Friday, October 22, 2010

एक कौआ था...!


जब मैं दूसरी कक्षा में था – तब एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी। एक कौआ था। उसे मोर का एक पंख मिला। उसने उस पंख को अपने पूंछ में लगा लिया और ये कहकर इठलाने लगा कि वो अब मोर है। फिर क्या था – वो मोर के झूंड में पहुंचकर मोर जैसी हरकतें करने लगा और कहने लगा कि वो भी मोर है, मोर है। तब उन मोर के झूंडों में से एक मोर बोला कि कही मोर के पंख लगा लेने से कोई मोर हो जाता हैं क्या। तुम तो कौए हो और कौए ही रहोगे, इस प्रकार उस मोर के पंख लगाये कौए की, उस झुंड में हंसाई होने लगी। अपनी हंसाई होता देख, वह कौआ फिर कौए की झूंड में गया. तभी सारे कौए ने कहा कि तुम कौए कैसे हो सकते हो, तुम तो मोर का पंख लगा लिये हो, तुम तो मोर हो, और फिर उसे कौए के झूंड में भी हंसी का पात्र बनना पड़ा। अपनी इस प्रकार की हंसाई होता देख और दोनों जगहों पर अपमान का बोध होता देख, वह कौआ अंत में स्वयं अपने पूंछ से मोर का पंख निकाल फेंका और कांव कांव करने लगा। कहने लगा कि वो कौआ हैं – कांव कांव कांव कांव...............................। ये बचपन में पढ़ी हुई छोटी सी कहानी सीख देती हैं कि हम क्या हैं, इसका हमेशा भान रहना चाहिए, नहीं तो हम हर जगह हंसी के पात्र बनेंगे और कहीं के नहीं रह पायेंगे। आज जो देश और देश के नागरिकों की स्थिति हैं, ठीक उस कौवे की तरह है जो अपने पूंछ में मोर का पंख लगाकर ये भान कर बैठा हैं कि वो मोर हैं, जबकि सच्चाई कुछ और ही है।
भारत कभी भी भोगवादी संस्कृति में नहीं रहा, पर आजकल यहां के लोग पश्चिमी सभ्यता का इस प्रकार अनुकरण करने लगे है कि अब तो इनके आगे पश्चिम भी फेल होता जा रहा है। जो भारतीय आध्यात्मिक संत हैं – वे भी धन लोलुपता और कामलोलुपता में इस प्रकार से लिप्त होते जा रहे हैं कि इन्हें देख कर लगता ही नहीं कि ये उस देश के आध्यात्मिक संत हैं, जहां नानक, तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, रविदास, शंकराचार्य आदि जैसे महान संत पैदा लिये थे और जिन्होंने अपने सुकर्मों से देश और समाज को नयी दिशा दी थी। यहीं हाल आज के साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की है, जो सिर्फ और सिर्फ पैसों के लिए साहित्य सृजन और झूठी एनजीओ चलाकर स्वयं को समाजसेवी बता कर ये सामाजिक कार्यकर्ता देश और समाज को ठगने का काम कर रहे है। राजनीतिज्ञों की तो बात ही निराली हैं, ये कभी गांधी, जयप्रकाश आदि बनेंगे, ये तो इन्हें देखकर लगता ही नहीं क्योंकि ये पैसों के आगे अपने शरीर को इतना झूका लिये हैं कि इनकी शरीर को ठीक करने की कोशिश हुई तो केवल कोशिश मात्र सुनते ही, ये बिलबिलाकर दम तोड़ देंगे।
पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां जीवन का आदर्श सुनिश्चित कर दिया गया है, जबकि अन्य देशों में ऐसा है ही नहीं। और देशों में सिर्फ भोगवादी संस्कृतियां ही हैं, यानी जन्म ले लिया, और पशुओं की तरह, खाओ पियो, ऐश करो मौज करो और मर जाओ। पर अपने देश में जीवन का आदर्श – परमेश्वर का धाम बताया गया है। यहां तो कहां गया हैं कि जीवेद शरदः शतम्। यानी सौ वर्ष तक जियो, कैसे जियो, उसकी भी विवेचना की गयी है। यानी सौ को चार भागों में बांटो। पच्चीस वर्ष – ब्रह्चर्य पालन यानी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग, छब्बीस से पचास वर्ष – प्रकृति द्वारा दी गयी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का पान। इक्यावन से पचहतर वर्ष – जिन सुख सुविधाओं का आपने पान किया, अब उसका धीरे धीरे परित्याग करने की कोशिश, तथा आनेवाले पीढ़ियों के लिए कुछ करने की कोशिश, और छिहतर से सौ वर्ष – पूर्णतः प्रत्येक वस्तुओं का त्याग और निरंतर भगवद् भक्ति। कुछ तो कहते है कि कौन जानता हैं कि जीवन कब खत्म हो जाये, इसलिए निरंतर प्रभु से ये कामना कि वो उस पर कृपा बनाये रखे और हमेशा एक अच्छा काम स्वयं द्वारा कराता चला जाये ताकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाये, पर आज के भारत को देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि समाज के विभिन्न वर्गों का कोई भी व्यक्ति ये भाव रखकर अपना जीवन शुरु कर रहा हैं और खत्म कर रहा हैं।
इधर आज के अखबारों को देखकर, गजब निराशा हुई हैं कोई बाबा रामदेव हैं, जो योग सीखाते हैं, चूर्ण चटनी का अच्छा कारोबार भी उन्होंने फैलाया हैं, काफी नाम भी कमाया है और अब वे राजनीतिक दुकान खोलने की भी सोच रहे हैं, उन्हें लगता है कि योग और चूर्ण चटनी के कारोबार से राजनीतिक दुकान का कारोबार कुछ ज्यादा ही मनोहारी और सर्वस्व सुख प्राप्त करने का अमोघ अस्त्र हैं। गर ऐसा होता हैं तो ये देश के पहले स्वयंभू संत होंगे जो देश के पूर्व के संतों को त्याग की मूल भावना और धर्म को मटियामेट करेंगे, ऐसे भी कलयुग चल रहा हैं, यहां तो अब वो सब होगा, जिसकी परिकल्पना किसी ने नही की। क्योंकि अब तो धर्म की भी व्याख्या, लोग अपने अपने ढंग से करने लगे हैं, यानी जितने लोग, उतने धर्म, जबकि धर्म क्या हैं, रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदासजी साफ कह देते है...

"दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण"


कमाल की बात हैं, भारत में सभी आदर्शवादिता को छोड़, येन केन प्रकारेन पैसे कमाने के लिए, लंपट विद्या की ओर आकर्षित हो रहे हैं, और वे सब कर रहे हैं, जिसकी आशा तक नहीं की जानी चाहिए, फिर भी हमे आशा हैं कि 21 वीं सदी हमारा हैं, एक दिन ऐसा होगा कि सभी भारतीय रंग में रगेंगे और भारतीय संस्कृति को अपनाकर, इस मूल मंत्र को साकार करेंगे, जो भारतीय वांगमय में और इसकी हवाओं में सदियों से गूंज रहा हैं...

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्रानि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत्।।

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