Tuesday, November 22, 2011

बाकी भूत-प्रेत...................


ये उस वक्त की बात हैं। जब मैं ईटीवी में कार्यरत था। मेरी पोस्टिंग धनबाद में थी। चूंकि परिवार और बच्चे रांची में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, तो साप्ताहिक अवकाश के दिन रांची में बिताना मेरी मजबूरी हुआ करती थी, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे, सप्ताह में एक दिन भी मेरे साथ दूर रहे। इसी दौरान रांची - धनबाद और धनबाद - रांची करना मेरा साप्ताहिक कार्यक्रम हुआ करता था। पर इसी कालखंड में, एक से एक लोग यात्रा के दौरान मिले भी, जो देखने में तो बहुत सुंदर पर अंदर से उतने ही काले। सिर्फ अपने लिए जीने की चाह रखनेवाले, जबकि कई ऐसे भी थे, जिनको अपनी तो चाह नहीं, पर दूसरे के लिए जीना चाहते थे। उन्हीं में से एक घटना, अपने मित्रों के बीच शेयर करना चाहता हूं। आमतौर पर जहां से ट्रेन खुलती हैं, ट्रेनों की साफ - सफाई होती ही हैं, पर जैसे ही वो ट्रेन अपने गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ती हैं, उसी ट्रेन में सफर करनेवाले, उस ट्रेन की बॉगी के साथ ऐसा शत्रुवत् व्यवहार करते हैं, जैसे लगता हैं कि अब इस ट्रेन से उनका वास्ता ही नहीं होगा। कभी - कभी मैं खुद व्यंग्यात्मक रुप से ऐसे लोगों से कह भी देता कि जनाब, आपने ट्रेन की पूरी कीमत वसूल ली हैं, ऐसा आपको करना भी चाहिए, क्योंकि ट्रेन की बॉगियां, इसी के लिए तो बनी हैं। जैसे आप खुद देखते होंगे कि ट्रेनों में पंखों के उपर जूते - चप्पल रखना, दरवाजों और शौचालयों के आसपास पान और गूटखों को पीक फेंकना, जालीदार बने सामान रखनेवाले जगह पर, उन जालियों में पान खोंसदेना या बेवजह की कागज, पालिथिन ठूस देना, जो हवाओं के आनेजाने के लिए बने हैं। यहीं नहीं, मूंगफली के छिलकों से पूरे कपार्टमेंट को गंदा कर देना, शौचालय में गये तो सीट से अलग शौच करना, फ्लैश नहीं चलाना, शौचालय के दीवारों पर कलम अथवा पेंसिल से अपनी कुत्सित भावनाओं को उकेरना, यहीं तो हम करते हैं, और करते आ रहे हैं, करते रहेंगे। गर पैसे ज्यादा हो गये तो एसीवाली बॉगी में भी वहीं हरकतें करना, पान की पींक बर्थ व सीट के नीचे फेंक देना, खाने-पीने के सामानों को यूज कर, उसके शेषांश इधर - उधर फेंक देना, और फिर इन गंदगियों के बीच भारतीय राजनीति पर चर्चा करते हुए, सारी गंदगियों और भ्रष्टाचार को लेकर, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं पर अपना गुस्सा निकालना, पर कभी भी किसी भी हालत में स्वयं को नहीं परखना कि हमारी थोड़ी सी गलती और नासमझी ने, उस जगह को नर्क बना दिया, जिस नर्क ने गंतव्य की ओर पहुचंने के क्रम में नाना प्रकार की बीमारियां उन्हें भी दी, जिन्होंने इसे फैला दी थी। ये वो लोग हैं, जो अपने घरों में रहते हैं तो ऐसी गंदगी अपने घरों में नहीं फैलाते, पर दूसरों के घरों और अन्य जगहों पर, इनकों सारा जगह कूड़ा ही नजर आता हैं, या यों कहें तो इन्हें कूड़े - कचड़े में रहना ही ज्यादा मजा आता हैं, इसलिए हर प्रकार की गंदगियां फैला देते हैं। एक दिन इन्हीं गंदगियों के बीच, धनबाद से रांची जाने का अवसर मिला। हम आपको बता दें कि धनबाद से रांची जाने के लिए हमें धनबाद एलेप्पी एक्सप्रेस पकड़नी थी। उस ट्रेन में मात्र एक ही जेनरल बॉगी होता हैं, जिसमें हम जैसे तैसे घूसे। भीड़ इतनी थी कि मुझे ट्रेन के बागी के प्रवेश द्वार पर ही टिकना पड़ा। ट्रेन खुल चुकी थी, एक व्यक्ति जो दिखने मे सज्जन, गले मे सोने की चैन, हाथ में महंगी घड़ी, सुट पहने, पांव में शानदार जूते और मुंह में गुटके चबाये थे, पास में ही खड़े थे। गुटके का गंध शायद उनको ज्यादा पसंद आ रहा था, पर उस गंध से कई लोग परेशान दीखे, मेरी तो हाल ये थी कि पूछिये मत। अचानक, मैने देखा कि जनाब ने, इधर - उधर नजर दौड़ायी, और ट्रेन के दोनो ओर बने शौचालय के बीच वाली जगह में गुटखे की ऐसी पिचकारी छोड़ी की कई लोगों के कपड़ों में वो लगने से बची। जनाब ने तो खुद राहत महसूस की, पर लोगों के हालत देखने लायक थे। मैने उस जनाब से कहा कि आप दिखने में तो रईस लगते है, कहां जाना हैं। उन्होंने बताया कि, उन्हें बस रांची जानी हैं। बात बढ़ी, मैंने कहा कि जब आप जैसे महानुभावों के लिए भारतीय रेल ने एक - एक बागी में छह- छह पीकदान, चार- चार शौचालय और उसमें भी पीकदान की व्यवस्था कर दी हैं तो फिर आप उसका उपयोग क्यों नहीं करते, क्यों दूसरो पर गुटखे का धौंस जमाते हुए, बागी को पीक से कलरफूल बनाने की कोशिश करते हैं, इससे लोगों को दिक्कत होती हैं, आपको समझ में नहीं आता। बस क्या था, जनाब भड़क गये, उन्हें इस बात को लेकर गुस्सा था कि मैंने उन्हें आईना क्यूं दिखाया, आईना दिखाया तो दिखाया, उसमें उनका चेहरा क्यूं नजर आया। वे पील पड़ें, चलिए आपको देख लूंगा। बात बढ़ती चली गयी। अचानक मैने देखा कि कोई मेरे पांव को स्पर्श कर रहा हैं, पता चला - कि स्पर्श करनेवाला व्यक्ति और कोई नहीं, नेत्रहीन हैं। शायद वो कुछ कहना चाहता हैं। नेत्रहीन व्यक्ति ने मुझसे कहा - ऐ बेटा।
मानुष मानुष बहुत हैं, मानुष में बड़ भेद।
कोई कोई तो मानुष हैं, बाकी भूत - प्रेत।।

उस नेत्रहीन ने, जैसे लगा कि सब कुछ क्लियर कर दिया। कि जो इस ट्रेन में सवार थे, सभी दीख तो मनुष्य रहे थे, पर इनमें भी मनुष्यों की संख्या कम ही थी। ज्यादा तो भूत-प्रेत ही दीख रहे थे। जिन्हें न तो इंसानियत और न ही साफ - सफाई से मतलब था। मतलब तो केवल एक था कि खुद साफ रहो और दूसरे को गंदा करते रहो। नेत्रहीन के संवाद ने तो स्पष्ट ये भी किया कि इन आंखवालों के बीच में एक ही आंखवाला था, जो नेत्रहीन था, पर अपने विचारों और दोहों से मुझे इतना प्रभावित किया, कि उसे घटना को आज तक मैं भूल ही नहीं पाया।

No comments:

Post a Comment