भारत धर्मभूमि, कर्मभूमि व त्यागभूमि हैं। इस देश के सभी प्रांतों के एक प्रधान देवता हैं। जो इन प्रांतों में प्राचीन काल से पूजित व वंदित रहे हैं। यहीं उन क्षेत्रों के भरण पोषण से लेकर आध्यात्मिक सुख भी प्रदान करते हैं। जैसे -- झारखंड में बाबा वैद्यनाथ, बंगाल में माता काली की प्रधानता हैं, ठीक उसी प्रकार उत्कल प्रदेश यानी उड़ीसा प्रांत के प्रधान देवता भगवान जगन्नाथ हैं। शंख व श्रीक्षेत्र से जाना जानेवाला ये पुरी क्षेत्र में भगवान जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा व बड़े भाई बलभद्र के साथ विराजते हैं और जैसे ही आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया तिथि आती हैं वे विशेष रथों में आरुढ़ होकर आम जन को अभिलषित व मुक्ति प्रदान करने हेतु अपने गर्भ गृह से निकल पड़ते हैं। सामान्य बोलचाल की भाषा में आज भी लोग ये कहते नहीं भूलते ----------------उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले विराजो जी, भले विराजो जी साधो भले विराजो जी, उड़ीसा जगन्नाथ पुरी में भले विरोजो जी...........। इनकी महिमा जिसने भी गायी, वो धन्य हो गया। जो भगवान जगन्नाथ को मानते हैं, उनका मानना हैं कि भगवान जगन्नाथ राधा और कृष्ण की युगलमूर्ति हैं और इन्हीं से सारे जगत् की उत्पत्ति हुई। भगवान जगन्नाथ क्या नहीं हैं। वे तो सामान्य जन के देवता हैं। वे तो सामान्य जन के कल्याण के लिए गर्भगृह से बाहर निकलकर, सामान्य जन के दुख दर्द में शामिल होते हैं, यहीं नहीं स्वयं दर्शन देकर सरल सहज और सहृदय होने का सभी में भाव भी भरते हैं। शायद यहीं कारण हैं कि स्कंदपुराण तो साफ कहता हैं कि जो भी प्राणी भगवान जगन्नाथ के प्रति समर्पित हैं, या जो उनके नाम का सदैव संकीर्तन करते हैं या उनके रथों को खीचते हैं या जिस ओर उनकी रथयात्रा चल रही हैं, उसमें भाग लेते हैं या उनके दर्शन करते हैं, भगवान जगन्नाथ उनकी सारी कष्ट हर लेते हैं और उसे अंत में मोक्ष भी प्रदान कर देते हैं। भगवान जगन्नाथ की पुरी में निकलनेवाली रथयात्रा में तीन रथ प्रमुख होते हैं -- पहला रथ को तालध्वज रथ कहते हैं जिसमें बलभद्र, दूसरे रथ को पद्मध्वज कहते हैं, जिन पर बहन सुभद्रा और उसके पाद गरुड़ ध्वज होता हैं, जिस पर भगवान जगन्नाथ विराजते हैं। हालांकि कई प्रांतों में एक ही रथ पर सभी विराजते हैं और रथयात्रा का आनन्द लेते हुए लोग, भगवान के श्रीचरणों में स्वयं को समर्पित कर देते हैं। मूलतः रथयात्रा में भाव की ही प्रधानता हैं...........। ठीक उसी प्रकार जैसे कि गोस्वामी तुलसीदास, श्रीरामचरितमानस में कहते हैं कि जाकी रही भावना जैसी, प्रभू मूरति दीखै तिन तैसी। रथयात्रा की एक अद्भुत कथा हैं..........कहते हैं कि एक बार भगवान कृष्ण रुक्मिणी के साथ शयनगृह में शयन कर रहे थे तभी उनके मुख से राधे राधे के स्वर निकल पड़े। ये बात रुक्मिणी ने अन्य पटरानियों को सुनाया। रुक्मिणी ने यहां तक कह डाला कि प्रभु आज भी राधे को नहीं भूले हैं, वह भी तब, जबकि रुक्मिणी समेत कई पटरानियों ने प्रभु की खूब सेवा की। ये बात कि प्रभु के मुख से राधे - राधे क्यूं निकले। माता रोहिणी के पास सभी इस रहस्य को जानने पहुंची। इधर रोहिणी ने कथा सुनाना प्रारंभ किया पर कथा प्रारंभ करने के पहले सुभद्रा को पहरे पर लगा दिया गया कि सुभद्रा किसी को कथा पूर्ण होने के पूर्व आने न दे। इधर जब कथा प्रारंभ हुई तभी बलभद्र और कृष्ण उस स्थान पर आ गये। इधर माता रोहिणी रुक्मिणी समेत अन्य पटरानियों को भगवान कृष्ण के अद्भुत प्रेमलीलाओं और रहस्यों को सुनाना प्रारंभ किया। रोहिणी के उक्त कथासार को सुनते हुए भगवान कृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा इस प्रकार से भावविह्वल हो गये कि उनका शरीर दिखाई ही नहीं पड़ रहा था, यहां तक कि सुदर्शन चक्र की भी हालत वैसी ही हो गयी, पर जैसे ही उक्त समय नारद वहां पहुंचे, सभी पूर्वावस्था में आ गये। भगवान के इस अद्भुत रुप को केवल नारद ने देखा और उन्होंने इस सुंदर स्वरुप और छवि को अपने आंखों में बसा लिया। साथ ही ये सुंदर स्वरुप सभी के लिए सुलभ हो, उन्होंने भगवान से प्रार्थना की. भगवान ने नारद की ये बातें भी मान ली। तभी से भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बलभद्र पुरी में विराजकर सब को धन्य - धन्य कर रहे हैं और ये कथा युगों - युगों से चली आ रही हैं। यहीं कारण हैं कि इस रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा होती हैं, जो नगर परिभ्रमण करने के लिए निकलती हैं। रथयात्रा भारतीय संस्कृति की प्राण हैं। पूरे भारतवर्ष में आषाढ़ शुक्लपक्ष द्वितीया तिथि को रथयात्रा का आयोजन होता हैं, अब तो विदेशों में भी रथयात्रा खूब धूमधाम से मनायी जाने लगी हैं। खासकर अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ से जूड़े लोग इस रथयात्रा को भव्यता से मनाते हैं, इनकी रथयात्रा का विशेष आकर्षण भी होता हैं।
झारखंड की राजधानी रांची समेत सरायकेला - खरसावां में भी रथयात्रा धूमधाम से मनाया जाता हैं। खासकर रांची स्थित जगन्नाथपुर मंदिर की रथयात्रा का कुछ खास विशेष महत्व हैं। पिछले सवा तीन सौ सालों से विराज रहे भगवान जगन्नाथ और उनकी रथयात्रा के समय यहां का दृश्य देखनेलायक होता हैं। जब लाखों लोग इस मंदिर के चारों ओर इकट्ठे होकर जय जगन्नाथ बोल उठते हैं, और भावपूर्ण हृदय से भगवान जगन्नाथ की रथ को खीचकर मौसीबाड़ी लाते हैं। करीब दस दिनों तक यहां इस दौरान मेला भी चलता रहता हैं, जिसमें दैनिक जीवनोपयोगी सामग्रियां मिलती रहती हैं। सचमुच भगवान जगन्नाथ का जो भी हुआ, भगवान जगन्नाथ उसके हो गये। रांची के जगन्नाथपुर मंदिर के बारे में कहा जाता हैं कि आज से करीब सवा तीन सौ साल पहले यहां एक ठाकुर एनीनाथ शाहदेव राजा हुए, जिनके स्वपन में बार बार भगवान जगन्नाथ की छवि दिखाई दी। उन्होंने इस स्वपन को बार - बार देखे जाने पर यहां भगवान जगन्नाथ को स्थापित करने का निश्चय किया। फिर उन्होंने पुरी से भगवान जगन्नाथ के विग्रहों को लाकर यहां विधि विधान से स्थापित कराया और आज रांचीवासियों को खुशी हैं कि भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए उन्हें अब ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता, भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र यहां भी सुलभ हो गये और रथयात्रा की विधा यहां भी चल पड़ी। जय जगन्नाथ...........................
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