Sunday, August 15, 2010

स्वतंत्रता के मायने...


भारतीय स्वतंत्रता दिवस की धूम हैं, पर स्वतंत्रता के क्या मायने हैं, शायद हम आज तक सीख नहीं पाये हैं और न ही सीखने की कोशिश की। हमारी केन्द्र और राज्य की सरकार का भी ध्यान इस ओर नहीं गया। जो काम अंग्रेज अपनी शासन के दौरान नहीं कर सकें, आजादी के बाद उन अंग्रेजों के सपनों को हमने अपने हाथों से पूरा करने का, ऐसा लगता हैं कि हमने मन बना लिया हैं। हमें आज की परिस्थितियों को देख लगता हैं कि गर अंग्रेज नहीं होते, तो हम शायद सभ्य भी नहीं बन पाते, क्योंकि आज भारतीयों में होड़ लगी हैं कि कौन सर्वाधिक भोगवादी प्रवृत्तियों को अपनाने में सबसे आगे हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय हमारे नेता व जनता दोनों इस बातों को लेकर सजग थे कि वे किसी भी हालात में विदेशी वस्तुओं को स्वीकार नहीं करेंगे, पर आज क्या हैं, खुद सरकार ही भारत को विदेशी वस्तुओं का बाजार बना दी हैं और जनता इसमें डूबकी लगाते जा रही हैं, आज हमारा पड़ोसी चीन, पूरे भारत में अपनी वस्तुओं को ठेल रखा हैं, इन घटिया चीनी वस्तुओं को भारतीय खरीद कर स्वयं को धन्य धन्य कर रहे हैं, और भारतीय लघु उद्योग दम तोड़ता चला जा रहा हैं। शायद आज की पीढ़ी को पता नहीं या बताने की कोशिश नहीं की गयी कि आखिर पूर्व में अंग्रेजों ने भारत को अपना उपनिवेश क्यों बनाया।
इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति होने के बाद अंग्रेजों को एक बाजार की जरुरत थी, जहां वे अपने सामानों को आराम से बेच सकें, और इसके लिए जरुरत थी, दूसरे देशों को अपने हाथों में लेने की, हमारी अंदरुनी कमजोरी, अलगाववाद की प्रवृत्ति का उन्होंने फायदा उठाया और एक एक कर रियासतों को उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया, पर जैसे ही हमारे नेताओं को इसका आभास हुआ, उन्होंने जनता तक अपनी बात पहुंचायी और देश स्वतंत्र हुआ, लेकिन उसके बाद की स्थिति क्या हैं। जिस गांधी ने ग्राम स्वराज्य की बात कहीं थी, लघु कुटीर उद्योग के माध्यम से देश को नयी दिशा देने की बात कहीं थी, एक बहुत बड़ी जनसंख्या को इसके द्वारा ही रोजगार देकर आत्मनिर्भर बनाया जा सकता था। आजादी के बाद महात्मा गांधी के इन सपनों को खुद कांग्रेस ने ही हत्या कर दी और भारत को पश्चिमी ढर्रें पर ले चलने की ठान ली। उसके क्या परिणाम हुए, जरा खुद देखिये भारत की क्या स्थिति हैं, दस प्रतिशत लोग अमीर बन गये और 90 प्रतिशत लोग इन दस प्रतिशत लोगों के आगे हाथ फैलाकर भीख मांगने को विवश हैं।
देश की संसद पर करोड़पतियों और कारपोरेट जगत् के लोगों ने कब्जा जमा लिया हैं, जो विदेशियों के आगे कठपुतली बने हुए हैं। चीन हमारे हजारों वर्ग मील भू –भाग को कब्जा जमा कर बैठा हैं, बांगलादेश जिसे हमने ही पैदा किया, उसके आतंकी हमारे देश के सभी भागों में तरह तरह के हथकंडे अपनाकर हमे तबाह कर रहे हैं, बर्मा, नेपाल, मालदीव, श्रीलंका जैसे देश हमारी बात मानने को तैयार नहीं है, बल्कि चीन से इनकी दोस्ती कुछ ज्यादा ही कारगर हो रही हैं, पाकिस्तान की तो बात ही छोड़ दीजिये, इनकी तो पैदाइश ही भारत की छाती पर मूंग दलने के लिए हुई हैं, इसलिए इनसे दोस्ती की बात ही बेमानी हैं, या सुधरेंगे, कहना मुश्किल हैं।
पूरा देश भ्रष्टाचारियों के कब्जे में हैं, खेत-खलिहानों, कल – कारखानों में काम करनेवाले खेतिहर मजदूरों की फटेहाल जिंदगी पर किसी का ध्यान नहीं हैं, पर अपना पेट भरने के लिए सांसदों और विधायकों की टोली पांच गुणा से भी अधिक वेतन बढ़ाने को तैयार हैं। देश की जनता पर इसका अतिरिक्त बोझ बढ़ता हैं तो इनकी बला से। लोकतंत्र के चौथा स्तंभ कहेजाने वाले मीडिया का भी बूरा हाल हैं, वे राजनीतिज्ञों के चंवर डूलाने और उनकी चाटुकारिता में लगे हैं. ऐसे में देश का क्या हाल होगा, समझा जा सकता हैं।
देश की स्थिति ये हैं कि चुनाव के वक्त अपनी आर्थिक स्थिति को दर्शानेवाले व्यक्ति ये कहता हैं कि उसके पास मात्र 15 लाख की चल अचल संपत्ति हैं, विधायक बनते ही, बंदर की तरह उछलकूद मचाते हुए, जब मंत्री बन जाता हैं तो इसी दौरान अपनी बेटी की शादी में केवल सजावट में चार करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर बैठता हैं, आखिर ये सब कैसे हो जाता हैं। कोई व्यक्ति विधायक और सांसद बनते ही, इतना धनाढ्य कैसे हो जाता हैं क्या उसे कूबेर के घर नौकरी लग जाती हैं अथवा उसे अलादीन का चिराग मिल जाता हैं। सच्चाई ये हैं कि जब कोई व्यक्ति अपना चरित्र ही बेच दें तो उसे क्या कहेंगे। इन्हें गांधी और शास्त्री बनना नहीं हैं, इन्हें तो पेटू बनना हैं, इसलिए पेटू बनते जा रहे हैं और अपने पेट में देश की करोड़ों जनता का धन जमा करते जा रहे हैं पर शायद इन्हें नहीं पता कि कबीर ने इन्हीं जैसे लोगों के बारे में लिखा हैं कि -------
निर्बल को न सताईये, जाकी मोटी हाय
मरे मृग के छाल से लौह भस्म हो जाय।।
पर मैं सोचता हूं कि शायद अब कबीर की ये पंक्ति भी फेल हो जा रही हैं क्योंकि आजादी के पूर्व में किसी अंग्रेज को न्यायालय के द्वारा सजा मिली हो, हमने नहीं देखा और न सुना। जिस अंग्रेज जनरल डायर ने सन् 1919 में जालियावाला बाग हत्याकांड कराया, वो अंग्रेज को भी सजा नहीं मिली, ये अलग बात हैं कि उसे उसकी सजा देश के एक युवा उधम सिंह ने इंग्लैंड जाकर, दी। पर क्या कोई बता सकता है कि आजादी के बाद किस न्यायालय ने यहां के किसी भी राजनीतिज्ञ को सजा दी, हो और वो सजा मुकर्रर हो जाने के बाद किसी राजनीतिज्ञ ने अपनी पूरा सजा जेल में काटी हो। अरे जनाब, यहां तो न्यायालय भी उसे सजा देती हैं जिनकी कहीं कोई औकात नहीं हैं। ऐसे भी गोस्वामी तुलसीदास ने भी श्रीरामचरितमानस में एक तरह से कह ही दिया हैं कि ---
समरथ के नहि दोषु गोसाई
सामर्थ्यवानों के दोष नहीं देखे जाते, शायद इसी ढरें पर अपना देश चल रहा हैं, और अपने ऋषियों और मणीषियों को मानमर्दन कर गौरवान्वित हो रहा हैं। हम अब ज्यादा कुछ नहीं कहेंगें। हाल ही में चीन ने अपने यहां ओलपिंक कराया और दक्षिण अफ्रीका ने अपने यहां फुटबाल मैच कराये, दोनों ने अपने देश का मान बढ़ाया, अपने यहां राष्ट्रमंडल खेल होनेवाले हैं, और अपने देश का सम्मान किस प्रकार यहां के राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकार, दूसरे देशों के सामने उछाल रहे हैं, इस खेल में किस प्रकार भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं, कैसे भारत की नाक कट रही हैं, शायद हम भारतीयों को नहीं हैं, शायद हमने स्वीकार कर लिया हैं कि हमारी नियति ही यहीं हैं, कि हम नहीं सुधरेंगे। पूर्व में जो हजारों वर्षों तक गुलाम रहने की प्रवृत्ति हमारी हैं, उससे कभी छुटकारा नहीं पायेंगे, क्योंकि हमारी जिंदगी क्या हैं, जब तक रहो मस्ती में रहो, खाओ-पीओ मौज करों, मरने के बाद कोई देखने थोड़े ही आ रहा हैं, मूर्ख हैं वे जो देश और समाज के लिए सोचते हैं, हमारी तो पैदाईश सिर्फ राजभोगने के लिए हुई हैं, चाहे गुलामी का मार्ग ही क्यों न हो।

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