कोई दस साल उस वक्त उम्र रही होगी। मां छठव्रत कर रही थी और गीत गाती जाती थी, साथ ही इशारों - इशारों में मुझे कुछ कह रही होती और मैं भी उन इशारों को समझ कर, दोनों हाथों को जोड़कर बैठ जाता, मां के गीतों के भाव सब कुछ कह देते कि वो भगवान भास्कर और छठि मईया से क्या चाहती हैं। मैं भी मां से पूछता कि मां ये छठि मईया कौन हैं, भगवान भास्कर को क्यों अर्घ्य देते हैं। मां बताती जाती, मेरा भी बालमन, एक प्रश्न का उतर जैसे ही खत्म होता कि दूसरा शुरु...। पर मां कभी गुस्साती ही नहीं। घर में छठ का होना बहुत ही अच्छा लगता, हमें पता हैं कि जिस घर में छठ होता, मुहल्ले के लोग छठव्रतियों और उऩके परिवार पर विशेष श्रद्धा लुटाते। नहाय खा के दिन तो मैं देखता कि जिसके घऱ में कद्दू फलता, वो बिना पैसे ही लिये कद्दू बांट देता, इसी तरह फलों की भी बारी होती, जिसके घर में घाघरा निंबू या केले के पेड़े होते गर उसके यहां उस कालखंड में फल प्राप्त हुए हैं तो वो स्वयं खाने के बजाय छठि मइया को भोग लगाना नहीं भूलता। पता नहीं क्यूं, मुझे आज भी याद हैं कि जब से होश आया -- तब से लेकर आज तक छठ व्रत के नहाय खा के दिन जो प्रसाद तैयार होता, उस प्रसाद के स्वाद को मैं, फिर सालों भर ढूंढने की कोशिश करता, प्राप्त ही नहीं होता, शायद छठि मइया और भगवान भास्कर के भाव का ही प्रताप हैं कि उस प्रसाद में, गजब के स्वाद मिल जाते हैं जो फिर दूसरे दिन के बाद से मिल ही नहीं पाते।
यहीं नहीं पूरा मुहल्ला दीपावली के समाप्त होते ही एक ही काम में लग जाता कि छठ व्रत को धूमधाम से कम, पर पवित्रता से अधिक मनाना हैं। सादगी खूब झलकती। साड़ी तो कम पर पीली धोती सूखाने का काम जरुर शुरु हो जाता। पीली धोती सुख रही हैं - मतलब इनके घर में छठ होना हैं। खरना के दिन कई घरों में भगवान सत्यनारायण की पूजा और शंख ध्वनि मन को और पवित्र बनाती। हमारे मुहल्ले में चूंकि किसानों के परिवार अधिक थे, इसलिए यहां सत्यनारायण की पूजा की समाप्ति के बाद झाल करतालों, ढोल के बीच - राजाराम जी की आरती, मन को और आह्लादित करती, और ठीक इसके बाद जिस दिन पहला अर्घ्य देना हैं, नवयुवकों की टोली, हाथों में झाडू लेकर सड़कों की ऐसी सफाई करती, जैसे लगता कि स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। हमारे बाबूजी भी हाथ में पानी भरा बाल्टी लेते और जहां तक हो पाता, वे सड़कों के धूलों को उड़ने न देने का विशेष प्रयास करते, पानी छिडकते, कुछ युवाओं को मैं देखता कि वे बाबूजी के पानी की बाल्टी लेने का प्रयास करते और कहते कि बाबा आप पानी मत छीटिये, हम हैं न, सब कर देंगे, आप आराम से बैठिये, आप केवल दिशा निर्देश दीजिये, पर बाबूजी हमारे कहां माननेवाले, वे कहते कि हमें भी भगवान के सेवाकार्यों में लग जाने दो। एक दिन हमने ये कहते और करते बाबूजी से पूछ ही डाला कि भगवान को आपने देखा हैं, बाबूजी कहते हां, देखा हैं, जब कोई प्रसन्नचित हो, समाज सेवा या राष्ट्रसेवा कर रहा होता हैं तो वो भगवान ही तो होता हैं। मैं बोलता तब तो हमारा सारा मुहल्ला सच्चे अर्थों में समाज सेवा में लगा हैं, तब तो सभी भगवान हैं. बाबूजी कहते कि हां ये व्रत ही स्वयं को मनुष्य और देवत्व की ओर ले जाने की प्रेरणा देता हैं, गर सभी इसी प्रकार का काम करें जैसा कि आज कर रहे हैं तो फिर इस मुहल्ले में कहीं कोई गंदगी नहीं रहेगी और न ही कोई दुखी रहेगा, क्योंकि देख रहे हो, जो कल तक एक दूसरे से लड़ते थे, वे भी आज पूछ रहे हैं कि तुम्हारे यहां जो छठव्रत हो रहा हैं, उसमें कहीं कोई दिक्कत तो नहीं, अरे वो देखों, वो तो छठ का दौरा ले जा रहा हैं, कौन हैं वो, पता चला कि अरे वो तो भिखारी भाई हैं, पर ये क्या, ये तो ऐसे व्यक्ति का दौरा माथे पर लिये हैं, जिनसे कभी उनकी पटी ही नहीं। धन्य हैं छठि मइया और भगवान भास्कर जो काम कोई नहीं कर सका, वो आपने कर दिखाया।
यहीं हाल घाटों का होता, सभी एक दूसरे को सहयोग करते नजर आते, आगे या पीछे छठव्रती नजर आते, तो लोग उन्हें पहले जाने का रास्ता दिखाते, गर साष्टांग प्रणाम कर रही होती छठव्रती, तो उनके आगे शीष नवाना नहीं भूलते, उस वक्त लोग ये भूल जाते कि वो किस जाति की हैं, बस ख्याल यहीं हैं कि वो छठवती हैं। ये परिदृश्य आज भी हमारे मुहल्ले में देखने को मिलते हैं, कभी कभी सोचता हूं कि कितना अच्छा रहता कि ये छठव्रत प्रतिदिन हो जाता, पर सच्चाई ये हैं कि जो प्रतिदिन होता हैं, उसकी महत्ता घटते देर नहीं लगती, चलिए गर एक ही दिन स्वर्ग पृथ्वी पर आ जाये और हम बावले होकर, उसका आनन्द ले, तो क्या गलत हैं।
आज एक से एक लेटेस्ट टेक्नालाजी हमारे सामने हैं, सबके पास इयर फोन हैं पर उस वक्त ले देकर, एक रिकार्ड बजानेवाला ही यंत्र था और उसमें ले देकर दो ही छठ के गीत और उसी में पूरा छठ समाप्त। वो गीत थे -- जिसमें एक तरफ था -- उ जे केलवा जे फरेला घवद से, उपर सूग्गा मोर राय, उ जे खबरि जनइवो अदित से, आदित होखी न सहाय, और दूसरा गीत था -- दरसन दिहि न अपान दीनानाथ, भेंट लीहि न हमार। जिसमें ये भी संदेश होता कि हे ईश्वर गर बेटा देना तो सभा में बैठने लायक देना, नहीं तो संख्या बढ़ानेवाला नहीं देना, बेटी जरुर देना, क्योंकि बिना बेटी के घर का आंगन नहीं शोभता। जरा गीत के बोल देखिये - सभवा बैठन के बेटा मांगिल, गोरवा दबन के पूतोह, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान..... रुनकी झूनकी बेटी मांगिल, पढ़ल पंडितवा दमाद, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान.....। ये गीत के बोल स्पष्ट कह देते कि ये व्रत आनेवाले प्रारब्ध को ठीक करने का भी पर्व हैं। पर क्या आधुनिक समाज इस संबंध में कुछ सोच रहा हैं कि जैसे ये गीत विलुप्त हो गये, हमारे चरित्र भी विलुप्त हो गये, गर ये चरित्र, उन गीतों की तरह विलुप्त हो गये हैं तो जरुरत हैं, इस ओर ध्यान देने की, नहीं तो आनेवाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
किसी भी देश में पर्व व त्योहार, इसलिए नहीं बने कि आप केवल आनन्द मनाये, इसलिए भी बने है कि आनन्द के साथ - साथ उस पर्व की व्यावहारिकता को समझे। कल एक सज्जन हमसे मिले, उन्होंने कहा कि जनाब, इतनी महंगाई है कि आदमी क्या छठ करेगा। मैंने, उनसे साफ कहा कि क्या भगवान भास्कर और छठि मइया आपसे कुछ मांगे हैं क्या, और गर आपसे वो मांग भी ले तो क्या आप उनकी मांगों की पूर्ति करने के लायक हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रकार के प्रलाप क्यों। मैंने तो देखा कि अपने मुहल्ले में कई ऐसे गरीब भी थे, जिनके पास फूंटी कौड़ी तक नहीं थी, पर वे भी छठव्रत करते, उनके उत्साह में अथवा जोश में किसी भी प्रकार की कमी नहीं दिखती। बस उपवास किया, चले गये मां गंगा के गोद में, जमकर नहाया, शरीर को रगड़ा और दोनो हाथ जोड़कर भगवान भास्कर के घ्यान में लग गये और जब अर्घ्य का वेला आया, उसी गंगा के गोद में बैठकर अथवा खड़े होकर, उसी के जल से अर्घ्य दे डाला, लीजिये व्रत संपल्न। छठि मईया खुश और भगवान भास्कर भी खुश।
कमाल की बात हैं कि जिस परम ज्ञान को आज की आधुनिक पीढ़ी विभिन्न विश्विविद्यालयों में पढ़कर नहीं प्राप्त कर सकी थी, उस परम ज्ञान को एक सामान्य, गरीब आदमी बिना कलम और किताब लिये प्राप्त कर लिया था. कि कार्तिक शुक्ल रवि षष्ठी व्रत के दिन ही आदिशक्ति का प्रादुर्भाव, भगवान भास्कर की रश्मियों में हो जाता हैं तो भला ऐसे में उन परम शक्तियों को प्राप्त क्यूं न करें। कम से कम ब्रह्मवैवर्तपुराण तो ये ही कहता हैं। शायद यहीं कारण रहा होगा कि अपने देश में एक से एक मणीषी हुए, जिन्होंने न तो कलम छूयी और न किताब पढ़ी, पर परमज्ञान को इस प्रकार पा लिया कि जिसकी परिकल्पना आज की पीढ़ी तो कम से कम नहीं ही कर सकती, क्योंकि आज की पीढ़ी तो सिर्फ ये देखती हैं कि उसे कितने का पैकेज मिलता हैं। भला छठव्रत करने से पैकेज मिलेंगे क्या, गर पैकेज मिलेंगे ही नहीं तो इससे अच्छा हैं कि वो काम करे, जिससे पैकेज यानी धन प्राप्त हो। जबकि भारत पैकेज अथवा धन प्राप्त करने का देश नहीं, बल्कि स्वयं को खोकर, दूसरे को आह्लादित व प्रसन्नचित करने वाले देश का नाम हैं। हमे लगता हैं कि छठव्रत और भगवान भास्कर का ये महापर्व यहीं संदेश सदियों से देता आ रहा हैं। धन्य हैं वो प्रांत, जहां से ये व्रत चलकर संपूर्ण विश्व में फैलता जा रहा हैं, इस परिदृश्य को देख तो मैं यहीं कह सकता हूं कि भारत जिसकी संस्कृति इतनी गहरी हैं, 21वीं सदी में अपना सशक्त व जागृत रुप अवश्य दिखायेगा।
यहीं नहीं पूरा मुहल्ला दीपावली के समाप्त होते ही एक ही काम में लग जाता कि छठ व्रत को धूमधाम से कम, पर पवित्रता से अधिक मनाना हैं। सादगी खूब झलकती। साड़ी तो कम पर पीली धोती सूखाने का काम जरुर शुरु हो जाता। पीली धोती सुख रही हैं - मतलब इनके घर में छठ होना हैं। खरना के दिन कई घरों में भगवान सत्यनारायण की पूजा और शंख ध्वनि मन को और पवित्र बनाती। हमारे मुहल्ले में चूंकि किसानों के परिवार अधिक थे, इसलिए यहां सत्यनारायण की पूजा की समाप्ति के बाद झाल करतालों, ढोल के बीच - राजाराम जी की आरती, मन को और आह्लादित करती, और ठीक इसके बाद जिस दिन पहला अर्घ्य देना हैं, नवयुवकों की टोली, हाथों में झाडू लेकर सड़कों की ऐसी सफाई करती, जैसे लगता कि स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। हमारे बाबूजी भी हाथ में पानी भरा बाल्टी लेते और जहां तक हो पाता, वे सड़कों के धूलों को उड़ने न देने का विशेष प्रयास करते, पानी छिडकते, कुछ युवाओं को मैं देखता कि वे बाबूजी के पानी की बाल्टी लेने का प्रयास करते और कहते कि बाबा आप पानी मत छीटिये, हम हैं न, सब कर देंगे, आप आराम से बैठिये, आप केवल दिशा निर्देश दीजिये, पर बाबूजी हमारे कहां माननेवाले, वे कहते कि हमें भी भगवान के सेवाकार्यों में लग जाने दो। एक दिन हमने ये कहते और करते बाबूजी से पूछ ही डाला कि भगवान को आपने देखा हैं, बाबूजी कहते हां, देखा हैं, जब कोई प्रसन्नचित हो, समाज सेवा या राष्ट्रसेवा कर रहा होता हैं तो वो भगवान ही तो होता हैं। मैं बोलता तब तो हमारा सारा मुहल्ला सच्चे अर्थों में समाज सेवा में लगा हैं, तब तो सभी भगवान हैं. बाबूजी कहते कि हां ये व्रत ही स्वयं को मनुष्य और देवत्व की ओर ले जाने की प्रेरणा देता हैं, गर सभी इसी प्रकार का काम करें जैसा कि आज कर रहे हैं तो फिर इस मुहल्ले में कहीं कोई गंदगी नहीं रहेगी और न ही कोई दुखी रहेगा, क्योंकि देख रहे हो, जो कल तक एक दूसरे से लड़ते थे, वे भी आज पूछ रहे हैं कि तुम्हारे यहां जो छठव्रत हो रहा हैं, उसमें कहीं कोई दिक्कत तो नहीं, अरे वो देखों, वो तो छठ का दौरा ले जा रहा हैं, कौन हैं वो, पता चला कि अरे वो तो भिखारी भाई हैं, पर ये क्या, ये तो ऐसे व्यक्ति का दौरा माथे पर लिये हैं, जिनसे कभी उनकी पटी ही नहीं। धन्य हैं छठि मइया और भगवान भास्कर जो काम कोई नहीं कर सका, वो आपने कर दिखाया।
यहीं हाल घाटों का होता, सभी एक दूसरे को सहयोग करते नजर आते, आगे या पीछे छठव्रती नजर आते, तो लोग उन्हें पहले जाने का रास्ता दिखाते, गर साष्टांग प्रणाम कर रही होती छठव्रती, तो उनके आगे शीष नवाना नहीं भूलते, उस वक्त लोग ये भूल जाते कि वो किस जाति की हैं, बस ख्याल यहीं हैं कि वो छठवती हैं। ये परिदृश्य आज भी हमारे मुहल्ले में देखने को मिलते हैं, कभी कभी सोचता हूं कि कितना अच्छा रहता कि ये छठव्रत प्रतिदिन हो जाता, पर सच्चाई ये हैं कि जो प्रतिदिन होता हैं, उसकी महत्ता घटते देर नहीं लगती, चलिए गर एक ही दिन स्वर्ग पृथ्वी पर आ जाये और हम बावले होकर, उसका आनन्द ले, तो क्या गलत हैं।
आज एक से एक लेटेस्ट टेक्नालाजी हमारे सामने हैं, सबके पास इयर फोन हैं पर उस वक्त ले देकर, एक रिकार्ड बजानेवाला ही यंत्र था और उसमें ले देकर दो ही छठ के गीत और उसी में पूरा छठ समाप्त। वो गीत थे -- जिसमें एक तरफ था -- उ जे केलवा जे फरेला घवद से, उपर सूग्गा मोर राय, उ जे खबरि जनइवो अदित से, आदित होखी न सहाय, और दूसरा गीत था -- दरसन दिहि न अपान दीनानाथ, भेंट लीहि न हमार। जिसमें ये भी संदेश होता कि हे ईश्वर गर बेटा देना तो सभा में बैठने लायक देना, नहीं तो संख्या बढ़ानेवाला नहीं देना, बेटी जरुर देना, क्योंकि बिना बेटी के घर का आंगन नहीं शोभता। जरा गीत के बोल देखिये - सभवा बैठन के बेटा मांगिल, गोरवा दबन के पूतोह, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान..... रुनकी झूनकी बेटी मांगिल, पढ़ल पंडितवा दमाद, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान.....। ये गीत के बोल स्पष्ट कह देते कि ये व्रत आनेवाले प्रारब्ध को ठीक करने का भी पर्व हैं। पर क्या आधुनिक समाज इस संबंध में कुछ सोच रहा हैं कि जैसे ये गीत विलुप्त हो गये, हमारे चरित्र भी विलुप्त हो गये, गर ये चरित्र, उन गीतों की तरह विलुप्त हो गये हैं तो जरुरत हैं, इस ओर ध्यान देने की, नहीं तो आनेवाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
किसी भी देश में पर्व व त्योहार, इसलिए नहीं बने कि आप केवल आनन्द मनाये, इसलिए भी बने है कि आनन्द के साथ - साथ उस पर्व की व्यावहारिकता को समझे। कल एक सज्जन हमसे मिले, उन्होंने कहा कि जनाब, इतनी महंगाई है कि आदमी क्या छठ करेगा। मैंने, उनसे साफ कहा कि क्या भगवान भास्कर और छठि मइया आपसे कुछ मांगे हैं क्या, और गर आपसे वो मांग भी ले तो क्या आप उनकी मांगों की पूर्ति करने के लायक हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रकार के प्रलाप क्यों। मैंने तो देखा कि अपने मुहल्ले में कई ऐसे गरीब भी थे, जिनके पास फूंटी कौड़ी तक नहीं थी, पर वे भी छठव्रत करते, उनके उत्साह में अथवा जोश में किसी भी प्रकार की कमी नहीं दिखती। बस उपवास किया, चले गये मां गंगा के गोद में, जमकर नहाया, शरीर को रगड़ा और दोनो हाथ जोड़कर भगवान भास्कर के घ्यान में लग गये और जब अर्घ्य का वेला आया, उसी गंगा के गोद में बैठकर अथवा खड़े होकर, उसी के जल से अर्घ्य दे डाला, लीजिये व्रत संपल्न। छठि मईया खुश और भगवान भास्कर भी खुश।
कमाल की बात हैं कि जिस परम ज्ञान को आज की आधुनिक पीढ़ी विभिन्न विश्विविद्यालयों में पढ़कर नहीं प्राप्त कर सकी थी, उस परम ज्ञान को एक सामान्य, गरीब आदमी बिना कलम और किताब लिये प्राप्त कर लिया था. कि कार्तिक शुक्ल रवि षष्ठी व्रत के दिन ही आदिशक्ति का प्रादुर्भाव, भगवान भास्कर की रश्मियों में हो जाता हैं तो भला ऐसे में उन परम शक्तियों को प्राप्त क्यूं न करें। कम से कम ब्रह्मवैवर्तपुराण तो ये ही कहता हैं। शायद यहीं कारण रहा होगा कि अपने देश में एक से एक मणीषी हुए, जिन्होंने न तो कलम छूयी और न किताब पढ़ी, पर परमज्ञान को इस प्रकार पा लिया कि जिसकी परिकल्पना आज की पीढ़ी तो कम से कम नहीं ही कर सकती, क्योंकि आज की पीढ़ी तो सिर्फ ये देखती हैं कि उसे कितने का पैकेज मिलता हैं। भला छठव्रत करने से पैकेज मिलेंगे क्या, गर पैकेज मिलेंगे ही नहीं तो इससे अच्छा हैं कि वो काम करे, जिससे पैकेज यानी धन प्राप्त हो। जबकि भारत पैकेज अथवा धन प्राप्त करने का देश नहीं, बल्कि स्वयं को खोकर, दूसरे को आह्लादित व प्रसन्नचित करने वाले देश का नाम हैं। हमे लगता हैं कि छठव्रत और भगवान भास्कर का ये महापर्व यहीं संदेश सदियों से देता आ रहा हैं। धन्य हैं वो प्रांत, जहां से ये व्रत चलकर संपूर्ण विश्व में फैलता जा रहा हैं, इस परिदृश्य को देख तो मैं यहीं कह सकता हूं कि भारत जिसकी संस्कृति इतनी गहरी हैं, 21वीं सदी में अपना सशक्त व जागृत रुप अवश्य दिखायेगा।
Aapne jo kuchh chhath parwa ke wisay me likha wo drisya roop me aakho ke samne ubharti hai.
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Rahul
Pk