Monday, December 30, 2013

हे रामचंद्र कह गये सिया से.............

21वीं सदीं चल रही हैं। माना जाता हैं कि 21वीं सदी भारत की हैं। इस सदी में भारत अपने शीर्ष पर होगा। कभी – कभी अच्छी खबरें अखबारों में पढ़ता हूं अथवा टीवी चैनलों के माध्यम से सुनता हूं तो लगता हैं कि सचमुच देश उसी ओर बढ़ रहा हैं, पर जब कभी ऐसी खबरों पर नजर जाती हैं, जिससे देश रसातल में जा रहा होता हैं तो हमें ही क्या, कई भारतीयों को निराशा हाथ लगती हैं कि क्या ऐसे में भारत आगे बढ़ेगा, या यूं ही ख्बाब, ख्बाब ही रह जायेंगे। इन दिनों भारतीय चैनलों और अखबारों में एक से एक बाबाओं और संतों की पोल खुल रही हैं। ऐसे लोगों की पोल खुलनी भी चाहिए। ताकि पता चल सकें कि इन ढोंगियों ने देश का कितना नुकसान किया हैं और वे अपनी लीलाओं से देश को किस प्रकार गर्त में ले जा रहे हैं, पर क्या इसका असर भारत की सामान्य जनता पर पड़ता हैं, या फिर वे वहीं करते हैं, जो उन्हें करना होता हैं। झूठी मन की शांति के लिए, वे ढोंगियों के आगे सर झूकाते हैं और स्वयं के साथ – साथ देश को भी गर्त में ले जाते हैं। हाल ही में एक फिल्म आयी ओह माई गॉड हमें लगा कि इस फिल्म का असर दीखेगा, पर फिल्म आयी और चली गयी। जैसे एक सामान्य बच्चा, स्कूल शिक्षक या अपने से बड़ों की अच्छी बातों को एक कान से सुनता है और दुसरी कान से निकाल देता हैं, वहीं बात यहां आमजन के साथ देखने को मिली। इस फिल्म में सभी धर्माचार्यों और पांखंडियों की पोल खोलकर रख दी गयी थी, चाहे वे किसी भी धर्म के क्यूं न हो, पर मजाल हैं कि हमारे देश के लोगों के कानों पर जूं रेंगी हो। शायद हमारे देश के लोगों के उपर सन् 1970 में बनी फिल्म गोपी का वो सुपरहिट गीत कुछ ज्यादा ही सर चढ़ कर बोल रहा हैं, जिसमें दिलीप कुमार पर्दे पर गा रहे होते हैं। गीत के बोल थे..................
सुनो सिया, कलयुग में काला धन और काले मन होंगे, काले मन होंगे।
चोर, उचक्के नगर सेठ और प्रभु भ्रक्त निर्धन होंगे, निर्धन होंगे।
जो होगा, लोभी और भोगी – 2
वो जोगी कहलायेगा
हंस चुगेगा, दाना तुनका, कौवा मोती खायेगा,
हे रामचंद्र कह गये सिया से...................
अगर इस गीत को ध्यान पूर्वक देखे तो साफ पता चलेगा कि इस गीत के एक – एक बोल आज सही हो रहे है। तथाकथित संतों की हरकते तो साफ बता रही हैं कि वे इस गीत को अक्षरशः सिद्ध करने में ऐड़ी चोटी एक किये हुए हैं। कौन तथाकथित संत कितना धन इक्टठा कर रहा हैं, इसकी अँधी दौड़ चल रही हैं, वे एक दूसरे को पटखनी देने में लगे हैं और यहां की जनता, अँधभक्ति और झूठी सुख शांति के लिए, इनके धनलोलुपता को और बढा रही हैं। कोई तथाकथित संत कृपा लूटा रहा हैं, तो कोई सपने में सोना का खान ढूंढ रहा हैं तो कोई स्वयं गुरु बन कर अपने चेलों को ये कह रहा हैं कि हमारे लिए तुम धरना प्रदर्शन करों ताकि हम जेल से छूट जाये, कोई व्यभिचार में फंस रहा हैं तो कोई मुक्तकंठ से अपने व्यापार को आगे बढ़ाने में लगा हैं। भला संतों का यहीं काम हैं क्या।
तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस को देखिए, अरण्यकांड में श्रीराम और नारद संवाद हैं। जिसमें नारदजी को श्रीराम कहते हैं कि संतो के लक्षण क्या हैं, कैसे आप संत को पहचानेंगे, संत की परिभाषा क्या हैं, किस प्रकार का संत उन्हें अत्यधिक प्रिय हैं, इस मर्म को तुलसीदास ने बड़े ही सरल चौपाई में लिख डाला हैं, बस थोड़ा सा दिमाग लगाईये, आपको भावार्थ समझने में देर नहीं लगेगी, साथ ही अपने मन में सोचिये कि क्या इनमें से एक भी भाव अथवा लक्षण भारत के इन तथाकथित संतों में दिखाई पड़ते हैं।
षट विकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा।।
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी।।
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना।।
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुं देह न गेह।।
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती।।
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा।।
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहि कुमारग पाऊ।।
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला।।
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।।
जो आजकल टीवी चैनलों पर हर सुबह शाम दीख जाते हैं, या जिनको लेकर हाय तौबा मचायी जा रही हैं, या जिन संतों ने बेड़ागर्क कर रखा हैं, इनमें से ज्यादा संत तो टीवी ब्रांड हैं, जिन्हें समय समय पर टीवी चैनलों ने इन्हें अपने फायदे के लिए जनता के समक्ष रखा हैं, और बाद में जब इन तथाकथित संतों की निकल पड़ी तो इन्होंने टीवी चैनलों को आंख दिखाना शुरु कर दिया, और फिर जब बात बन गयी तो लीजिए, कुछेक संत फिर से टीवी पर दिखाई पड़ने लगे, जिनकी कभी चैनलों ने खिचाई की थी। गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड का एक प्रसंग। हनुमान सीता की खोज में लंका पहुंच गये। अचानक उन्हें एक घर से राम – राम की संकीर्तन सुनाई पड़ती हैं। वे आश्चर्य में पड़ते हैं कि लंका में तो निशिचर रहते हैं, यहां सज्जनों का निवास कैसे। पता लगाने के लिए, हनुमान अपना वेष बदलते हैं। पता लगता हैं कि ये तो राम भक्त विभीषण का निवास स्थान हैं। जैसे ही विभीषण की रामभक्ति देखते हैं। हनुमान अपने मूलस्वरुप में आ जाते हैं और अचानक विभीषण जी के मुख से ये बाते निकल पड़ती हैं कि
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहि नहिं संता।।
हे हनुमान जी अब हमें पक्का भरोसा हो गया कि बिना ईश्वरीय कृपा के संत नहीं मिलते। आज हमारे उपर ईश्वरीय कृपा हो गयी। अब जरा बताईये। हनुमान जी की तुलना, बिभीषण संत से कर रहे हैं। क्या हनुमान जी के संत होने पर किसी को संदेह हो सकता हैं। उत्तर होगा – कदापि नहीं। क्योंकि संतों के सारे गुण, सारे लक्षण हनुमानजी में भरें पड़े हैं। संत कैसा होना चाहिए, इसका सुंदर उदाहरण तो हनुमान जी हैं, पर आज के संतों को देख लीजिए। उनमें हनुमानजी का एक भी गुण अथवा लक्षण दिखाई देता हैं, नहीं तो फिर इस प्रकार की नौटंकी क्यों। हमारे यहां संतों की एक परंपरा रही हैं। विशाल परंपरा। न धन की लालच और न पद की महत्वाकांक्षा। सभी का कल्याण हो, एकमात्र यहीं भाव। उठा लीजिये, गुरुनानक, रविदास, समर्थगुरुरामदास, मीराबाई, सुरदास, रसखान, ज्ञानेश्वर जैसे सैकड़ों, हजारों संतों को। इन संतों ने अपने जीवनकाल में अपने लिए क्या किया और समाज के लिए क्या किया। हम ज्यादा दूर नहीं जाना चाहते। एक सवाल पूछना चाहता हूं। देश में एक राजनीतिक संत हुए – महात्मा गांधी। मोहनदास से महात्मा कैसे हो गये। अपने लिए उन्होंने कितने घर बनाये अथवा स्वयं को महिमामंडित करने के लिए कितने आश्रम खोले। उत्तर होगा – नहीं। तो फिर एक छोटी सी बात लोगों के दिलों में क्यूं नहीं समझ आती।
भारत का ध्येयवाक्य हैं –
सत्यमेव जयते।
भारत का प्राण बसता हैं –
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुख भागभवेत।।
हमें नही लगता कि इससे अधिक की जानकारी की आवश्यकता हैं। संत चरित्र निर्माण करता हैं। संत व्यक्तित्व निर्माण करता हैं। संत समाज व देश का निर्माण करता हैं। संत समस्याओं का समाधान कर देता हैं। संत खुद ही समस्या नही बन जाता, जो संत समस्या बन जाये, वो खुद एक भयानक रोग के समान हो जाता हैं, जिससे देश और समाज को नुकसान के सिवा कुछ नहीं मिलता। फिलहाल मेरे देश में कुछ संतों को छोड़ दिया जाय तो ज्यादातर इस देश में ऐसे तथाकथित संत हो गये, जो चैनलों व कुछ अखबारों की आड़ में स्वहित देखते हुए, देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं। पर वे भूले नहीं, कि अंततः सत्य की विजय होती हैं, वे कितना भी धूर्त क्यों न बन जाये। देश उन्हें अपने ढंग से सजा अवश्य दे देगा।

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