ये उन दिनों की बात है। जब मैं ईटीवी में अपनी सेवा दे रहा था। उन्हीं दिनों ईटीवी मुख्यालय हैदराबाद में हर तीन - तीन महीने पर ईटीवी के मालिक रामोजी राव स्वयं बैठकें लिया करते थे। समय - समय पर कुछ लोगों को उस बैठक में आमंत्रित भी किया जाता था। संयोग से उन दिनों, मैं तीन - चार बैठकों में भाग लिया था। इन्हीं बैठकों में भाग लेने के दौरान, मैंने फलकनुमा एक्सप्रेस में कुछ दृश्य देखे, जो आज भी हमें रोमांचित करते हैं। कभी - कभी तो मेरी जुबां से, उन दृश्यों को याद कर, ये शब्द अनायास निकल पड़ते हैं कि लोग प्यार को क्या समझते हैं। शारीरिक भूख अथवा त्याग की पराकाष्ठा।
आज फिर वो दृश्य याद आये हैं। मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं और उन्हें शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रहा हूं। मैं, अपने मित्रों के साथ हैदराबाद से रांची के लिए लौट रहा था। सिकन्दराबाद के आठ नंबर प्लेटफार्म पर, फलकनुमा एक्सप्रेस लगी थी। मैं उक्त ट्रेन में यथोचित बर्थ पर जाकर विश्राम की मुद्रा में आ गया। ट्रेन चल पड़ी थी। मुझे इस ट्रेन को खड़गपुर में छोड़कर, खड़गपुर से ही रांची के लिए हावड़ा हटिया एक्सप्रेस पकड़ना था। बच्चों की याद आ रही थी। साथ ही पत्रकारिता जगत में मनुष्य के रुप में छुपे पशु भी धीरे धीरे एक - एक कर हमारे हृदय में अवतरित हो रहे थे। कैसे लोग, अपनी घटियास्तर की मनोवृत्ति को, अक्षरशः सिद्ध करने के लिए, नाना प्रकार का कुकर्म करते हैं। वह भी देखकर, मैं अचंभित था। कुछ लोग इस प्रकार के बारे में, हमसे कह चुके थे -- जनाब यहीं दुनियादारी हैं। मैं दुनियादारी, शायद समझ रहा था। इसी दुनियादारी के क्रम में रांची, डालटनगंज और धनबाद की परिक्रमा कर चुका था, पर मैं अपने परिवार के द्वारा मिले संस्कार की बात कहूं या 32 वर्षों तक उन संस्कारित व्यक्तियों की मिली श्रृंखला कहूं, जिससे हमें यहीं प्राप्त हुआ कि गंगा बहती रहती हैं, कुछ लोग उससे आचमन करते हैं और कुछ लोग उसी में गंदगी बहाते हैं, पर गंगा तो गंगा हैं, उसे इससे क्या मतलब की, उसके जल से कौन क्या करता हैं, वो तो सदैंव पहले भी बहा करती थी, आज भी बहती हैं और कल भी बहेगी। लेकिन अब तो चिंता होती हैं कि गंगा अब कैसे बहेगी, कई ने इसकी धारा को रोकने का वो प्रयास शुरु किया हैं कि अब गंगा के भविष्य को भी खतरा उत्पन्न हो गया हैं, फिर भी इन सब बातों से दूर, आज गंगा बह रही हैं। यहीं हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
बात कर रहा हूं, अनोखे प्यार की, कही विषय से विषयांतर न हो जाउं, इसका मुझे डर बराबर लगा रहता हैं, फिर भी, अब मैं उस प्लाट पर आता हूं, जो हमारे विषय का महत्वपूर्ण बिंदु है। फलकनुमा एक्सप्रेस अपनी तेजी से बढ़ी जा रही थी। रात कब बीती, पता ही न चला। देखते देखते ट्रेन सुबह के वक्त श्रीकाकुलम को पार करते हुए, उड़ीसा प्रांत में प्रवेश कर चुकी थी। अचानक मैंने देखा कि जिस डिब्बे में हम थे। उस डिब्बे में ब्रह्मपुर स्टेशन के पास एक वृद्ध जिनकी उम्र 85 की होगी, दयनीय अवस्था में, अपनी 77 -78 वर्षीया वृद्ध पत्नी के साथ जैसे - तैसे ट्रेन में सवार हुए। ट्रेन में सवार टीटीई ने उन्हें नीचे उतारने की असफल कोशिश की, पर वृद्ध और वृद्धा की कातर आंखों ने, उक्त टीटीर्ई पर ऐसा करने से रोक लगा चुकी थी। उधर वृद्ध ने वृद्धा को एक ओर बिठाया, थोड़ी राहत की सांस ली। राहत की सांस लेने के बाद, उक्त गर्मी में, वृद्धा की प्यास कैसे बुझे, वृद्ध ने ट्रेन में ही बिखड़े प्लास्टिक के बोतलों का सहारा लिया और उसमें पड़े पानी से वृद्धा की प्यास बुझायी। प्यास बुझाने के बाद, वृद्धा को कुछ सांकेतिक भाषाओं में समझाते हुए, उसने हर डिब्बे की चक्कर लगानी शुरु कर दी। इधर मैं अपने बर्थ पर जाकर, आराम करना शुरु किया, तभी अचानक, मुझे नीचे से कुछ सरकने की आवाज आयी। नीचे देखने पर, हमने देखा कि उक्त वृद्ध कुछ खोज रहा था। हमें अधिक दिमाग लगाने की जरुरत ही नहीं पड़ी। उसके एक हाथ में प्लास्टिक के बैग में पड़े भोजन के अवशेष बताने के लिए काफी थे कि वह रेलयात्रियों के खाये हुए भोजन से बचे जूठन से कुछ अपने लिए और अपनी पत्नी के लिए भोजन की तलाश कर रहा था। देखते - देखते, वह बहुत कुछ अपने लिए निकाल चुका था। फिर उसने अपनी पत्नी के पास जल्दी पहुंचना जरुरी समझा। इधर ट्रेन भुवनेश्वर के आस - पास आ चुकी थी। मैं थोड़ा अपनी बॉडी को सीधा करने के लिए, डिब्बे के दरवाजे तक पहुंचा।
डिब्बे के दरवाजे पर जो हमने दृश्य देखा, वो चौकानेवाले थे। वृद्धा गर्मी से बेहाल थी। संभव हैं, उसे बुखार भी होगा, क्योंकि जो उसके चेहरे थे, वो बहुत कुछ कह रहे थे। अचानक प्लास्टिक के थैले से वृद्ध ने भोजन के जूठन से एक टूटा फूटा अंडा निकाला और अपनी वृद्ध पत्नी को खाने को दिया। वृद्ध पत्नी ने उसे खाने से मना कर दिया। उसने ( वृद्ध पत्नी ने ) कहा कि पहले तुम ( वृद्ध ) खाओ। वृद्ध ने कहा कि तुम ( वृद्ध पत्नी ) बीमार हो, तुम इसे खाओगी तो तुम्हें ताकत होगा, और जल्दी ठीक हो जाओगी। इधर वृद्ध पत्नी ने कहा कि नहीं ये अंडा हैं, इसमें बहुत ताकत होता हैं, तुम ( वृद्ध ) खाओगे, तो तुम्हें ताकत होगी, फिर तुम ( वृद्ध ) जब स्वस्थ होगे, तो तुम ( वृद्ध ) देखभाल हमारी ( वृद्ध पत्नी को )अच्छी तरह कर सकोगे, नहीं तो हमारी देखभाल कौन करेगा। इसी प्रेमालाप वाली तकरार में समय बीत रहा था, पर न तो वृद्ध और न वृद्ध की पत्नी ही खाने को तैयार थे, अंत में दोनों ने निश्चय किया कि दोंनो आधी - आधी खायेंगे ताकि किसी को किसी के प्रति हीनभावना न आये और दोनों ने ऐसा ही किया।
ऐसी अवस्था जहां पर कोई किसी को पूछने को तैयार नहीं, वहां ऐसी सोच, रेल में यात्रा करते समय हमें एक संदेश दे गया। प्रेम का मतलब क्या - स्वार्थ या त्याग। गर स्वार्थ है तो वहां प्रेम रह कैसे सकता हैं। जहां त्याग होता हैं वहीं तो प्रेम हैं। सचमुच फलकनुमा एक्सप्रेस की वो प्रेमगाथा, हमें आज भी याद आती हैं और मैं बेचैन हो उठता हूं। एक सवाल ये भी अपने आप से पूछता हूं कि दुनिया में कितने लोग हैं जो अपनी पत्नी को इस प्रकार से प्रेम करते हैं या पत्नियां अपने पति के प्रति इतना सुंदर भाव रखती हैं।