पता नहीं क्यूं...। आज मुझे मेरा बचपन याद आ रहा हैं। वो दौड़ लगाना, छुक- छुक करती रेल की तरह भागते जाना, तालाबों, खेतों - खलिहानों के बीच दौड़ते जाना, जाड़े के दिनों में हांडी में आलू रख औंधा लगाना, हवाओं से भी तेज भागते हुए, उसकी खिल्ली उड़ाना, अपने बाल दोस्तों के बीच सभा करना, मस्ती के आलम में डूबे रहना, बिजली कटने के बाद, बिजली आने पर हंगामा मचाते हुए, घर की ओर लौटना.... वो समय फिर जिंदगी में लौट कर क्यूं नहीं आता.........।
आज तो कंम्पयूटर का युग हैं, अपने बचपन की तलाश, मैं जब आज के बच्चों से करता हूं, तो पता चलता हैं कि आज के बच्चों और कल के बच्चों की सोच और बालपन में काफी अंतर आया हैं, कुछ में तो आज के बच्चे बहुत आगे निकल चुके हैं तो कुछ में बहुत पीछे..............।
कमाल के वो दिन थे, एक से एक खेल। मानो किसी ने खेल पर शोध कर, एक से एक खेल का इजाद किया हो। एक खेल खत्म नहीं हुआ कि दूसरा खेल शुरु और दुसरा खेल खत्म नहीं हुआ कि तीसरा खेल शुरु, खेलों के जैसे मौसम हुआ करते, ठीक उसी प्रकार जैसे पर्वों और त्योहारों के.....।
कहां से शुरु करुं और कहां से अंत। मुझे समझ में नहीं आ रहा, पर इतना जरुर हैं, जो भी लिंखूंगा, शायद वो पाठकों को पसंद आये या कुछ पाठकों को लगेगा कि अरे वे इस खेल को अपने जीवन में कभी उतार चुके हैं। खेलों में सबसे पहला और मनोरंजक खेल होता, पहाड़ - पानी। कई के घर के ओटे पहाड़ बन जाते और ओटे की जमीन पानी बन जाती। इसमें भाग लेनेवाले बाल सदस्यों की कोई सीमा नहीं रहती, जो भी शामिल हो जाये, अच्छा हैं, लेकिन सबसे पहले पानी में कौन रहेगा। इसके लिए चुनाव होता। वह भी चुनाव बड़ा मनोरंजक होता, कविताओं के सहारे, सबसे पहले पानी के अंदर रहनेवाले बाल सदस्य का चुनाव होता.................
कविता इस प्रकार की होती.......................
दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ,
सौ में लागा धागा, चोर निकलके भागा,
पाव रोटी बिस्कुट, मेम खाये कुट-कुट
साहेब बोला भेरी गुड।
जैसे ही गुड आता, जिसके पास ये शब्द बोलते हुए आ गये, वो बाहर होता जाता और जो अंत में पड़ा वो पानी में रह गया। अब पानी में रहनेवाला बाल सदस्य पहाड़ पर रहनेवाले बाल सदस्यों का पीछा करता, वह भी तब जब पहाड़ पर रहनेवाला कोई बाल सदस्य पानी में उतरने की कोशिश करता.....। जो कोई पानी में रहनेवाले बाल सदस्य से स्पर्श हो जाता, फिर वहीं वैसा क्रम दुहराता चला जाता....। इसी प्रकार ये क्रम चलता जाता, कब ऐसे में समय बीत जाता पता ही नहीं चलता। इसी तरह एक और खेल था -- बिल्ली चुहा। एक छोटा सा ओटा का कोना, जिसमें आवश्यकता से अधिक बच्चे बैठ जाते, और एक दूसरे को ठेलने की कोशिश करते, इसी क्रम में बच्चों का दल एक दूसरे को पछाड़ रहा होता, यानी ओटे से हटा रहा होता, हटनेवाला बच्चा और ओटे पर कब्जा करनेवाला बच्चा एक दूसरे को देख खिलखिला रहा होता, इस दरम्यान बच्चे, कुछ दोहे भी पढ़ रहे होते, जैसे - ऐ बिल्ली, क्या चुहा, धक्कम धुक्कम होए लड़ईया...............।
जब रात में बिजली कट गयी रहती तो हमारे मुहल्ले के गली में रहनेवाले किसानों के बच्चे सड़कों पर आ जाते. वे भी एक से एक खेल, खेला करते। खेल का नाम था - एक मन की सुतरी। इस खेल में भी बच्चों की संख्या अनिश्चित रहती, खेल बड़ा मनोरंजक होता। जो सबसे बड़ा बच्चा होता, वो ओटे पर बैठकर, एक बच्चे का हाथों से आंखें मूंदकर, ये पूछता कि आटी से पाटी, फलां बच्चे की ... किधर पाटी। गर वो बच्चा सही बता देता, तो कोई बात नहीं, लेकिन गर गलत बताता, तो उसे उस बच्चे को, अपने पीठ पर तब तक चढ़ाये रखना होता, जब तक वो सही उत्तर नहीं दे देता। इस क्रम में ओटे पर बैठा सबसे बड़ा सदस्य, एक हाथ से उसकी आंख मूंदकर, दूसरे हाथों को पीठ पर रख अंगूलियों की संख्या को दर्शाता और पूछता -- एक मन की सूतरी बरियारी घोड़ी के गो....। वो गर संख्या सही बता दिया कि पांच या दो। तो बस पीठ पर चढ़ा बाल सदस्य, नीचे उतर जाता और फिर उसे वो करना पड़ता, जो वो बाल सदस्य कर रहा था................।
इसी प्रकार का खेल था -- चिट्ठी का खेल। इसमें भी बच्चों की संख्या कोई निश्चित नहीं रहती। एक वरिष्ठ बाल सदस्य - एक अन्य बाल सदस्य को अपने पास रखता, और अन्य बाल सदस्यों को दूर भेज देता। फिर वरिष्ठ बाल सदस्य, एक एक कर बाल सदस्यों को अपने पास बुलाता, कहता - ए राजा।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या खाजा
वरिष्ठ बाल सदस्य -- तेरे बाप कन से चिट्ठी आया।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या क्या।
वरिष्ठ बाल सदस्य -- हाथी, घोड़ा, एरोप्लेन, हेलीकाप्टर, कार, फटफटिया
दूसरा बाल सदस्य -- अपने पसंद का कोई यातायात का साधन बोल देता, वरिष्ठ बाल सदस्य के इशारे पर कोई भी बच्चा, वो यातायात के साधन की आवाज निकालता हुआ जाता, ओर उसे ले आता। इसी प्रकार, एक एक कर बाल सदस्य, वरिष्ठ बाल सदस्य के पास आते जाते और खेल खत्म हो जाता।
दादी अम्मा के खेल का जवाब ही नहीं था। एक वरिष्ठ बाल सदस्य किसी उंचे जगह पर बैठकर, दादी अम्मा बन जाता, और दूसरे कई बाल सदस्य शोर करते हुए, दादी अम्मा बनी हुई बाल सदस्य के पास जाकर चिल्लाते - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउं
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों।
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - जाओ बच्चों, इसके बाद बच्चे खूब खेलकूद कर शोर मचा रहे होते। इसके बाद दादी अम्मा बच्चों को बुलाती और कहती।
दादी अम्मा - आओ बच्चों।
बच्चे शोर कर बोलते - नहीं आउंगीं
दादी बोलती - सोने का गिलास दुंगी।
बच्चे - नहीं आऊंगी।
दादी - सोने का कटोरो दुंगी।
बच्चे - नहीं आउंगी।
दादी - सोने का किताब दुंगी।
बच्चे - नहीं आउँगी।
दादी - सोने का भगवान दुंगी।
बच्चे - आउंगी।
और जब बच्चे, दादी अम्मा के पास पहुंचते, तो दादी अम्मा बना बच्चा, अपने बच्चों को लाड प्यार कर रहा होता।
फिर दादी पूछती। कहा गये थे - नानी कन।
दादी -- क्या - क्या खाये
बच्चे - लड्डू पेड़ा
दादी - हमारे लिये क्या लाये
बच्चे - गुड़़ का पकौड़ा, गुड़़ का पकौड़ा, बोलने के साथ ही बच्चे भाग निकलते, और इधर गुस्से से लाल पीली होती दादी, बच्चों को दौड़ा दी होती।
एक खेल था - सोने का पुल। ये ऐसा था कि रोज टूटता और रोज जूटता अथवा बनता। दो बच्चे एक दूसरे के विपरीत खड़े हो जाते, अपने दोनों हाथों को ऊंचा उठाते हुए, जोड़े रहते और पुल बन जाता। कई लड़कों का दल, पंक्तिबद्ध होकर, खड़ो होता। आगे वाला बच्चा - पुल से अनुरोध करता और कहता -- सोने के पुल में जाने दो।
पुल कहता -- सोने का पुल टूट गया।
बच्चे - हीरा मोती जूड़वा दो।
पुल - दाम कौन देगा।
बच्चे - पीछे वाला।
और इस प्रकार जो पीछे होता, पुल बना सदस्य उसे पकड़ लेता और पूछता किस तरफ रहोगे, हमारी या दूसरी तरफ। पकड़ा गया बाल सदस्य, नखरे दिखाता, और अपनी मर्जी के अनुसार पुल बने दो बालसदस्यों में से किसी एक का चुनाव कर लेता।
कितना पानी - गोपी चंदर।
अपने मुहल्ले में कई बच्चे ऐसे होते जो कई बाल सदस्यों के साथ मिलकर हाथों से जोड़ एक गोलाकर शृंखला बना लेता और गोल गोल घूमा करते। इस गोल- गोल घूमने के बीच एक बाल सदस्य होता, उससे पूछा करते, कहते - हरा समुंदर, गोपी चंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी।
बीच में पड़ा मछली बना, बाल सदस्य, पांव के पास हाथ लाकर, कहता, इतना पानी। इसी तरह गोलाकार घूमते बच्चे पूछा करते और मछली बना बाल सदस्य हाथों से इशारा करते हुए बताता, कि इतना पानी, वो भी तब तक, जब तक पानी सर से पार न कर जाये, यानी बिना पानी के ही खेल का मजा आ जाता।
खेल - खेल में पढ़ाई का भी मजा, कई बच्चे ले लिया करते। गणित तो इससे मजबूत जरुर हो जाता। खेल का नाम था - सीताराम चिल्होरियो।
इस खेल में दो दल होते। जिसमें बाल सद्स्यों की संख्या समान होती। दोनों दल विपरीत दिशा में जाते। एक निश्चित समय में छुपा कर, लाईन पारकर, संख्याओं को निर्देशित करते। जब समय पार कर जाता और जिस दल को लगता था कि वो संख्या में जीत सकता हैं वो सीताराम चिल्हौरियो बोल दिया करताष यानी काम खत्म। अब आप इससे अधिक नहीं लिख सकते। दोनों दल एक दूसरे के लाईन पारे हुए पंक्तियों को काटने का प्रयास करते। जो दल नहीं ढूंढ सका वो पंक्ति के आधार पर, काउंट कर विजेता बन जाता।
बारिश के दिनों में में तो मजे ही मजे थे। भगवान से विशेष प्रार्थना की जाती कि हे प्रभु। स्कुल की छुट्टी के समय, इतना पानी बरसे की, बस भींगते हुए, घर जाने का मौका मिले, पर भगवान प्रार्थना स्वीकार ही नहीं करते, लेकिन जिस दिन प्रार्थना स्वीकार करते। उस दिन भींगने का मजा जरुर लेते। इधर मां भी जैसे कोपमुद्रा में दरवाजे पर खड़ी मिलती, खूब डांट मिलती, कभी भुजदंड से पिटाई भी हो जाती। मां को शायद बीमारी का ज्यादा खतरा रहता, लेकिन बीमारी ऐसी की आती ही नहीं। पिटाई स्वीकार था, पर बारिश में न भींगना मंजूर नहीं। गर कभी बुखार लग गयी तो सेवा सुश्रुषा शुऱु। भगवान से प्रार्थना से लेकर मस्जिद की दुआओँ तक की दौड़ हो जाती। घर में सभी लोग, इतना भाव देते की, पूछिये मत, ऐसा लगता कि इस रोज के कच - कच से अच्छा है कि बीमारी की एक्टिंग ही, कर ली जाये।
इधर जब इन्द्र भगवान जब ज्यादा मेहरबान हो जाते, तो लीजिए, बच्चों के दल ने सोचा कि क्या उपाय किया जाय। बादलों को फाड़ने की व्यवस्था भी बच्चों पर रहती। सभी बच्चे मिल जाते। एक लंबी फट्टी या लोहे के डंडे का जूगार किया जाता और एक छोड़ पर कपड़ें की लूत्ती बनायी जाती, जिसमें मिट्टी का तेल डालकर, आग लगाया जाता। फिर एक एक घर जाकर, उस लुत्ती में तेल डलवाया जाता। सारे बच्चे, घर - घर जाते और कहते जाते -- बदरी के ..... में लुत्ती फुत्ती, करे गोसाईयां घामे घाम। पता नहीं क्या और कैसे। इंद्र भगवान को बच्चों की ये विनती सुनायी पड़ जाती और देखते देखते आकाश साफ हो जाता। फिर क्या बच्चे अपनी जीत पर फूंले नहीं समाते।
इसी प्रकार, जब बारिश के क्रम में धूप दिखायी पड़ जाता तो माना जाता कि जंगल में सियार की शादी हो रही हैं। हाथी को देख लेने पर तो सारे बच्चे उछल पड़ते और सभी के जूबां पर एक ही दोहा.....
आम के लकड़ी कराकरी, हथिया --- भराभरी।
आम के लकड़ी कादो में, हथिया .... भादो में।
ये कविता पता नहीं होठों पर कैसे आ जाते... आज तक समझ में नहीं आया। किसी को देख - कैसे अपने आप कविता और दोहे बनकर तैयार हो जाती, होठों पर शब्दों का जाल फैल जाता, कई बार समझने की कोशिश की पर समझ में नहीं आया, सोचता हूं कि गर अगली बार नयीं जिंदगी मिली तो मैं इस बचपन के अंश को खोना नहीं चाहूंगा।
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