Monday, June 11, 2012

जो बिकते हैं, उन्हें ही खरीदा जाता हैं.............

जो बिकते हैं, उन्हें ही खरीदा जाता हैं, जो बिकते नहीं, उन्हें खरीदने की किसी की औकात नहीं। जब जनता बिकने पर आ जाये, तो समझ लीजिए -- देश व लोकतंत्र को बड़ा खतरा हैं और ऐसे देश को कोई भी किसी भी कीमत पर खरीद कर, उस देश और उस देश की जनता की औकात बता सकता हैं। कमाल हैं -- सत्तालोलुपता, स्वोपकार की भावना और घटियास्तर की मनोवृत्ति ने समाज और देश को इतना नीचे ले आया हैं कि चाह कर भी ये देश व समाज आगे निकल ही नहीं सकता। मैं उस समाज और घर में पैदा लिया हूं - जहां एक चावल को मींजकर, पता लगा लिया जाता हैं कि चावल पका अथवा या नहीं। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार हटिया विधानसभा का उपचुनाव हो रहा हैं और जिस कदर विभिन्न दलों के प्रत्याशियों ने पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं की यहां बोली लगायी हैं और इस बोली के अनुरुप, हटिया के मतदाता और कार्यकर्ता बिकते दीखे गये, रांची के पत्रकारों पर बिकने का तमगा लगा, उससे साफ पता चलता हैं कि यहां का परिणाम क्या आयेगा और इससे देश व लोकतंत्र को कितना खतरा उत्पन्न हो गया हैं।
फिलहाल जो सज्जनवृंद देश व समाज को नयी दिशा देना चाहते हैं और जिनका लोकतंत्र में विश्वास हैं, जो विधानसभा और लोकसभा का चुनाव सत्यनिष्ठा से लड़ना चाहते हैं, उनके लिए ये मतदाता रेट सूची नीचे दिया जा रहा हैं, कृपया देख लें, ताकि उन्हें पता लग जाये कि यहां चुनाव लड़ना एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए कितना मुश्किल सा हो गया हैं, और इसका श्रेय जाता हैं, उन धनाढ्यों को जिन्होंने चुनाव लड़कर, मतदान को भी बाजार बना दिया। बाजार क्या होता हैं, उसमें कैसे - कैसे लोग बिजनेस करते हैं, हमें लगता हैं कि ये बताने की जरुरत नहीं।
फिलहाल -- मतदाता रेट सूची पर ध्यान दें..................।
मतदाता रेट सूची
1. मतदाताओं के घर पर पर्चा या पोस्टल साटने का रेट.....100 रुपये।
2. मतदाताओं के घर पर झंडा लगाने का रेट..................200 रुपये।
3. मतदाताओं के घर के ओटे से नुक्कड़ सभा करने का रेट.300 रुपये।
4. मतदाताओं के घऱ के किसी सदस्य को कार्यकर्ता
नियुक्त करने का रेट.....................400 रुपये / प्रतिदिन। मुर्गा -मांस, चावल रोटी और शराब का प्रबंध प्रतिदिन करना होगा, अलग से।
5. मतदाताओं के घर के सभी सदस्यों के वोट प्राप्त करने का रेट... 1000 रुपये / प्रति मतदाता की दर से।
कमाल हैं, पूर्व में पत्रकारों पर पेड न्यूज को लेकर, संवाददाताओं और समाचार पत्रों पर आरोप लगते रहे थे, और ये आरोप सही भी हैं, पर जब मतदाताओं ने भी इस आर्थिक युग में अपनी रेट तय कर दी, तब तो लगता हैं कि इस देश का भगवान ही मालिक हैं।
ऐसा क्यूं हुआ, क्यूं हो रहा हैं। इसका भी मतदाताओं ने जवाब ढूंढ लिया हैं। वे साफ कहते हैं कि ये प्रत्याशी देश व समाज के लिए चुनाव तो लड़ नहीं रहे। ये लड़ रहे हैं, अपनी पत्नी, अपने बेटे- बेटियों और मित्रों के लिए तो ऐसे में भला हम इनसे देश व समाज के प्रति निष्ठा रखने का विश्वास इन पर क्यों करें। ये आज दिखाई पड़ रहे हैं तो चलो, इनसे जितना बन सकें, निकाल लो। भला कल क्या होगा, इसकी चिंता हम क्यों करें और ऐसे भी देश व समाज की चिंता सिर्फ हम गरीब क्यों करें, इन्हें क्यों नहीं करना चाहिए। देश पर खतरा हो तो बलिदान दें हमारे बेटे और मजे लूटे ये। गर दुख ही करना हैं तो सभी करेंगे और हम भी अपने हक का देश लूट रहे हैं, इसमें गलत क्या हैं।
बात भी ठीक हैं। जरा हटिया के स्कूलों में देखिये -- एनसीसी में किसका बच्चा हैं। सब उन्हीं का बच्चा हैं, जो मैला ढोते हैं, जिनका बाप गली मोहल्लों में टायर पंक्चर ठीक कर रहा होता हैं, जो सिलाई करके अपने परिवार को चला रहा होता हैं। जिसके परिवार का सदस्य या बेटा, उसके घर से कोसो दूर सीमा पर देश की रक्षा करने के लिए डटा हैं, जो रोज खेती मजदूरी करके पेट पालता हैं। क्या एनसीसी और देश की रक्षा करने के लिए इन्हीं गरीबों के बच्चे मिले हैं और संभ्रांतों - धनाढंयों के बच्चे एनसीसी में क्यों नहीं हैं या उनके बच्चे देश की सीमा पर क्यों नहीं दिखाई पड़ते। इसका जवाब तो न तो सरकार के पास हैं और न बुद्धिजीवियों के पास। अपने देश में जाति - वर्ग संघर्ष के नाम पर क्या हो रहा हैं। सभी जातियों में अमीर और गरीब की ऐसी खाई बन गयी हैं कि अमीर, गरीब को देख ही नहीं रहा तो भला चुनाव के माहौल में गरीब, अमीरों के चोचलेबाजी -- देश और समाज के बारे में क्यों सोचे। इसलिए उसने भी मतदाता रेट खोल लिये। इसमें गलत क्या हैं।
हमारे देश के महापुरुषों ने जो लोकतंत्र की कल्पना की थी। जिस देश का सपना संजोया था। वो क्या यहीं था क्या। जहां पर आज के नेताओं ने लाकर हमें छोड़ दिया हैं। आज जितने भी घोटाले हुए, उसकी जांच का परिणाम क्या हुआ। नतीजा सिफर। आजादी के बाद किसी भी घोटालेबाज नेताओं को न्यायालय द्वारा सजा मिली, उत्तर होगा नहीं, तो फिर हम गरीब ही देश की सेवा के लिए बने हैं क्या। जरा समाजवादियों की परिकल्पना देखिये -- एक अपने देश में पार्टी हैं - समाजवादी पार्टी। खूब राममनोहर लोहिया का नाम लेती हैं। जब आपातकाल की घोषणा हुई थी देश में। तो इस पार्टी के लोगों ने 1977 में नारा दिया था -- इंदिरा गांधी के खिलाफ कि वो चाहती हैं परिवार राज, हम चाहते हैं आम जनता की राज। जरा पूछो। उस समाजवादी पार्टी के मुलायम से कि तुम बताओ, तुम संसद में हो, बेटा को मुख्यमंत्री बना दिये हो, बहु को क्न्नोज से जीता कर सांसद बना दिया। ये कैसा समाजवाद हैं। उन कांग्रेसियों, भाजपाईयों और बसपाईयों से पूछो कि तुम्हारी क्या मजबूरी थी कि तुमने एक कैंडिडेट भी मुलायम के बहु के खिलाफ नहीं दिया। पर सवाल पूछने और जवाब देने का फूर्सत किसे हैं, सभी लूट रहे हैं, तो मतदाताओं ने भी करवट ली हैं कि हम भी क्यों नहीं अपना रेट तय करें। शायद ये रेट देश के सभी भागों में धीरे - धीरे अपना जलवा बिखेरेगा और सही मायनों में एक बार फिर परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़कर, अपनी पूर्व की श्रेणी में आ खड़ा होगा। ऐसे भी हमारे बाप दादाओं ने गुलामी देखी हैं, हमने गुलामी देखी ही नहीं, हमें भी तो गुलामी देखने का उतना ही अधिकार हैं। जब हमारे नेता व मतदाता दोनों लूटनेवाली स्थिति में आ जायेंगे तो फिर क्या होगा............। सबको मालूम हैं...................।

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