ताकि लोग भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण लेकर, देश का सत्यानाश कर सके। ये वो व्यक्ति हैं जो कहता हैं कि वो संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट है गर ऐसा व्यक्ति संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट हैं तो मुझे उस संपूर्ण क्रांति आंदोलन पर ही शक हो जाता है। पर लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन पर शक मैं सपने में भी नहीं कर सकता, क्योंकि इसी आंदोलन के प्रोडक्ट कई ऐसे लोग मिले हैं, जो सचमुच में संपूर्ण क्रांति के भाव को जन जन तक पहुंचा रहे हैं। याद करिये, लालू प्रसाद को, कभी ये खुद को किंग मेकर कहा करते थे, पर एक मामूली रेल मंत्रालय लेने के लिए ऐसा जिच किये कि सोनिया ने मनमोहन सिंह से कहा कि लालू को रेल वे दे दें ताकि ये रेल से खेल सकें, जैसा कि एक छोटा सा बच्चा अपनी मां से रेलरुपी खिलौने लेने की जिद कर बैठता हैं। क्या एक किंग मेकर, खुद के लिए ऐसा जिच कर सकता हैं और जो ऐसा जिच करता हैं वो कभी किंग मेकर हो सकता हैं। किंग मेकर क्या होता हैं, लालू को कम से कम सोनिया गांधी से सीखना चाहिए, पर इन्हें मसखरी करने से फुर्सत हो तब न, कुछ सीखेंगे। हर बार ये कहना कि उन्होंने गरीबों, मजलूमों को आवाज दी, जैसे लगता है कि गर ये न होते तो कभी गरीबों और मजलूमों को आवाज ही नहीं मिलती। जरा लालू जी जाकर उन गांवों में देखे कि उनके नाम पर, उनकी जाति के लोगों ने किस प्रकार से आंतक मचा कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया, कैसे अल्पसंख्यकों की कब्रिस्तान की जमीन तक इनके लोगों ने कब्जा कर लिया है। आज ही एक चैनल ने दिखाया कि एक पटना के रिक्शेवाले ने कैसे अपनी दुख भरी कहानी सुना दी कि लालू के शासनकाल में जब वो रिक्शावाला सुबह से शाम तक रिक्शे खींचता, पैसे कमाता तो उसके पैसे को अपराधी कैसे, घर जाने के क्रम में लूट लिया करते, पर नीतीश के शासन में अब उसके साथ ऐसा नहीं होता। क्या रिक्शावाला का ये बयां, लालू के दिमाग में नहीं घूसता। कि वो क्या कहना चाहता है।
आज जब एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिला है, तो इस बहुमत को भी नहीं पचाना और इस पर ये टिप्पणी करना कि इसमें रहस्य हैं, ये लालू प्रसाद जैसे लोग ही बयान दे सकते हैं, जबकि दूसरे नेता तो ऐसे मौके पर अपने प्रतिद्वंदियों के घर जाकर, उसे अपनी शुभकामना देते है पर लालू प्रसाद से ऐसी परिकल्पना मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं।
जरा रामविलास पासवान को देखिये कल तक मुख्यमंत्री मुस्लिम हो, इसकी बात करनेवाला ये शख्स ऐन मौके पर ये बयान ही भूल गया और चल पड़ा अपने परिवार को मजबूत करने के लिए। कल तक कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगानेवाले ये दोनो शख्स खुद ही परिवार के आगे कुछ सोचना भी नहीं चाहता, क्या ऐसे लोगों को बिहार की जनता से वोट मांगने का हक भी हैं, और जब जनता ने अपना फैसला सुना दिया तो उस फैसले पर रहस्य पैदा करनेवाले ये कौन होते हैं। क्या ऐसा कहकर वे जनता का अपमान नहीं कर रहे।
रही बात राहुल की तो उन्हें ये जान लेना चाहिए कि ये उत्तर प्रदेश अथवा महाराष्ट्र नहीं हैं कि उनका जादू चल जायेगा, ये खांटी कर्मयोगियों की भूमि हैं, बिहार हैं, यहां एक्टिंग नहीं चलती, यहां के लोगों को जमीन से जूड़ा हुआ नेता चाहिए, इसलिए पहले वे बिहार के बारे में जानें, तब बिहार में आकर बात करें। कल तक विदेश में अपना सारा समय गंवानेवाले राहुल बिहार को क्या जानेंगे। ऐसे भी कहावत हैं, बांझ का जाने प्रसव का पीड़ा। बिहार और बिहार के लोगों की पीड़ा राहुल क्या जानेंगे। कम समय में जिस प्रकार से उन्होंने बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही और जो करतब दिखायें, वो तो बिहारवासियों ने जनादेश के माध्यम से उन्हें बता दिया। शायद राहुल समझ लिये थे कि बिहार के लोग लालू जैसे होते हैं, और जैसे लालू को उन्होंने अपने कब्जें में कर लिय़ा, उसी प्रकार बिहार के लोगों के मतों पर भी कब्जा कर लेंगे, तभी तो उन्होंने साधु यादव, पप्पू यादव की पत्नी और आनन्द मोहन की पत्नी को कांग्रेस से टिकट देकर, अपनी बुद्धिमता का परिचय दे दिया और जब जनता की बारी आयी तो जनता ने इनकी सारी बुद्धिमता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया, ये कहकर कि उन्हें न तो लालू चाहिए और न ही लालू के पदचिन्हों पर चलनेवाले पूर्व के नेता अथवा उनकी पत्नियों से उपकृत होनेवाली पार्टी।
जनता ने पहली बार, ऐसा जनादेश दिया हैं कि लोगों को बिहारी होने पर गर्व महसूस हो रहा हैं। सारे के सारे जातीय समीकरण ही ध्वस्त हो गये। नेताओं की पत्नियां और उनके परिवार के अन्य लोग हार का मुंह देखे हैं। चारों और एक ही बात की चर्चा का, हमें विकास चाहिए, बिहार का स्वाभिमान चाहिए और जो बिहार का स्वाभिमान लौटायेगा, हम उसके साथ होंगे। हम ऐसा नहीं मानते कि नीतीश ने पूरे बिहार में क्रांति ला दी हैं, पर इतना तो जरुर हैं कि नीतीश के शासनकाल में कानून व्यवस्था ठीक हुई हैं, महिलाओं को उनका अधिकार मिला हैं, लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं हुआ हैं, चाहे वो कोई हो, माध्यमिक शिक्षा से जूड़ी बालिकाओं को साईकिल थमा दी गयी कि वे इससे जहां जाये, जायें, लेकिन पढ़े। सड़कों और आधारभूत संरचनाओं को ठीक किया। अपराधी चाहे वे किसी भी पार्टी के हो, उन्हें जेल का रास्ता दिखाया। लोगों में विश्वास जगाया कि हां राज्य में कोई शासन हैं, पर पहले के पन्द्रह सालों में कहीं कुछ दिखा ही नहीं। लालू के पन्द्रह सालों में तो अखबारों और मीडिया में लालू और लालू से संबंधित ही चीजें दिखाई पड़ती थी, चाहे वो लालू के जानवर ही क्यूं न हो, पर आज वैसी बातें नहीं दिखाई देती। आज बिहार और बिहार का युवा, कहता हैं कि वो मसखरे के राज्य का नहीं हैं, बल्कि सपने देखनेवाले राज्य का युवा हैं, जो अन्य राज्यों की तरह विकास के पथ पर चल पड़ा हैं। लेकिन नीतीश के लिए भी कुछ बातें, उन्हें भी जवाब देना होगा, ऐसा नहीं कि उनकी गलतियों पर जनता का ध्यान नहीं हैं, उन्होंने किस प्रकार इस चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट किया और अपनी गुणगान करायीं, ये भी किसी से छुपा नहीं हैं, उदाहरण अनेक हैं, पर इतना तो तय हैं कि नीतीश के गुनाह, फिलहाल लालू, रामविलास और राहुल के गुनाहों से बहुत ही कम हैं। शायद यहीं कारण हैं कि गुनाहगारों में जो कम गुनाहगार था, जनता ने उसे अपना बहुमत दे दिया कि वो पांच साल तक, एक बेहतर बिहार बनाने की दिशा में काम करें, रही बात भाजपा की, तो वो नीतीश के पीछे पीछे चलते रहे, कुछ न कुछ, उसको इसका लाभ मिलता ही रहेगा। क्योंकि भाजपा, कांग्रेस के पदचिन्हों पर चल रही हैं, गर ये सुधर गयी तो ठीक है, नहीं तो इसका भी कांग्रेस जैसा हाल होना तय है।
ये जनादेश बता रही है, कि इस जनादेश में नीतीश की जीत कम एवं लालू, रामविलास और कांग्रेस की करारी हार ज्यादा हैं। गर इस जनादेश के माध्यम से भी लालू, रामविलास और कांग्रेस के राहुल नहीं चेते, तो ये सब आनेवाले समय में कम से कम बिहार में तो समाप्त ही हो जायेंगे। और बिहार से समाप्त होने का मतलब आनेवाले समय में देश की संपूर्ण राजनीति से भी समाप्त हो जाना हैं, ये बातें इन्हें नहीं भूलना चाहिए।
सबसे पहले लालू की बात ----
लालू जी ने जब 1990 में बिहार की पहली बार सत्ता संभाली तो ये सत्ता मिलते ही ऐसे बौराये कि पूछिये मत। अजब गजब के निर्णय, हर किसी को गाली और अपने आगे किसी को नहीं लगाना, मसखरी करना, खुद के लिए लालू चालीसा लिखवाना, अपनी गुणगान कराना इनके रोज का शौक बन गया। मैं, उस लालू की बात कर रहा हूं, जिस लालू के बारे में उस वक्त बिहार की जनता एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती थी, और गर किसी ने भूल से भी लालू के बारे में बोला तो उसके बुखार छुड़ा देती थी। यानी इतना शक्तिशाली बिहार का नायक लालू, आज श्रीहीन हैं, आज का लालू सत्ता तो दूर एक एक सीट के लिए तरस रहा है और जनता उसके बारे में कुछ बात करने से भी परहेज करती हैं। शायद उस वक्त सत्ता के मद में लालू प्रसाद श्रीरामचरितमानस की चौपाई वो भूल गये थे कि
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहु धन खल इतराई।।
फिर भी लालू अब सुधरेंगे, कल सुधरेंगे, ऐसा मानते हुए यहां की जनता ने एक नहीं तीन – तीन बार सत्ता सौंपा, पर बिहार की जनता को मिला क्या। इस व्यक्ति ने सत्ता प्राप्त कर ऐसा चक्कर चलाया कि इसी चक्कर में, इनका पूरा परिवार और ससुराल सत्ता का सुख भोगा, पन्द्रह वर्षों तक ये बिहार का भाग्य विधाता, अपने परिवार का भाग्य विधाता बनकर, सत्ता का परमसुख लेता रहा और बिहार की जनता गरीबी के बोझ तले, इधर से उधर भटकती रही, इसी दरम्यान देश के कुछ प्रांतों के लोग बिहारियों को हीन नजरों से देखकर उस पर लात घूंसों का बौछार करने से नहीं चूके। कमाल हैं बिहारी दूसरे प्रांतों में लात जूते खा रहे थे और इधर इनका ज्यादा समय पटना के गांधी मैदान में जातीयता रैली करने, और उसकी अध्यक्षता करने में जाता, यहीं नहीं गरीब रैला, लाठी पिलावन रैला, तेल पिलावन रैला, यहीं करके खुद को आनन्दित करने में यह व्यक्ति मजा लेता रहा और लोग अपने आप को कोसते रहते। यहीं नहीं इस व्यक्ति को विदेश जाने का भी मौका मिला तब विदेश में भी उसने अपने हाव भाव से बिहार के लोगों की वो तस्वीर पेश की, जिसकी जितनी निंदा की जाय कम हैं। कमाल हैं बिहार की राजनीति में आज तक कोई ऐसा व्यक्ति अथवा राजनीतिज्ञ नहीं हुआ, जिसने सत्ता के मद में आकर, अपने परिवार और ससुरालवालों की इतनी आवभगत की हो या मसखरी करते हुए खुद सत्ता में नहीं है, तो अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया हो। क्या इन्हें बिहार की जनता ने इसीलिए सत्ता सौंपी थी।
बिहार को किसी भी कीमत पर नहीं बांटने की बात करनेवाले इस व्यक्ति को जैसे ही बिहार में कम सीटें मिली, इसने बिहार को बांटने का सहर्ष निर्णय ले लिया। कभी इसने कहा कि ये शाकाहारी हो गये, और कभी कहा कि भगवान उनके सपने में आये और कहा कि मांसाहारी हो जा, और वे मांसाहारी हो गये।
इस व्यक्ति के शासनकाल में महिलाएं, रात तो दूर, सायंकाल में घर से निकलना पसंद नहीं करती थी। अपहरण उद्योग तो इनके शासनकाल में ऐसा फैला कि पूछिये मत और भ्रष्टाचार का तो कहना ही नहीं। इस भ्रष्टाचार में तो खुद ऐसे पारंगत हैं कि इन्हें इसकी पाठशाला खोल देनी चाहिए ताकि लोग भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण लेकर, देश का सत्यानाश कर सके। ये वो व्यक्ति हैं जो कहता हैं कि वो संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट है गर ऐसा व्यक्ति संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट हैं तो मुझे उस संपूर्ण क्रांति आंदोलन पर ही शक हो जाता है। पर लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन पर शक मैं सपने में भी नहीं कर सकता, क्योंकि इसी आंदोलन के प्रोडक्ट कई ऐसे लोग मिले हैं, जो सचमुच में संपूर्ण क्रांति के भाव को जन जन तक पहुंचा रहे हैं। याद करिये, लालू प्रसाद को, कभी ये खुद को किंग मेकर कहा करते थे, पर एक मामूली रेल मंत्रालय लेने के लिए ऐसा जिच किये कि सोनिया ने मनमोहन सिंह से कहा कि लालू को रेल वे दे दें ताकि ये रेल से खेल सकें, जैसा कि एक छोटा सा बच्चा अपनी मां से रेलरुपी खिलौने लेने की जिद कर बैठता हैं। क्या एक किंग मेकर, खुद के लिए ऐसा जिच कर सकता हैं और जो ऐसा जिच करता हैं वो कभी किंग मेकर हो सकता हैं। किंग मेकर क्या होता हैं, लालू को कम से कम सोनिया गांधी से सीखना चाहिए, पर इन्हें मसखरी करने से फुर्सत हो तब न, कुछ सीखेंगे। हर बार ये कहना कि उन्होंने गरीबों, मजलूमों को आवाज दी, जैसे लगता है कि गर ये न होते तो कभी गरीबों और मजलूमों को आवाज ही नहीं मिलती। जरा लालू जी जाकर उन गांवों में देखे कि उनके नाम पर, उनकी जाति के लोगों ने किस प्रकार से आंतक मचा कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया, कैसे अल्पसंख्यकों की कब्रिस्तान की जमीन तक इनके लोगों ने कब्जा कर लिया है। आज ही एक चैनल ने दिखाया कि एक पटना के रिक्शेवाले ने कैसे अपनी दुख भरी कहानी सुना दी कि लालू के शासनकाल में जब वो रिक्शावाला सुबह से शाम तक रिक्शे खींचता, पैसे कमाता तो उसके पैसे को अपराधी कैसे, घर जाने के क्रम में लूट लिया करते, पर नीतीश के शासन में अब उसके साथ ऐसा नहीं होता। क्या रिक्शावाला का ये बयां, लालू के दिमाग में नहीं घूसता। कि वो क्या कहना चाहता है।
आज जब एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिला है, तो इस बहुमत को भी नहीं पचाना और इस पर ये टिप्पणी करना कि इसमें रहस्य हैं, ये लालू प्रसाद जैसे लोग ही बयान दे सकते हैं, जबकि दूसरे नेता तो ऐसे मौके पर अपने प्रतिद्वंदियों के घर जाकर, उसे अपनी शुभकामना देते है पर लालू प्रसाद से ऐसी परिकल्पना मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं।
जरा रामविलास पासवान को देखिये कल तक मुख्यमंत्री मुस्लिम हो, इसकी बात करनेवाला ये शख्स ऐन मौके पर ये बयान ही भूल गया और चल पड़ा अपने परिवार को मजबूत करने के लिए। कल तक कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगानेवाले ये दोनो शख्स खुद ही परिवार के आगे कुछ सोचना भी नहीं चाहता, क्या ऐसे लोगों को बिहार की जनता से वोट मांगने का हक भी हैं, और जब जनता ने अपना फैसला सुना दिया तो उस फैसले पर रहस्य पैदा करनेवाले ये कौन होते हैं। क्या ऐसा कहकर वे जनता का अपमान नहीं कर रहे।
रही बात राहुल की तो उन्हें ये जान लेना चाहिए कि ये उत्तर प्रदेश अथवा महाराष्ट्र नहीं हैं कि उनका जादू चल जायेगा, ये खांटी कर्मयोगियों की भूमि हैं, बिहार हैं, यहां एक्टिंग नहीं चलती, यहां के लोगों को जमीन से जूड़ा हुआ नेता चाहिए, इसलिए पहले वे बिहार के बारे में जानें, तब बिहार में आकर बात करें। कल तक विदेश में अपना सारा समय गंवानेवाले राहुल बिहार को क्या जानेंगे। ऐसे भी कहावत हैं, बांझ का जाने प्रसव का पीड़ा। बिहार और बिहार के लोगों की पीड़ा राहुल क्या जानेंगे। कम समय में जिस प्रकार से उन्होंने बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही और जो करतब दिखायें, वो तो बिहारवासियों ने जनादेश के माध्यम से उन्हें बता दिया। शायद राहुल समझ लिये थे कि बिहार के लोग लालू जैसे होते हैं, और जैसे लालू को उन्होंने अपने कब्जें में कर लिय़ा, उसी प्रकार बिहार के लोगों के मतों पर भी कब्जा कर लेंगे, तभी तो उन्होंने साधु यादव, पप्पू यादव की पत्नी और आनन्द मोहन की पत्नी को कांग्रेस से टिकट देकर, अपनी बुद्धिमता का परिचय दे दिया और जब जनता की बारी आयी तो जनता ने इनकी सारी बुद्धिमता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया, ये कहकर कि उन्हें न तो लालू चाहिए और न ही लालू के पदचिन्हों पर चलनेवाले पूर्व के नेता अथवा उनकी पत्नियों से उपकृत होनेवाली पार्टी।
जनता ने पहली बार, ऐसा जनादेश दिया हैं कि लोगों को बिहारी होने पर गर्व महसूस हो रहा हैं। सारे के सारे जातीय समीकरण ही ध्वस्त हो गये। नेताओं की पत्नियां और उनके परिवार के अन्य लोग हार का मुंह देखे हैं। चारों और एक ही बात की चर्चा का, हमें विकास चाहिए, बिहार का स्वाभिमान चाहिए और जो बिहार का स्वाभिमान लौटायेगा, हम उसके साथ होंगे। हम ऐसा नहीं मानते कि नीतीश ने पूरे बिहार में क्रांति ला दी हैं, पर इतना तो जरुर हैं कि नीतीश के शासनकाल में कानून व्यवस्था ठीक हुई हैं, महिलाओं को उनका अधिकार मिला हैं, लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं हुआ हैं, चाहे वो कोई हो, माध्यमिक शिक्षा से जूड़ी बालिकाओं को साईकिल थमा दी गयी कि वे इससे जहां जाये, जायें, लेकिन पढ़े। सड़कों और आधारभूत संरचनाओं को ठीक किया। अपराधी चाहे वे किसी भी पार्टी के हो, उन्हें जेल का रास्ता दिखाया। लोगों में विश्वास जगाया कि हां राज्य में कोई शासन हैं, पर पहले के पन्द्रह सालों में कहीं कुछ दिखा ही नहीं। लालू के पन्द्रह सालों में तो अखबारों और मीडिया में लालू और लालू से संबंधित ही चीजें दिखाई पड़ती थी, चाहे वो लालू के जानवर ही क्यूं न हो, पर आज वैसी बातें नहीं दिखाई देती। आज बिहार और बिहार का युवा, कहता हैं कि वो मसखरे के राज्य का नहीं हैं, बल्कि सपने देखनेवाले राज्य का युवा हैं, जो अन्य राज्यों की तरह विकास के पथ पर चल पड़ा हैं। लेकिन नीतीश के लिए भी कुछ बातें, उन्हें भी जवाब देना होगा, ऐसा नहीं कि उनकी गलतियों पर जनता का ध्यान नहीं हैं, उन्होंने किस प्रकार इस चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट किया और अपनी गुणगान करायीं, ये भी किसी से छुपा नहीं हैं, उदाहरण अनेक हैं, पर इतना तो तय हैं कि नीतीश के गुनाह, फिलहाल लालू, रामविलास और राहुल के गुनाहों से बहुत ही कम हैं। शायद यहीं कारण हैं कि गुनाहगारों में जो कम गुनाहगार था, जनता ने उसे अपना बहुमत दे दिया कि वो पांच साल तक, एक बेहतर बिहार बनाने की दिशा में काम करें, रही बात भाजपा की, तो वो नीतीश के पीछे पीछे चलते रहे, कुछ न कुछ, उसको इसका लाभ मिलता ही रहेगा। क्योंकि भाजपा, कांग्रेस के पदचिन्हों पर चल रही हैं, गर ये सुधर गयी तो ठीक है, नहीं तो इसका भी कांग्रेस जैसा हाल होना तय है।
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