अब घर में आपकी बीबी की नहीं, आपकी चलेगी मर्जी। इस विज्ञापन पर हमारे आसपास रहनेवाली कई गृहलक्ष्मियों ने आपत्ति जतायी थी कि भाई साहब, घर में बीबी की मर्जी नहीं चले, आफिस में बॉस की मर्जी नहीं चले, स्कूलों में प्रिंसिपल की मर्जी नहीं चले, राजनीतिक दलों में उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की मर्जी नहीं चले, देश में प्रधानमंत्री और प्रदेश में मुख्यमंत्री की मर्जी नहीं चले, तो फिर मर्जी चलेगी किसकी…..???
हमारे अगल बगल में रहनेवाले सज्जनवृंद की पत्नियों ने तो अपने पति महोदयों से यहां तक कह दिया कि गर हमारे घर में अपनी मर्जी थोपनेवालों की अखबार आ गयी, तो पति महोदय समझ लीजिए, घर में क्या होगा, क्योंकि आज तक घर में पत्नी की ही मर्जी चली हैं, क्योंकि धर्मशास्त्रों में भी पत्नियों को ही गृहलक्ष्मी कहा गया है, न कि पति को गृहलक्ष्मा। ऐसे भी जो चीजें जहां सुंदर लगती हैं, वहीं ठीक हैं, ज्यादा काबिल बनने के लिए, अपनी मर्जी थोपना कहीं से ठीक नहीं।
क्योंकि काजल जब आंखों में लगे तभी उसे काजल कहते हैं गर वो गालों पर लग जाये तो उसे कालिख ही कहेंगे। पिछले कई महीनों से राजधानी रांची में एक अखबार समूह के विज्ञापनों ने तहलका मचा रखा था, और इस तहलके में बस मर्जी ही मर्जी दिखाई पड़ रही थी, पर असली मर्जी तो 22 अगस्त को दिखाई पड़ गयी, जब रांची के ज्यादातर अखबार हॉकर, अपनी मर्जी थोपनेवालों के शिकार बन गये, आज 23 अगस्त को रांची से प्रकाशित प्रभात खबर, हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण ने इस समाचार को प्रथम पृष्ठ पर इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया हैं, जिसे पढ़कर निराशा हुई, क्या अब अखबार गुंडों, अपराधियों और बाहुबलियों के रहमोकरम पर चलेंगे, जब ये अखबार समूह के लोग हॉकरों को पीट सकते हैं तो इसकी क्या गारंटी कि कल पाठकों की पिटाई न कर दें, ये कहकर कि आपको ये ही अखबार पढ़ना हैं, नहीं पढ़ोगे तो देख लो, जैसे हॉकरों की पिटाई कर दी है, उसी तरह तुम्हारी भी पिटाई कर देंगे, और इसकी व्यवस्था भी कर देंगे, हर गलियों और चौराहों पर असामाजिक तत्वों को खड़ा कर देंगे, कहेंगे कि देखों कौन – कौन घर हमारे अखबार की जगह दूसरे अखबार ले रहा हैं, और जहां देखे कि किसी ने दूसरी अखबार ली, तब ऐसे हालत में शुरु कर दी उसकी पिटाई, जैसा कि चुनावों में विपक्षी पार्टियां अपने प्रतिद्वंदियों को सबक सिखाने के लिए, उनके वोटरों की पिटाई करवा देती हैं। ऐसा में इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि आज ही के अखबार में संभवतः एक अखबार ने एक फोटो दी हैं, जिसमें पुलिस और हॉकरों की पिटाई करते अपराधियों की जुगलबंदी तक दिखा दी हैं। क्या पुलिस का काम एक अखबार के पक्ष में काम करना हैं या दोषियों को दंड देना या अपराधियों के चंगुल से निरीह जनता को बचाना। गर पुलिस ऐसा नहीं करती तो ऐसे पुलिस को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए, ऐसे भी यहां की जनता झारखंड पुलिस पर कितना विश्वास करती हैं, ये तो यहां की तीन करोड़ जनता बेहतर जानती हैं।
कमाल हैं, इन अखबार समूहों तथा अन्य देश के बड़े बड़े तथाकथित घरानों में काम करनेवाले बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोगों की गर बात करें तो इनके जूबां से देश, समाज, मानव निर्माण की ऐसी बड़ी बड़ी बातें टपकती हैं कि पूछिये मत, जैसे लगता हैं कि बस इनकी आने भर की देर हैं, पूरे प्रदेश का कायाकल्प हो जायेगा। अब झारखंड में भ्रष्टाचार नहीं रहेगा, सभी को भरपेट खाना मिलेगा, कोई समस्या ही नहीं रहेगी, पर सच्चाई इसके उलट ही होता हैं, ये लोग क्यों झारखंड प्रदेश में आ रहे हैं यहां के बुद्धिजीवी और यहां की निरीह जनता खूब समझती हैं, लेकिन क्या करें, वो अपना जूबां बंद रखना चाहती हैं क्योंकि अपराधियों और असामाजिक तत्वों की आड़ में पत्रकारिता का कारोबार चलानेवालों से सामाजिक मर्यादा और मानवीय मूल्यों की अपेक्षा रखना ही मूर्खता हैं।
No comments:
Post a Comment