संस्कृत में एक श्लोक हैं ---------
शायद देश के नेता व पत्रकार इस श्लोक को नहीं पढ़े होंगे
अधमा: धनम् इच्छन्ति,
धनं मानम् च मध्यमाः।
उतमा: मानम् इच्छन्ति,
मानो हि महतां धनम्।।
अर्थ -- जो दुष्ट होता हैं वो सिर्फ धन की कामना करता हैं, जो मध्यम वर्गीय लोग हैं वे धन और मान दोनों की इच्छा रखते हैं, पर जो सर्वोत्तम व्यक्ति हैं वो धन की कामना नहीं, बल्कि सिर्फ सम्मान की इच्छा रखता हैं, क्योंकि उसके लिये सम्मान ही सर्वोत्तम धन हैं।
क्या कोई बता सकता हैं कि इस देश में जन्मे महात्मा गांधी का स्वनिर्मित घर कहां हैं, कुछ लोग उनके पैतृक निवास जो पोरबंदर में हैं, उसे बतायेंगे, पर सच्चाई ये हैं कि जो दूसरे का घर निर्माण करने में, देश का घर निर्माण करने में लगा हो, भला उसे अपने घर बनाने की फुर्सत कहां हैं। यहीं सवाल भाजपाईयों से क्या वे बता सकते हैं कि एकात्ममानववाद के प्रणेता दीन दयाल उपाध्याय के मरने के समय उनके पास कितना धन था और यहीं सवाल समाजवादी नेताओं से कि वे बताये कि राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के यहीं आदर्श थे क्या?
और यहीं सवाल आज के देश की राजधानी में बैठे व अन्य जगहों पर स्थापित पत्रकारों से क्या वे बता सकते हैं कि इसी देश में गणेश शंकर विद्यार्थी और पड़ारकर ने जन्म लिया, उन्होंने धन के लिए पत्रकारिता की या मान के लिए।
देश की जनता महंगाई से त्रस्त हैं, देश में कहीं अकाल हैं तो कहीं बादल फटने से ऐसी तबाही की पूछिये मत, पर संसद में बैठनेवाले ज्यादातर नेता, जो अपने को जनता का प्रतिनिधि कहते हैं, वे अपने वेतन को लेकर चिंतित हैं, हालांकि उन्हें वेतन की जरुरत ही नहीं क्योंकि उनको वेतन से ज्यादा इतनी भारी भड़कम राशि उनके पूंजीपति साथियों से चंदे और अन्य रुपों में इतनी आसानी से मिल जाती हैं, जिसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती, जिसकी जानकारी आम तौर पर जनता को हैं, पर ये अलग हैं कि इस बात को आजकल मीडिया ने जबर्दस्त रुप से उछाला हैं, ये वे मीडिया के लोग हैं, जिनकी भूख ये नेता शांत करते हैं, पेड न्यूज के रुप में, तथा मुंहमांगी मुराद पुरी करके। कैसे करते हैं इस बात की ज्यादा जानकारी लेनी हो तो हरिशंकर परसाई की भेड़ और भेड़िये पढ़िये। जिन लोगों को मीडिया की इस खबर से नेताओं को गाली देने का मन कर रहा होगा, वो जनता ये भी जान ले कि मीडिया में भी बहुत सारे ऐसे पत्रकार मिलेंगे, जो पहले से ही इन नेताओं के आगे जमीर बेच चुके हैं, और वे भी इसी प्रकार से बेतहाशा रकम कमाकर परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, ये अलग बात हैं कि इनकी बात जनता के सामने नहीं आती और आयेगी भी कैसे, क्योंकि दिखलाना और बताना इन्हें ही हैं, ये वहीं दिखलायेंगे और बतायेंगे, जो इनके हित में हो। कैसे पत्रकार या मीडिया प्रबंधन के लोग नेताओं से उपकृत होकर राज्यसभा में पहुंच रहे हैं, परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, जनता सब जानती हैं, इसलिए इस प्रकार की खबरों से वो उद्वेलित नहीं होती, जितना की 1977 और 1977 के पहले तक उद्वेलित होती थी, क्योंकि जनता जानती हैं कि इस हमाम में सभी नंगे हैं, बस आज मन आ गया वे नेताओं को अपमानित करनेवाले शब्द लेकर आ गये हैं, और जब नेताओं की बारी आयेगी तो वे पत्रकारों को भी जो करना होगा, साम दाम दंड भेद करके समझा देंगे, पत्रकार चूंकि बुद्धिजीवी होते हैं, जल्द ही समझ जायेंगे, गर नहीं समझेंगे तो प्रबंधन और उनके मालिक तो, उनके हाथ में हैं ही। अब जरा लालू प्रसाद को देख लीजिये, ये तो आज के नेता थोड़े ही हैं, ये अपने बयानों और अन्य कारनामों से काफी लोकप्रिय रहे हैं, ऐसे में नेताओं के वेतन की बात में कैसे चुप रहेंगे, इसलिए शुरु हो गये और चूंकि इसमें सभी सांसदों को फायदा हैं, इसलिए क्या वामपंथ और क्या दक्षिणपंथ और क्या कांग्रेसी सभी – मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गीत सस्वर गाने में लगे हैं, इसलिए इस पर कुछ भी बोलना या लिखना, हमे लगता है कि बेकार हैं। नेताओं को वेतन की भूख जगी हैं। इस भूख में सभी सांसद और विधायक शामिल हैं, ये अलग बात हैं कि इस मुद्दे पर खुलकर वे लालू की भाषा नहीं बोल रहे पर चुपके – चुपके वे लालू के सुर में सुर अवश्य मिला रहे हैं, याद करिये जो काम इस साल बजट सत्र के दौरान झारखंड विधानसभा में राजद के देवघर विधायक सुरेश पासवान ने किया, वहीं काम इन्हीं की पार्टी के सुप्रीमो लालू यादव ने संसद में किया, इनका कहना हैं कि सांसदों का वेतन बहुत ही कम हैं, वे जनसेवक हैं, इसलिए फिलहाल जो वेतन उन्हें मिल रहा हैं, वो बहुत ही कम हैं, इसे 16 हजार से बढ़ाकर 80,001 रुपये कर देना चाहिए, इनका ये भी कहना हैं कि उन्हें सचिव स्तर के अधिकारी से भी बढ़ा हुआ वेतन चाहिए क्योंकि जो सांसद होता हैं वो प्रोटोकाल के अनुसार इससे भी बड़ा होता हैं। जबकि लोकतंत्र में जनता का मत ही देखा जाता हैं, सांसदों के वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर गर आम जनता की राय ली जाये तो 90 प्रतिशत से भी ज्यादा जनता, सांसदों के वेतन बढ़ाये जाने के खिलाफ हैं, पर इन नेताओं को जनता की बात कानों तक नहीं पहुंच रही और वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर फिलहाल वे सब एक हैं।
एक ईमानदार भारतीय नागरिक राजकीय अथवा केन्द्रीय सेवा में काम करते करते अपना जीवन बिता देता हैं पर उसकी आमदनी पांच सालों में तीन सौ प्रतिशत नहीं बढ़ती, पर हमारे देश के नेता मात्र पांच सालों में ही अपनी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा लेते हैं, वो भी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. दीन दयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण के अनुयायी होने का दंभ भरनेवाले नेता। कांग्रेस जो बापू का नाम लेते नहीं अघाती, सबसे पहले उनके नेता के आदर्शों को देखे ---2004 में कांग्रेसी सांसदों की वस्तुस्थिति या आमदनी -----------------
राहुल गांधी --- 4,527,880 रुपये
कमल नाथ --- 51,839,379 रुपये
सचिन पायलट --- 2,51,19000 रुपये
मणि शंकर अय्यर --- 19,391,699 रुपये
और इन्हीं सांसदों की आमदनी अप्रत्याशित रुप से मात्र पांच सालों यानी 2009 में इतनी बढ़ गयी कि पूछिये मत --------------
राहुल गांधी --- 23,274,706 रुपये यानी 414 प्रतिशत
कमल नाथ --- 141,770,037 रुपये यानी 173 प्रतिशत
सचिन पायलट --- 46,489,558 रुपये यानी 1746 प्रतिशत
मणि शंकर अय्यर --- 72,014,689 रुपये यानी 271 प्रतिशत बढ़ गयी
अब जरा अपने को समाजवादी, एकात्ममानववादी तथा किसानों व मजदूरों के हितैषी कहनेवाले दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों पर चलने का दंभ भरनेवाले नेताओं के आमदनी पर एक नजर डालिये ---------------------------
2004 में इनकी आमदनी
लाल कृष्ण आडवाणी --- 13,042,443 रुपये
लालू प्रसाद यादव --- 86,69,342 रुपये
अखिलेश यादव --- 23,142,705 रुपये
अजीत सिंह ---- 13,423,683 रुपये
राम विलास पासवान ---- 8,332,433 रुपये
और इन्हीं सांसदों की 2009 की स्थिति देखिये ------------
लाल कृष्ण आडवाणी --- 35,543,172 रुपये यानी 172 प्रतिशत
लालू प्रसाद यादव --- 3,17,0269 रुपये यानी 266 प्रतिशत
अखिलेश यादव --- 48,582,202 रुपये यानी 110 प्रतिशत
अजीत सिंह ---- 58,232,462 रुपये यानी 334 प्रतिशत
राम विलास पासवान ----11,838,791 रुपये यानी 42 प्रतिशत बढ़ गयी।
कमाल हैं अभी तक ये 16 हजार मासिक वेतन उठा रहे थे, ये जनप्रतिनिधि हैं, इनका कोई दूसरा काम भी नहीं हैं, तो ये नेता बताये कि इतने रुपये कहां से इनके पास आ गये, कैसे इनकी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा केवल पांच वर्षों में बढ़ गयी, क्या इन्हें कुबेर का खजाना मिल गया, अथवा अलादीन का चिराग। गर अलादीन का चिराग अथवा कुबेर का खजाना इन्हें राजनीति के द्वारा मिल जाता हैं तो इसका फायदा आम जनता को क्यों नहीं मिल जाता। आम जनता भी तो अलादीन के चिराग या कुबेर के खजाने से कुछ प्राप्त करें। इस देश की विडम्बना हैं कि आजादी के तुरंत बाद महात्मा गांधी और पटेल जैसे नेता ज्यादा दिनों तक नहीं रहे, जो रहे भी उनकी इन नेताओं ने कुछ मानी नहीं, उनके आदर्शों पर चलने से इनकार कर दिया। ऐसे में हरिशंकर परसाई की कहानी भेड़ और भेड़िये के तर्ज पर चल रही इस व्यवस्था पर अब ज्यादा कुछ कहना नहीं हैं, क्योंकि जनता अंग्रेजों के समय भी मर रही थी, आज भी मर रही हैं, उसके पास कोई विकल्प ही नहीं हैं क्योंकि नेता तो पैदा हुए ही हैं, सुख भोगने के लिए और आम जनता पैदा ही ली हैं, रोटी की तलाश में दर दर भटकने के लिए।
शायद देश के नेता व पत्रकार इस श्लोक को नहीं पढ़े होंगे
अधमा: धनम् इच्छन्ति,
धनं मानम् च मध्यमाः।
उतमा: मानम् इच्छन्ति,
मानो हि महतां धनम्।।
अर्थ -- जो दुष्ट होता हैं वो सिर्फ धन की कामना करता हैं, जो मध्यम वर्गीय लोग हैं वे धन और मान दोनों की इच्छा रखते हैं, पर जो सर्वोत्तम व्यक्ति हैं वो धन की कामना नहीं, बल्कि सिर्फ सम्मान की इच्छा रखता हैं, क्योंकि उसके लिये सम्मान ही सर्वोत्तम धन हैं।
क्या कोई बता सकता हैं कि इस देश में जन्मे महात्मा गांधी का स्वनिर्मित घर कहां हैं, कुछ लोग उनके पैतृक निवास जो पोरबंदर में हैं, उसे बतायेंगे, पर सच्चाई ये हैं कि जो दूसरे का घर निर्माण करने में, देश का घर निर्माण करने में लगा हो, भला उसे अपने घर बनाने की फुर्सत कहां हैं। यहीं सवाल भाजपाईयों से क्या वे बता सकते हैं कि एकात्ममानववाद के प्रणेता दीन दयाल उपाध्याय के मरने के समय उनके पास कितना धन था और यहीं सवाल समाजवादी नेताओं से कि वे बताये कि राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के यहीं आदर्श थे क्या?
और यहीं सवाल आज के देश की राजधानी में बैठे व अन्य जगहों पर स्थापित पत्रकारों से क्या वे बता सकते हैं कि इसी देश में गणेश शंकर विद्यार्थी और पड़ारकर ने जन्म लिया, उन्होंने धन के लिए पत्रकारिता की या मान के लिए।
देश की जनता महंगाई से त्रस्त हैं, देश में कहीं अकाल हैं तो कहीं बादल फटने से ऐसी तबाही की पूछिये मत, पर संसद में बैठनेवाले ज्यादातर नेता, जो अपने को जनता का प्रतिनिधि कहते हैं, वे अपने वेतन को लेकर चिंतित हैं, हालांकि उन्हें वेतन की जरुरत ही नहीं क्योंकि उनको वेतन से ज्यादा इतनी भारी भड़कम राशि उनके पूंजीपति साथियों से चंदे और अन्य रुपों में इतनी आसानी से मिल जाती हैं, जिसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती, जिसकी जानकारी आम तौर पर जनता को हैं, पर ये अलग हैं कि इस बात को आजकल मीडिया ने जबर्दस्त रुप से उछाला हैं, ये वे मीडिया के लोग हैं, जिनकी भूख ये नेता शांत करते हैं, पेड न्यूज के रुप में, तथा मुंहमांगी मुराद पुरी करके। कैसे करते हैं इस बात की ज्यादा जानकारी लेनी हो तो हरिशंकर परसाई की भेड़ और भेड़िये पढ़िये। जिन लोगों को मीडिया की इस खबर से नेताओं को गाली देने का मन कर रहा होगा, वो जनता ये भी जान ले कि मीडिया में भी बहुत सारे ऐसे पत्रकार मिलेंगे, जो पहले से ही इन नेताओं के आगे जमीर बेच चुके हैं, और वे भी इसी प्रकार से बेतहाशा रकम कमाकर परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, ये अलग बात हैं कि इनकी बात जनता के सामने नहीं आती और आयेगी भी कैसे, क्योंकि दिखलाना और बताना इन्हें ही हैं, ये वहीं दिखलायेंगे और बतायेंगे, जो इनके हित में हो। कैसे पत्रकार या मीडिया प्रबंधन के लोग नेताओं से उपकृत होकर राज्यसभा में पहुंच रहे हैं, परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, जनता सब जानती हैं, इसलिए इस प्रकार की खबरों से वो उद्वेलित नहीं होती, जितना की 1977 और 1977 के पहले तक उद्वेलित होती थी, क्योंकि जनता जानती हैं कि इस हमाम में सभी नंगे हैं, बस आज मन आ गया वे नेताओं को अपमानित करनेवाले शब्द लेकर आ गये हैं, और जब नेताओं की बारी आयेगी तो वे पत्रकारों को भी जो करना होगा, साम दाम दंड भेद करके समझा देंगे, पत्रकार चूंकि बुद्धिजीवी होते हैं, जल्द ही समझ जायेंगे, गर नहीं समझेंगे तो प्रबंधन और उनके मालिक तो, उनके हाथ में हैं ही। अब जरा लालू प्रसाद को देख लीजिये, ये तो आज के नेता थोड़े ही हैं, ये अपने बयानों और अन्य कारनामों से काफी लोकप्रिय रहे हैं, ऐसे में नेताओं के वेतन की बात में कैसे चुप रहेंगे, इसलिए शुरु हो गये और चूंकि इसमें सभी सांसदों को फायदा हैं, इसलिए क्या वामपंथ और क्या दक्षिणपंथ और क्या कांग्रेसी सभी – मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गीत सस्वर गाने में लगे हैं, इसलिए इस पर कुछ भी बोलना या लिखना, हमे लगता है कि बेकार हैं। नेताओं को वेतन की भूख जगी हैं। इस भूख में सभी सांसद और विधायक शामिल हैं, ये अलग बात हैं कि इस मुद्दे पर खुलकर वे लालू की भाषा नहीं बोल रहे पर चुपके – चुपके वे लालू के सुर में सुर अवश्य मिला रहे हैं, याद करिये जो काम इस साल बजट सत्र के दौरान झारखंड विधानसभा में राजद के देवघर विधायक सुरेश पासवान ने किया, वहीं काम इन्हीं की पार्टी के सुप्रीमो लालू यादव ने संसद में किया, इनका कहना हैं कि सांसदों का वेतन बहुत ही कम हैं, वे जनसेवक हैं, इसलिए फिलहाल जो वेतन उन्हें मिल रहा हैं, वो बहुत ही कम हैं, इसे 16 हजार से बढ़ाकर 80,001 रुपये कर देना चाहिए, इनका ये भी कहना हैं कि उन्हें सचिव स्तर के अधिकारी से भी बढ़ा हुआ वेतन चाहिए क्योंकि जो सांसद होता हैं वो प्रोटोकाल के अनुसार इससे भी बड़ा होता हैं। जबकि लोकतंत्र में जनता का मत ही देखा जाता हैं, सांसदों के वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर गर आम जनता की राय ली जाये तो 90 प्रतिशत से भी ज्यादा जनता, सांसदों के वेतन बढ़ाये जाने के खिलाफ हैं, पर इन नेताओं को जनता की बात कानों तक नहीं पहुंच रही और वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर फिलहाल वे सब एक हैं।
एक ईमानदार भारतीय नागरिक राजकीय अथवा केन्द्रीय सेवा में काम करते करते अपना जीवन बिता देता हैं पर उसकी आमदनी पांच सालों में तीन सौ प्रतिशत नहीं बढ़ती, पर हमारे देश के नेता मात्र पांच सालों में ही अपनी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा लेते हैं, वो भी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. दीन दयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण के अनुयायी होने का दंभ भरनेवाले नेता। कांग्रेस जो बापू का नाम लेते नहीं अघाती, सबसे पहले उनके नेता के आदर्शों को देखे ---2004 में कांग्रेसी सांसदों की वस्तुस्थिति या आमदनी -----------------
राहुल गांधी --- 4,527,880 रुपये
कमल नाथ --- 51,839,379 रुपये
सचिन पायलट --- 2,51,19000 रुपये
मणि शंकर अय्यर --- 19,391,699 रुपये
और इन्हीं सांसदों की आमदनी अप्रत्याशित रुप से मात्र पांच सालों यानी 2009 में इतनी बढ़ गयी कि पूछिये मत --------------
राहुल गांधी --- 23,274,706 रुपये यानी 414 प्रतिशत
कमल नाथ --- 141,770,037 रुपये यानी 173 प्रतिशत
सचिन पायलट --- 46,489,558 रुपये यानी 1746 प्रतिशत
मणि शंकर अय्यर --- 72,014,689 रुपये यानी 271 प्रतिशत बढ़ गयी
अब जरा अपने को समाजवादी, एकात्ममानववादी तथा किसानों व मजदूरों के हितैषी कहनेवाले दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों पर चलने का दंभ भरनेवाले नेताओं के आमदनी पर एक नजर डालिये ---------------------------
2004 में इनकी आमदनी
लाल कृष्ण आडवाणी --- 13,042,443 रुपये
लालू प्रसाद यादव --- 86,69,342 रुपये
अखिलेश यादव --- 23,142,705 रुपये
अजीत सिंह ---- 13,423,683 रुपये
राम विलास पासवान ---- 8,332,433 रुपये
और इन्हीं सांसदों की 2009 की स्थिति देखिये ------------
लाल कृष्ण आडवाणी --- 35,543,172 रुपये यानी 172 प्रतिशत
लालू प्रसाद यादव --- 3,17,0269 रुपये यानी 266 प्रतिशत
अखिलेश यादव --- 48,582,202 रुपये यानी 110 प्रतिशत
अजीत सिंह ---- 58,232,462 रुपये यानी 334 प्रतिशत
राम विलास पासवान ----11,838,791 रुपये यानी 42 प्रतिशत बढ़ गयी।
कमाल हैं अभी तक ये 16 हजार मासिक वेतन उठा रहे थे, ये जनप्रतिनिधि हैं, इनका कोई दूसरा काम भी नहीं हैं, तो ये नेता बताये कि इतने रुपये कहां से इनके पास आ गये, कैसे इनकी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा केवल पांच वर्षों में बढ़ गयी, क्या इन्हें कुबेर का खजाना मिल गया, अथवा अलादीन का चिराग। गर अलादीन का चिराग अथवा कुबेर का खजाना इन्हें राजनीति के द्वारा मिल जाता हैं तो इसका फायदा आम जनता को क्यों नहीं मिल जाता। आम जनता भी तो अलादीन के चिराग या कुबेर के खजाने से कुछ प्राप्त करें। इस देश की विडम्बना हैं कि आजादी के तुरंत बाद महात्मा गांधी और पटेल जैसे नेता ज्यादा दिनों तक नहीं रहे, जो रहे भी उनकी इन नेताओं ने कुछ मानी नहीं, उनके आदर्शों पर चलने से इनकार कर दिया। ऐसे में हरिशंकर परसाई की कहानी भेड़ और भेड़िये के तर्ज पर चल रही इस व्यवस्था पर अब ज्यादा कुछ कहना नहीं हैं, क्योंकि जनता अंग्रेजों के समय भी मर रही थी, आज भी मर रही हैं, उसके पास कोई विकल्प ही नहीं हैं क्योंकि नेता तो पैदा हुए ही हैं, सुख भोगने के लिए और आम जनता पैदा ही ली हैं, रोटी की तलाश में दर दर भटकने के लिए।
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