हां भाई, नाच न जाने आंगन टेढ़ा......................
रांची से एक प्रकाशित अखबार ने लोगों से राय मांगी कि आखिर राज्य में स्थायी सरकार नहीं बन पा रही , इसके कारण क्या हैं। इस मुद्दे पर बुद्धिजीवियों को कई भागों में बांटा - आदिवासी बुद्धिजीवी, दलित बुद्धिजीवी, सामान्य बुद्धिजीवी और पता नहीं क्या - क्या। अरे बुद्धिजीवी तो बुद्धिजीवी होते हैं। इसमें भी ठेला - ठेली चल रही हैं। सभी ने एक स्वर से कहा कि यहां चूंकि सीटें बहुत ही कम हैं, इसलिए विधानसभा में बहुमत किसी एक दल को नहीं मिल पाती, गर इसकी संख्या 150 - 160 के आस पास हो जाये तो यहां स्थिति सुधर जायेगी, पर इसकी गारंटी क्या हैं, इसकी गारंटी कौन देगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं। सच्चाई ये हैं कि जहां 150 - 160 से भी अधिक सीटे हैं, वहां भी लोकतंत्र में इसकी गारंटी नहीं होता कि वहां किसी एक दल को बहुमत मिल ही जायेगा। बहुमत मिलना या न मिलना, ये कई कारणों पर निर्भर करता हैं। क्या ये बुद्धिजीवी बता सकते हैं कि दिल्ली प्रदेश में तो विधानसभा की कुल सीटे, झारखंड से भी कम हैं, तो वहां किसी एक दल को बहुमत कैसे मिल जाता है। हम आपको बता दें कि दिल्ली में विधानसभा की कुल सीटे 70 है। यहीं नहीं हिमाचल प्रदेश में तो विधानसभा की कुल सीटे, दिल्ली से भी कम यानी 68 हैं तो वहां किसी पार्टी को बहुमत कैसे मिल जाती हैं। इस सवाल का उत्तर यहां के बुद्धिजीवियों के पास नहीं हैं।
मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि यहां किसी एक दल को बहुमत क्यों नहीं मिल पाता। यहां किसी एक दल को इसलिए बहुमत नहीं मिल पाता, क्योंकि सारी पार्टियां, यहां की जनता का विश्वास खो चुकी हैं। किसी ने अपने कीर्तियों से जनता का विश्वास जीतने की कोशिश नहीं की। नतीजा सामने हैं। हम सबसे पहले बात करें - राष्ट्रीय पार्टियों का। राष्ट्रीय पार्टियों में भाजपा और कांग्रेस प्रमुख हैं। जरा बता सकते है कि इन पार्टियों के राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चरित्र क्या हैं। इनके स्थानीय नेताओं ने कौन सा चरित्र दिखाया हैं, जिसके कारण जनता इनको अपना आदर्श माने। सभी ने स्व से अधिक किसी पर ध्यान ही नहीं दिया तो भला जनता, इन्हें वोट क्यूं दे। रही बात क्षेत्रीय पार्टियों की। तो लीजिये सबसे पहले बात झामुमो की। ये वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा हैं जिसके सांसद घूस लेकर नरसिंहा राव सरकार को बचाने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। ये वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा हैं, जिसके सुप्रीमो कभी - कभी झारखंडियों और बाहरियों के बीच ऐसे - ऐसे बयान दे देते हैं, कि यहां की जनता, इन्हें वोट दे या न दे, इसी उधेड़बून में पड़ी रहती हैं। आज भी बिहारियों और झारखंडियों में भेदभाव को बढ़ावा देने में ये पार्टियां सर्वाधिक भूमिका निभाती हैं, जबकि मध्यप्रदेश से अलग हुआ छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से अलग हुआ उत्तराखंड में इस प्रकार का भेदभाव राजनीतिज्ञ नहीं पैदा करते। वहां स्थानीय मुद्दा का हल निकाल लिया गया, पर यहां अभी भी जारी हैं। आज भी झामुमो जैसी पार्टियों में परिवारवाद सर्वाधिक प्रमुख मुद्दा होता हैं। कहलाते हैं गुरुजी, पर अपने बेटे - बहुओं और पत्नी से उपर ही नहीं उठ पाये। जहां ऐसे लोग रहेंगे, वहां किसी दल को बहुमत मिलता हैं क्या। वहां तो वहीं होता हैं, जो फिलहाल यहां दीख रहा। अपना चरित्र नहीं सुधारते और सीटों को बढ़ाने की बात करते हैं। अरे झारखंड विधानसभा की कुल सीटे कितना भी बढ़ा लो, गर चरित्र ही नहीं हैं, तो फिर सुधार कहां से होगा, ये तो वहीं बात हुई, नाच न जाने अंगना टेढ़ा..........
रही बात भ्रष्टाचार की, तो यहां सारे के सारे पार्टियों ने भ्रष्टाचार का रिकार्ड बनाने में एक दूसरे को पछाड़ने की कोशिश की। किस पार्टी की बात करें, सभी ने अपना नंगापन दिखाया हैं। सीबीआई की रिकार्ड, उसका गवाह हैं।अरे हद तो तब हो गयी, जब थैला भरकर नोट लेकर दूसरे जगहों से धन्ना सेठ आते हैं और यहां के विधायक लाइन लगाकर, अपना वोट बेचते हैं और राज्यसभा में ऐसे - ऐसे लोगों को जीताकर भेज देते हैं कि वो जीतने के बाद, झारखंड में आना तक नहीं पसंद करता और बाद में अपना दल भी बदल लेता हैं, तो भाई जहां ऐसे - ऐसे निर्लज्ज रहते हो, वहां किसी दल को बहुमत कैसे मिलेगा। ये बात आपके समझ में क्यों नहीं आती, महाशय।
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