भाकपा माले का 9वां राष्ट्रीय महाधिवेशन रांची के जिला स्कूल में संपन्न हो गया। राष्ट्रीय महाधिवेशन रांची में होने से इस पार्टी को और नजदीक से देखने का मौका मिला। ऐसे तो इस पार्टी को जानने के लिए मुझे ज्यादा दिमाग लगाने की जरुरत भी नहीं, क्योंकि इस पार्टी के एकमात्र विधायक दिवंगत महेन्द्र प्रसाद सिंह के सत्चरित्र को मैंने नजदीक से देखा हैं, पता नहीं ऐसे - ऐसे सत्चरित्र और भ्रष्टाचार से आजीवन लड़नेवाले लोगों की हत्या क्यूं कर दी जाती हैं। देश के कोने कोने से आये माले के कार्यकर्ता और उसके नेता देश के अन्य दलों के नेताओं व कार्यकर्ताओं से अलग दीखे। माले का अधिवेशन 2 से 6 तक चलना था, फिर 7 को सांस्कृतिक कार्यक्रम और 8 अप्रैल के आमसभा से होकर उसे गुजरना था, पर रांची में हो रहे नगर निकाय चुनाव और 6-7 अप्रैल के माओवादियों को बिहार-झारखंड बंद का इस पर असर दिखा। आनन -फानन में पूरे कार्यक्रम 7 को ही समाप्त करना पड़ा। 7 अप्रैल को झारखंड के विधानसभा मैदान में आयोजित रैली से कार्यक्रम का समापन हुआ। बहुत समय से मेरे मन में ये उथल -पुथल हो रहा था कि क्या भाकपा माले भी वहीं हैं, जैसा कि अन्य दल हैं, पर जिस प्रकार से देश के कोने - कोने से माले कार्यकर्ता आये, जिस प्रकार इन्होने मर्यादाओं में रहकर, रांची की जनता का दिल जीता, वो सचमुच प्रशंसनीय हैं।
हमें अच्छी तरह मालूम हैं, जब माले के कार्यकर्ता ने हमें पार्टी मुख्यालय बुलाया, तब वहां उत्तरप्रदेश, बंगाल और बिहार से आये कलाकार, अपनी कूचियों से कलाकृति बनाकर रंग भर रहे थे, साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, नेताओं, कारपोरेट जगत और पत्रकारों की मिलीभगत से लूट रही जनता का चित्र उकेर रहे थे, उनके चित्र को देखकर ऐसा लगा कि गर मैं चित्रकार होता तो मैं भी इसी प्रकार का आज के परिप्रेक्ष्य में चित्र बना रहा होता, पर मैं चित्रकार तो हूं नहीं, पत्रकार हूं। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस देश को तथाकथित नेताओं, पत्रकारों और पूंजीपतियों ने अपने हित साधने के लिए, यहां की जनता को सूली पर लटकाने का मन बना लिया हैं, कई तो लटक लिये हैं, और कई लटकने को विवश हैं। ऐसे हालत में जनता को एक सूत्र में पिरोने और एकमात्र विकल्प जनसंघर्ष ही हैं, ये वर्तमान में ज्यादा आवश्यक हैं, पर माले के महाधिवेशन की शुरुआत में देश के सारे के सारे वामपंथियों की एकजूटता हमें खली, वो इसलिए क्योंकि मंच पर उपस्थित इन नेताओं और पार्टियों को देश की जनता देख चुकी हैं। उसके उदाहरण भी कई हैं, जिसे यहां देना जरुरी हैं। जरा बंगाल में शासन करनेवाली माकपा को देखिये, सिंगुर में इसके द्वारा किये गये कारनामे बताते हैं कि ये कारपोरेट जगत का कितना ख्याल रखती है। जब देश में अमरीका परस्त नीतियों को संसद से पास कराने की बात हो रही थी, जब देश के संसद में सरकार बचाने के लिए नोटों के बंडल रखे जा रहे थे, तब उस समय वामपंथी लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की क्या भूमिका थी, कैसे एक माकपा सांसद माकपा के विचारधाराओं की तिलांजलि दे, हज की यात्रा पर चला गया और कैसे मंच पर आसीन कई नेता जो अमरीका के खिलाफ खूब आग उगलते हैं, पर भारत को चारों तरफ से घेर रहा चीन, तिब्बत को निगलनेवाला चीन, भारत के जम्मूकश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के कई भूभागों को हड़प चुका चीन, उसे साम्राज्यवादी नहीं दिखाई देता। हमें लगता है कि कुछ चीजों को हटा दे तो ये माले का महाधिवेशन एक इतिहास बनाया हैं, पर कुछ ऐसी चीजें भी दे गया, जिससे एक बड़ा प्रश्न चिह्न भी रख गया हैं। आखिर जनता वामपंथियों पर क्यों विश्वास करें। अमरीकी सामान भारतीय बाजार में आये तो गलत और चीनी सामग्रियां भारतीय बाजार पर छा जाये, तो गलत नहीं। क्या ये वामपथी धाराएं देशहित में हैं। एक बात और महाधिवेशन के पहले दिन गदर आंदोलन के नेताओं व कार्यकर्ताओं को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, उस दौरान हिंदुत्व को कटघरे में रख दिया गया पर इस्लाम को छोड़ दिया, आखिर क्यों................। ये समझ से परे हैं। हालांकि इसकी जरुरत ही नही थी, बेवजह किसी को नीचा दिखाना, उसके प्रचार के सिवा और कुछ नहीं, और ये माले का महाधिवेशन जहां जिसकी जरुरत नहीं, उसे प्रचार दे गया................................।
हमें अच्छी तरह मालूम हैं, जब माले के कार्यकर्ता ने हमें पार्टी मुख्यालय बुलाया, तब वहां उत्तरप्रदेश, बंगाल और बिहार से आये कलाकार, अपनी कूचियों से कलाकृति बनाकर रंग भर रहे थे, साथ ही देश की अर्थव्यवस्था, नेताओं, कारपोरेट जगत और पत्रकारों की मिलीभगत से लूट रही जनता का चित्र उकेर रहे थे, उनके चित्र को देखकर ऐसा लगा कि गर मैं चित्रकार होता तो मैं भी इसी प्रकार का आज के परिप्रेक्ष्य में चित्र बना रहा होता, पर मैं चित्रकार तो हूं नहीं, पत्रकार हूं। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस देश को तथाकथित नेताओं, पत्रकारों और पूंजीपतियों ने अपने हित साधने के लिए, यहां की जनता को सूली पर लटकाने का मन बना लिया हैं, कई तो लटक लिये हैं, और कई लटकने को विवश हैं। ऐसे हालत में जनता को एक सूत्र में पिरोने और एकमात्र विकल्प जनसंघर्ष ही हैं, ये वर्तमान में ज्यादा आवश्यक हैं, पर माले के महाधिवेशन की शुरुआत में देश के सारे के सारे वामपंथियों की एकजूटता हमें खली, वो इसलिए क्योंकि मंच पर उपस्थित इन नेताओं और पार्टियों को देश की जनता देख चुकी हैं। उसके उदाहरण भी कई हैं, जिसे यहां देना जरुरी हैं। जरा बंगाल में शासन करनेवाली माकपा को देखिये, सिंगुर में इसके द्वारा किये गये कारनामे बताते हैं कि ये कारपोरेट जगत का कितना ख्याल रखती है। जब देश में अमरीका परस्त नीतियों को संसद से पास कराने की बात हो रही थी, जब देश के संसद में सरकार बचाने के लिए नोटों के बंडल रखे जा रहे थे, तब उस समय वामपंथी लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी की क्या भूमिका थी, कैसे एक माकपा सांसद माकपा के विचारधाराओं की तिलांजलि दे, हज की यात्रा पर चला गया और कैसे मंच पर आसीन कई नेता जो अमरीका के खिलाफ खूब आग उगलते हैं, पर भारत को चारों तरफ से घेर रहा चीन, तिब्बत को निगलनेवाला चीन, भारत के जम्मूकश्मीर और अरुणाचल प्रदेश के कई भूभागों को हड़प चुका चीन, उसे साम्राज्यवादी नहीं दिखाई देता। हमें लगता है कि कुछ चीजों को हटा दे तो ये माले का महाधिवेशन एक इतिहास बनाया हैं, पर कुछ ऐसी चीजें भी दे गया, जिससे एक बड़ा प्रश्न चिह्न भी रख गया हैं। आखिर जनता वामपंथियों पर क्यों विश्वास करें। अमरीकी सामान भारतीय बाजार में आये तो गलत और चीनी सामग्रियां भारतीय बाजार पर छा जाये, तो गलत नहीं। क्या ये वामपथी धाराएं देशहित में हैं। एक बात और महाधिवेशन के पहले दिन गदर आंदोलन के नेताओं व कार्यकर्ताओं को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, उस दौरान हिंदुत्व को कटघरे में रख दिया गया पर इस्लाम को छोड़ दिया, आखिर क्यों................। ये समझ से परे हैं। हालांकि इसकी जरुरत ही नही थी, बेवजह किसी को नीचा दिखाना, उसके प्रचार के सिवा और कुछ नहीं, और ये माले का महाधिवेशन जहां जिसकी जरुरत नहीं, उसे प्रचार दे गया................................।
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