Monday, November 14, 2011

झारखंड निर्माण के 11 वर्ष -------------------

15 नवम्बर 2000 बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर एक नया झारखंड प्रांत उदय ले रहा था। झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में बाबू लाल मरांडी ने शपथ ली थी, प्रथम राज्यपाल बनने का सौभाग्य प्रभात कुमार को मिला था, जबकि विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष बनने जा रहे थे - इंदर सिंह नामधारी। नया प्रांत, नये सपनों के साथ जन्म ले रहा था। इसके पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजद के नेता लालू प्रसाद यादव ने ताल ठोक दी थी कि झारखंड उनके लाश पर बनेगा, पर उनके रहते झारखंड बन चुका था। जब झारखंड जन्म ले रहा था, तो वे रांची में भी थे, पर उनका जादू धीरे धीरे इस इलाके में विलुप्त हो रहा था, या हम कह सकते हैं कि उनका सितारा बुलंदियों से नीचे की ओर सरकना शुरु हुआ था जो आज भी सरकता ही जा रहा हैं। लालू और उऩके जैसे कई नेता ये भी कहते थे कि गर झारखंड बन गया तो बिहार में लालू, बालू और आलू ही दिखाई पड़ेंगे। सच्चाई ये भी हैं कि जब तक मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी रहे, लगता था कि ये कथन सच हो जायेगा, पर जैसे ही उनकी तख्ता, उनसे खार खाये जदयू के नेताओं ने पलटी, झारखंड फिर ठीक से खड़ा नहीं हो सका। जबकि इसके विपरीत बिहार नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रगति के शिखर की ओर बढ़ रहा हैं, ऐसा इसलिए लिखना पड़ रहा हैं कि कुछ पत्र पत्रिकाओं ने नीतीश की कार्य कुशलताओं की प्रशंसा की हैं, लेकिन हमसे गर पूछे तो मुझे नीतीश न कल अच्छे लगे थे और न ही आज। ये अहंकारी पुरुष हैं, ये अलग बात हैं कि इनका कुछ काम ठीक दीखता हैं, पर इनके शासनकाल में भी लॉ एंड आर्डर की वहीं स्थिति हैं जो लालू के काल में थी। अरे जो व्यक्ति बिहार के लोकपर्व छठ पर घाटों की स्थिति नहीं सुधार सकता, जिसके शासनकाल में 24 से अधिक घाटों पर व्रत करने पर प्रतिबंध लगा दिये जाते हो, वो गर कहें कि हम विकास की रास्ते पर हैं, तो बड़ा आश्चर्य लगता हैं। फिर भी जब सब कह रहे हैं, ठीक हैं, तो चलों हम भी कह देते हैं, ठीक हैं, ऐसा कहना वैचारिक दृष्टिकोण से नीतीश के आगे आत्मसमर्पण कर देना होगा, फिर भी बिहार झारखंड के मुकाबले अच्छी स्थिति में हैं, ये मानने में हमें गुरेज नहीं।
हमें याद हैं, जब बिहार से झारखंड अलग हो रहा था, तब उस वक्त मैं पटना स्थित दैनिक जागरण कार्यालय में कार्यरत था और मुझे मोतिहारी की जिम्मेदारी सौपी जा रही थी। उस दिन मुझे झारखंड की राजधानी रांची से निकलनेवाली प्रभात खबर समाचार पत्र खूब याद आयी। वो इसलिए कि प्रभात खबर, अपने समाचार पत्र में कुछ पृष्ठ तो झारखंड के नाम से ही निकालता था। उस वक्त जब कई समाचार पत्र जो रांची से ही प्रकाशित होते थे, झारखंड लिखने से ही परहेज करते थे, पर आज झारखंड शब्द को लिखकर गौरवान्वित हो रहे थे। जिस दिन झारखंड बना, उस दिन तो इस समाचार पत्र ने ऐसे विशेषांक निकाले, जो संग्रहणीय़ थे, पर चूंकि मैं रांची में नहीं था, वो संस्करण मुझे मिले नहीं, जो मेरे मित्र व परिजन रांची में थे, उन्हें कहां था कि वो संजो कर रखे, पर देर से आने का कारण रहा या मित्रों की याददाश्त की कमी, वो संजो कर नहीं रख सकें, पर वो विशेषांक आज तक मुझे नहीं मिले, फिर भी जो लेखकों व अन्य पत्रकारों से जो मुझे संस्मरण मिले, वो बताते कि इस समाचार पत्र ने कितनी मेहनत की थी।
झारखंड बनने के बाद, इस प्रांत में विकास के रास्ते खुले थे, जिस बिहार प्रांत में सड़कें कागजों में ही बन जाती थी, यहां सडकें दिखाई देने लगी। पुल पुलियों को ठीक कराया जाने लगा। स्कूलों में कल्याण विभाग सक्रिय दिखा। लड़कियां सायकिलों पर स्कूल जाने लगी थी। आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों के कल्याण के लिए कई कार्यक्रम शुरु किये जाने लगे थे। सरकारी स्कूलों मे बिहार पैटर्न को छोड़ सीबीएसई पैटर्न लागू कर दिया गया। बच्चों को मुफ्त में किताबे मिलने लगी। शिक्षा का स्तर सुधार होता दिखा। जहां बिजली दिखाई नहीं पड़ती थी वो बिजली अब यहां दिखाई पड़ने लगी। उद्योग धंधे खुलने शुरु हुए। कई परियोजनाओं को मूर्तरुप दिया जाने लगा। निजी कंपनियों के साथ एमओयू होने लगे, हालांकि इन एमओयू का विरोध भी हुआ। लेकिन बाबू लाल मरांडी के शासनकाल में उठी डोमिसाईल की आग ने झारखंड की प्रतिष्ठा में वो आग लगायी कि इस आग से आज भी झारखंड झूलस रहा हैं, हालांकि इस डोमिसाईल की आग को मीडिया ने भी हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक समाचार पत्र और कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों ने इस प्रकार से इस आंदोलन को हवा दी, जैसे लगा की इस आग से कभी झारखंड उबर नहीं पायेगा, पर खुशी इस बात की हैं कि डोमिसाईल की आग, अब वैसी नहीं, फिर भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रुप में ये जिंदा हैं, और इसका भय झारखंड में बाहर से आकर बसे पुराने व नये लोगों में स्पष्ट दीखता हैं।
बिहार और झारखंड अलग - अलग हैं। आज बिहार प्रगति की ओर हैं पर झारखंड प्रगति से कोसो दूर हैं। उसके कारण स्पष्ट हैं। बिहार में एक नेतृत्व और उसकी सोच साफ दिखाई पड़ती हैं, पर यहां नेतृत्व की कमी और उसकी स्पष्टता साफ दिखाई नहीं देती। बाबू लाल मरांडी के समय लगता था कि एक सोच हैं, स्पष्टता हैं, पर उसके बाद सभी में नेतृत्व करने की क्षमता और स्पष्टता का अभाव दिखता हैं। झारखंड निर्माण के बाद, आज तक झारखंड को अपना विधानसभा, अपना सचिवालय नहीं मिला और न इसे बनाने की जरुरत समझी गयी। खेल के क्षेत्र में ये प्रदेश एक मिसाल कायम कर सकता हैं, हम ये भी कह सकते है कि ये स्टेट स्पोर्टस स्टेट बनने की क्षमता रखता हैं, पर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, राष्ट्रीय खेल का समय तो यहां इस प्रकार से बार बार बदले गये कि इस प्रदेश की प्रतिष्ठा दांव पर लगती चली गयी, ऐसे देखा जाय तो खेल में बिहार झारखंड के आगे कहीं टिकता नजर नहीं आता। नया राज्य बनने के बाद राजधानी रांची को जिस प्रकार नये ढंग से बसाने की बात होनी चाहिए थी, उस पर तो आज तक कोई सुनने को तैयार नहीं, आज भी रांची की सभी सड़कों पर सड़क जाम की स्थिति सामान्य सी घटना होती हैं, यहां एक व्यक्ति को एक किलोमीटर की यात्रा संपन्न करने में एक घंटे लग जाते हैं। ये केवल राजधानी की स्थिति नहीं बल्कि झारखंड के सभी नगरों की हैं। विस्थापन, पलायन और गरीबी इस झारखंड की सबसे बड़ी समस्या हैं पर आजतक किसी ने भी इन समस्याओं को झारखंड से त्राण दिलाने की युक्ति नही निकाली।
नक्सल और झारखंड तो जैसे लगता हैं कि एक दूसरे के लिए ही बने हैं और इस नक्सल की समस्याओं को बढा़ने में, खाद और बीज का काम करते हैं यहां के राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी। राजनीतिज्ञ तो विधानसभा में कुछ और सड़कों पर नक्सलियों के लिए कुछ और बयान देते हैं। उसका मूल कारण हैं कि वो जानते हैं कि नक्सलवाद यहां की मिट्टी में किस प्रकार जड़ समा चुका हैं। कुछ तो मानते हैं कि नक्सलवाद की समस्या, यहां से कभी खत्म ही नहीं होगी, पर मैं ऐसा नहीं मानता। गर राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों में इमानदारी के गुण आ जाये, विकास के रास्ते पर कदम बढ़ा दे, नक्सलियों के साथ कठोरता से पेश आये तो ये नक्सली किस चूहे के बिल में होंगे, पता ही नहीं चलेगा। जब पंजाब से आतंकवाद समाप्त हो सकता हैं। असम समस्या को काबू में किया जा सकता हैं, तो ऩक्सलवाद किस चिड़िया का नाम हैं। सच्चाई ये हैं कि नक्सलवाद बढ़ाने में यहां के राजनीतिज्ञों के दोहरे चरित्र ने ही मुख्य भूमिका निभायी हैं। जब विकास के नाम पर लूट होगी, राजनीतिज्ञ दस पुश्तों के लिए, धन इकट्ठा करने में लगायेंगे, तो फिर नक्सलवाद कैसे नहीं बढ़ेगा। यहां भ्रष्टाचार का आलम ये हैं कि यहां एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके शासनकाल के कई मंत्री होटवार जेल में कैदी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, ये झारखंड के ऐसे बदनूमा दाग हैं, जो फिलहाल कहीं से भी धूलते नजर नहीं आते। जब - जब भ्रष्टाचार की बात आती हैं - झारखंड सूर्खियों में ही रहता हैं, चाहे वो नरसिंहराव सरकार बचाने की बात हो अथवा झारखंड प्रांत बनने के बाद एक से बढ़कर एक किये गये घोटाले की बात ही क्यों न हो।
आज यहां जो सरकार चल रही हैं - गठबंधन की। वो क्या हैं। वो भी भ्रष्टाचार की ही देन हैं। जो एक दूसरे को फूंटी आंख देखना नहीं पसंद करते, वो सरकार चला रहे हैं। क्यूं चला रहे हैं. क्या किसी को पता नहीं। खुद यहां के मुख्यमंत्री दिल्ली और विदेश की यात्राओं की झड़ी लगा दी हैं। बगल में बिहार हैं, वहां के मुख्यमंत्री तो लगता हैं कि इतनी दिल्ली यात्रा भी नहीं की होगी, जितना की यहां के मुख्यमंत्री ने एक साल में विदेश की यात्रा कर ली हैं। इसी से पता लग जाता हैं कि कौन अपने प्रांत के लिए क्या कर रहा हैं। यहीं नहीं जरा इस एक साल में देखिये -- एक ओर बिहार में सेवा का अधिकार लागू हो चुका हैं, वहीं झारखंड में सरकार ने घोषणा तो कर दी पर ये सेवा का अधिकार कब लागू होगा, इसका अभी सगुन ही देखा जा रहा हैं, ऐसे में हमें नहीं लगता कि इस 11 वें साल को पूरा कर लेने के बाद भी झारखंड में कोई नयी चीज देखने को मिलेगी, फिर भी निराशावादी से आशावादी होना अच्छा हैं। आशा करेंगे कि क्रिकेट में जैसे धौनी, सौरभ और अब वरुण ने झारखंड में आशा का संचार पैदा किया हैं। राजनीति व प्रशासनिक क्षेत्र में भी कुछ नये चेहरे दिखेंगे जो झारखंड को नयी बुलंदियों तक पहुंचायेंगे, फिलहाल जो पुराने चेहरे हैं, उनसे आशा करना बेमानी होगी, क्योंकि अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य बनता हैं। अतीत तो भ्रष्टाचार में गोता लगाता हुआ दिखा हैं, यहीं कारण हैं कि वर्तमान में कुछ हैं ही नहीं, पर देखे आगे क्या होता हैं..............

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