19 सितम्बर को रांची से प्रकाशित दैनिक भास्कर ने प्रथम पृष्ठ पर विभिन्न
शीर्षकों से कई खबरें छापी। खबर थी – ये है पुलिस की विश्वकर्मा पूजा,
डांसरों संग ठुमके लगाए, नोट उड़ाए, वर्दी का मान भी नहीं रखा, वीडियो
देखने के लिए यहां क्लिक करें – www.dainikbhaskar.com आदि-आदि।
सवाल दैनिक भास्कर से
क्या जिस जमाने में ABCD या ABCD 2 जिसका अर्थ ही होता है एनीबडी कैन डांस - फिल्में बनती हो, वहां पुलिसकर्मियों पर डांस पर रोक लगाने की बात हास्यास्पद या बेमानी नहीं है।
क्या पुलिस इंसान नहीं होते, उनका दिल नहीं होता, क्या उन्हें अपनी जिंदगी में रस घोलने का अधिकार नहीं...
क्या पुलिस केवल अपराधियों को गिरफ्तार करने के लिए ही बने है, कानून-व्यवस्था के लिए ही बने है, क्या उन्हें अपने परिवार के साथ हंसने-खेलने या वो करने का अधिकार नहीं, जो एक पत्रकार या उनके परिवार या दैनिक भास्कर के संपादक या किसी अखबार के संपादक किया करते है...
क्या दैनिक भास्कर बता सकता है कि भारतीय फिल्मों में ज्यादातर गाने पुलिस पर ही क्यूं बने है, साथ ही जैसे –
क. फिल्म दुश्मन – बलमा सिपहिया, हाय रे तेरे तंबूक से डर लागे, लागे रे जियरा धक धक धक धक जोर से भागे, बलमा सिपहिया......
ख. फिल्म कर्तव्य – छैला बाबू, तू कैसा दिलदार निकला, चोर समझी थी, मैं थानेदार निकला, चोर समझी थी मैं थानेदार निकला......
ग. फिल्म कालका – दारोगा जी से कहियो, सिपहिया करे चोरी...
घ. फिल्म दबंग – 1. पांडे जी., 2. मुन्नी बदनाम हुई, 3. फेविकोल से
आदि बहुतेरे गाने में क्या हो रहा है, नहीं तो एक बार फिर भारतीय फिल्मों पर नजर डाले...
फिल्में भारतीय समाज की दर्पण है, ये बताती है कि आज समाज में क्या हो रहा है...पर अखबार और उसमें काम करनेवाले लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया। वे समझ रहे हैं कि वे जो सोचते हैं, वे जो लिखते हैं, वहीं ब्रह्म वाक्य है पर वे नहीं जानते कि एक घटियास्तर की सोच पूरे समाज को प्रभावित कर डालती है और फिर उससे समाज का जो नूकसान पहुंचता है, उससे समाज को उबरने में काफी वक्त लग जाता है...
हे ईश्वर, अखबार के संपादकों व मालिकों को आप सद्बुद्धि दें ताकि वे समाज का हित कर सकें...नहीं तो ये समाज को बर्बाद करके रख देंगे...
सवाल दैनिक भास्कर से
क्या जिस जमाने में ABCD या ABCD 2 जिसका अर्थ ही होता है एनीबडी कैन डांस - फिल्में बनती हो, वहां पुलिसकर्मियों पर डांस पर रोक लगाने की बात हास्यास्पद या बेमानी नहीं है।
क्या पुलिस इंसान नहीं होते, उनका दिल नहीं होता, क्या उन्हें अपनी जिंदगी में रस घोलने का अधिकार नहीं...
क्या पुलिस केवल अपराधियों को गिरफ्तार करने के लिए ही बने है, कानून-व्यवस्था के लिए ही बने है, क्या उन्हें अपने परिवार के साथ हंसने-खेलने या वो करने का अधिकार नहीं, जो एक पत्रकार या उनके परिवार या दैनिक भास्कर के संपादक या किसी अखबार के संपादक किया करते है...
क्या दैनिक भास्कर बता सकता है कि भारतीय फिल्मों में ज्यादातर गाने पुलिस पर ही क्यूं बने है, साथ ही जैसे –
क. फिल्म दुश्मन – बलमा सिपहिया, हाय रे तेरे तंबूक से डर लागे, लागे रे जियरा धक धक धक धक जोर से भागे, बलमा सिपहिया......
ख. फिल्म कर्तव्य – छैला बाबू, तू कैसा दिलदार निकला, चोर समझी थी, मैं थानेदार निकला, चोर समझी थी मैं थानेदार निकला......
ग. फिल्म कालका – दारोगा जी से कहियो, सिपहिया करे चोरी...
घ. फिल्म दबंग – 1. पांडे जी., 2. मुन्नी बदनाम हुई, 3. फेविकोल से
आदि बहुतेरे गाने में क्या हो रहा है, नहीं तो एक बार फिर भारतीय फिल्मों पर नजर डाले...
फिल्में भारतीय समाज की दर्पण है, ये बताती है कि आज समाज में क्या हो रहा है...पर अखबार और उसमें काम करनेवाले लोगों की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया। वे समझ रहे हैं कि वे जो सोचते हैं, वे जो लिखते हैं, वहीं ब्रह्म वाक्य है पर वे नहीं जानते कि एक घटियास्तर की सोच पूरे समाज को प्रभावित कर डालती है और फिर उससे समाज का जो नूकसान पहुंचता है, उससे समाज को उबरने में काफी वक्त लग जाता है...
हे ईश्वर, अखबार के संपादकों व मालिकों को आप सद्बुद्धि दें ताकि वे समाज का हित कर सकें...नहीं तो ये समाज को बर्बाद करके रख देंगे...
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