होली बीते कुछ ही दिन बीते हैं, लेकिन होली के दिन और उसके पहले अथवा होली के बाद, जो मीडिया में होली को केन्द्रित बारबालाओं के उपर बिहार से संबंधित समाचार आये। वो चौकानेवाले तो नहीं, पर चिंतन करनेलायक जरुर थे। ज्यादातर मीडिया ने खुलकर दिखायें कि बिहार में होली की संस्कृति को कैसे तार – तार कर यहां के अधिकारी बार बालाओं के डांस का आनन्द ले रहे हैं। किसी ने आधे घंटे तो किसी ने इस पर एक घंटे का विशेष चला दिया तो किसी ने अपने फोन नंबर प्रसारित कर दिये कि दर्शक इस पर अपना विचार दे दे। ये वे लोग थे, जो बंद कमरों में वीडियो चलाकर, एडल्ट फिल्में देखने अथवा विभिन्न वेवसाईटों पर एडल्ट साईट देखने पर शर्म महसूस नहीं करते अथवा मुन्नी बदनाम हुई या शीला की जवानी फिल्मों पर डांस करने से ग़ुरेज नहीं करते और न ही मुन्नी बदनाम हुई अथवा शीला की जवानी जैसे गाने इन्हें अश्लील लगती हैं, पर जैसे ही कोई लड़कियां अथवा बार बालाएं इन्हीं गीतों पर चौक चौराहों पर डांस कर रही होती हैं तो इन्हें उसमें अश्लीलता, बिहार की संस्कृति पर चोट जैसी चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं। कमाल है – बात वहीं हुई, चलनी दूसे सूप के, जिन्हें बहत्तर छेद। यहीं नहीं बिहार के किसी किसी इलाकें में तो कई अधिकारियों ने बिहार दिवस और होली का एकसाथ आनन्द लिया, इन्होंने देखा कि जब बिहार दिवस मनाना ही हैं, नाच – गाना करना ही हैं, पैसा सरकारी खर्च होना ही हैं तो फिर क्यूं न बहती गंगा में हाथ धो लिया जाय, इसलिए कई लोगों ने अपने कार्यालय में ही बारबालाओं को बुलाकर गीत संगीत का आनन्द लिया, उन पत्रकारों को भी बुलाएं जिनकी इसमें गहरी रुचि हैं, इन पत्रकारों ने भी जमकर रुचि ली और ठुमके लगाये पर ठुमके लगाने के बाद जैसे ही उन्हें पत्रकारिता की याद आयी तो इसे अपने चैनलों तक भेज दिया ताकि इसके आधार पर कुछ कमायी भी हो जाये। इधर डेस्क पर बैठे लोगों ने देखा कि ये तो समाचार हैं, बिकनेवाला आयटम हैं, तो उन्होंने बिहार की संस्कृति और अश्लीलता पर दिखाकर लगे व्याख्यान देने, जिन्हें अश्लील साईट और अश्लील फिल्में देखने का शुरु से ही शौक रहा हैं।
ऐसे तो हमारे देश में इस प्रकार के गीत और संगीत अथवा नृत्य कोई पहली बार नहीं हुए हैं, हमेशा से चलते रहे हैं, जिनकी जो पसंद हैं, उसमें रुचि लेकर वे डूवकी लगाते हैं, पर इन बार – बालाओं के माध्यम से पूरे देश के घरों में चुपके से दिखाने का कुकर्म और प्रयास किसने किया ये तो भारत के और बिहार के इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करनेवाले मान्यवर ही बेहतर बता सकते हैं, पर किया क्या जाये। का पर करहू शृंगार, पुरुष मोर आन्हर।
आश्चर्य इस बात की है – कि क्या मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी में अश्लीलता नहीं हैं, फिल्म खलनायक में चोली के पीछे क्या हैं, क्या ये अश्लील नहीं हैं। होता तो ये हैं कि सदियों से लोग अश्लीलता को अपनी अपनी आंखों से नापते और देखते हैं और उसके बाद व्याख्यान देते हैँ और इसके बाद शुरु होता हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने का आरोप प्रत्यारोप। हालांकि इसका असर कुछ होता नहीं हैं। भले ही जहां बार बालाओं के डांस हुए, बिहार सरकार ने उन अधिकारियों पर गाज भी गिराये पर क्या इस प्रकार के गाज गिराने से उन अधिकारियों के चरित्र सुधर जायेंगे।
हुआ तो ये हें कि पूरे देश के गांव व शहरों के कुएं और तालाब, नदियों और सागरों में भांग पड़ गयी हैं। सभी इसमें से एक लोटा जल निकालकर स्वयं को तृप्त कर रहे हैं, ऐसे में अश्लीलता पर कोई टिप्पणी करें तो हमें आश्चर्य लगता हैं. भाई, जब महर्षि विश्वामित्र, मेनका के आगे झूक सकते हैं, जब महर्षि पराशर, सत्यवती के रुप लावण्य को देख मोहित हो सकते है तो ये बार बालाएं किस मर्ज की दवा हैं। ये तो सामान्य लोगों को अपने रुप सौंदर्य और लटकों – झटकों से सिर्फ उनके दिलों को मरहम लगा रही होती हैं। अरे याद करिये – भोजपुरी गायक बलेसर को, जो कहते हैं -- काशी में माजा, न काबा में माजा, न ही माजा बरसाने में, अरे तीन बजे आके जगइहे पतरकी सुतल रहब खरियानी में....................
इसी से पता लग जाता हैं कि सामान्य लोगों की पहली पसंद और आखिरी पसंद क्या हैं। कोई भी व्यक्ति आनन्द की खोज में हैं, पर वो आनन्द उसे कहां मिल रहा हैं, किस रुप में मिल रहा हैं, जिसे वो प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है, उसे वो लेकर रहेगा, चाहे आप झूठी व्याख्यान देकर स्वयं को स्वामी इलेक्ट्रानिकानंद अथवा प्रिंटानंद की उपाधि से विभूषित होने का मन में ख्याल ही क्यूं न रखे.
ऐसे तो हमारे देश में इस प्रकार के गीत और संगीत अथवा नृत्य कोई पहली बार नहीं हुए हैं, हमेशा से चलते रहे हैं, जिनकी जो पसंद हैं, उसमें रुचि लेकर वे डूवकी लगाते हैं, पर इन बार – बालाओं के माध्यम से पूरे देश के घरों में चुपके से दिखाने का कुकर्म और प्रयास किसने किया ये तो भारत के और बिहार के इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करनेवाले मान्यवर ही बेहतर बता सकते हैं, पर किया क्या जाये। का पर करहू शृंगार, पुरुष मोर आन्हर।
आश्चर्य इस बात की है – कि क्या मुन्नी बदनाम हुई और शीला की जवानी में अश्लीलता नहीं हैं, फिल्म खलनायक में चोली के पीछे क्या हैं, क्या ये अश्लील नहीं हैं। होता तो ये हैं कि सदियों से लोग अश्लीलता को अपनी अपनी आंखों से नापते और देखते हैं और उसके बाद व्याख्यान देते हैँ और इसके बाद शुरु होता हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने का आरोप प्रत्यारोप। हालांकि इसका असर कुछ होता नहीं हैं। भले ही जहां बार बालाओं के डांस हुए, बिहार सरकार ने उन अधिकारियों पर गाज भी गिराये पर क्या इस प्रकार के गाज गिराने से उन अधिकारियों के चरित्र सुधर जायेंगे।
हुआ तो ये हें कि पूरे देश के गांव व शहरों के कुएं और तालाब, नदियों और सागरों में भांग पड़ गयी हैं। सभी इसमें से एक लोटा जल निकालकर स्वयं को तृप्त कर रहे हैं, ऐसे में अश्लीलता पर कोई टिप्पणी करें तो हमें आश्चर्य लगता हैं. भाई, जब महर्षि विश्वामित्र, मेनका के आगे झूक सकते हैं, जब महर्षि पराशर, सत्यवती के रुप लावण्य को देख मोहित हो सकते है तो ये बार बालाएं किस मर्ज की दवा हैं। ये तो सामान्य लोगों को अपने रुप सौंदर्य और लटकों – झटकों से सिर्फ उनके दिलों को मरहम लगा रही होती हैं। अरे याद करिये – भोजपुरी गायक बलेसर को, जो कहते हैं -- काशी में माजा, न काबा में माजा, न ही माजा बरसाने में, अरे तीन बजे आके जगइहे पतरकी सुतल रहब खरियानी में....................
इसी से पता लग जाता हैं कि सामान्य लोगों की पहली पसंद और आखिरी पसंद क्या हैं। कोई भी व्यक्ति आनन्द की खोज में हैं, पर वो आनन्द उसे कहां मिल रहा हैं, किस रुप में मिल रहा हैं, जिसे वो प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है, उसे वो लेकर रहेगा, चाहे आप झूठी व्याख्यान देकर स्वयं को स्वामी इलेक्ट्रानिकानंद अथवा प्रिंटानंद की उपाधि से विभूषित होने का मन में ख्याल ही क्यूं न रखे.
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