फिर होली आ गयी। लोग फिर रंग-गुलाल अपने घरों में लायेंगे। एक दूसरे को
लगायेंगे। होली हैं....कहकर शोर मचायेंगे। पुए-पकवान खायेंगे। आजकल तो एक
नया फैशन भी चला हैं। कई घरों में मुर्गे-मुर्गियां हलाक होंगे। बकरें भी
काट दियें जायेंगे, लोग होली हैं..........कहकर इठलायेंगे, बलखायेंगे और
लीजिये मन गयी होली...................। क्या सचमुच होली इसी का नाम हैं।
बचपन से लेकर आजतक होली के इस रंग ने मेरे मन को व्यथित किया हैं जिसे
मैंने कभी स्वीकार ही नहीं किया। क्योंकि भारतीय वांगमय तो सदियों से यहीं
कहता आया हैं...........................
........
होली तो प्यार बांटने का नाम हैं
होली तो एक दूसरे को गले लगाने का नाम हैं
होली तो स्वीकार्यता का दूसरा नाम हैं
होली तो एक दूसरे में समा जाने का नाम हैं
पर शायद ही ऐसे भाव अब होली के दौरान, देखने को मिलते हो। एक दिन, एक बच्चे ने मेरे पास आकर कहा - भैया, हम होली खेलेंगे। मैंने कहा - हां हां, खेलो होली। वो अपने दोनों नन्हीं-नन्ही हाथों में लाल रंग लगाकर आया और मेरे गालों पर लगाकर, खिलखिलाकर होली हैं-होली हैं, कहता हुआ भाग खड़ा हुआ। मैं कुर्सी से उठा और अचानक आइने के पास पहुंच अपने चेहरे को देखा, तो मुस्कुराएं बिना नहीं रह सका। बच्चे की छोटी छोटी अंगूलियों और हथेलियों से चेहरे पर लगे रंगों के भाव कुछ कह रहे थे।
वाराणसी के विद्वान प्रो. सुधाकर दीक्षित आजकल एक - दो वर्षो से रांची में रह रहे हैं। उनसे कुछ दिन पहले होली क्यों विषय पर लंबी बातचीत की। बातचीत के दौरान, उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि भारतीय पर्व त्योहार ऐसे ही नये मनाये जाते। ये पर्व त्यौहार केवल खाने-पीने तक ही सिमटे नहीं रहते, बल्कि ये एक सुंदर संदेश भी देते हैं। ये कहकर कि इन संदेशों को आत्मसात करोगे तभी आप पर्व - त्यौहारों के परम आनन्द कौ प्राप्त कर सकते हो, अन्यथा भौतिक आनन्द को ही गर आनन्द आप समझते हो तो फिर कोई बात ही नहीं।
भारतीय वांग्मय कहता हैं कि होली, वहीं मनाता हैं, जो अपने से दीन-हीन अवस्था में रह रहे, अपने समाज के लोगों को आज के दिन आत्मसात करता हैं। जो समाज व देश के प्रति प्रेम का रंग अपने हृदय में भरता हैं। जिसके हृदय में लेशमात्र भी कटुता का भाव प्रकृति व सत्य के प्रति नहीं रहता। जरा हिरण्यकशिपु को देखिये वो सत्य के प्रतीक प्रह्लाद को मिटा देना चाहता हैं। वो इसके लिए अपनी बहन होलिका का सहारा भी लेता हैं। इसी दौरान होलिका जलकर मर भी जाती हैं, फिर भी उसका दंभ नहीं मिटता, पर प्रह्लाद तो प्रह्लाद हैं, उसके कण-कण में आह्लाद हैं, भला, उसके आह्लाद को कौन मिटा सकता हैं। सत्य अंततः जीतता हैं, क्या इस सत्यरुपी रंग को असत्य कभी मिटा सकता हैं। उत्तर होगा - नहीं। तब ऐसे हालात में असत्य को धारण कर, राक्षसी प्रवृत्तियां अपना कर लोग किस प्रकार का आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।
एक उदाहरण, जो फिलहाल होली के दौरान ही दीख रहा हैं। मार्च का महीना हैं। संभवतः 31 मार्च को क्लोजिंग डेट भी होता हैं। मैंने कई लोगों को देखा हैं, अभी से ही दिमाग लगा रहे हैं कि इस बार आयकर के रुप में उनके कमाई की राशि नहीं कटे। असत्य का सहारा भी उन्होंने जमकर लिया हैं। संभव हैं, ये पकड़े भी नहीं जायेंगे, पर हृदय के किसी कोने में बैठा परमेश्वर अथवा सत्य, उसे इस गलत कार्यों के लिए, क्षमा करेगा या वो इस गलत कार्यों में संलिप्तता होने के बावजूद आनन्द की प्राप्ति कर पायेंगे। उत्तर होगा - नहीं। क्योंकि आनन्द तो सिर्फ सत्य के पास होता हैं। असत्य को आनन्द कहां। जो देश के लिए अपनी आय की राशि का एक हिस्सा ईमानदारी से नहीं दे सकता। वो देश के लिए तन और मन को कैसे उत्सर्ग करेगा। जो ऐसा नहीं कर पायेगा। वो होली कैसे मनायेगा। होली तो मनाया कबीर ने, ये कहकर..............
मन लागा मेरा यार फकीरी में,
जो सुख पाउं राम भजन में,
वो सुख नाहीं अमीरी में,
भला बुरा सबका सुन लीजै
कर गुजरान,गरीबी में
मन लागा, मेरा यार फकीरी में..................
अर्थात, जो सत्य को धारण करेगा, उसे ही सुख प्राप्त होगा, उसे ही राम मिलेंगे, असत्य को प्राप्त कर न तो राम मिलेंगे और न ही कोई परम आनन्द को प्राप्त कर पायेगा। परम आनन्द को प्राप्त करने का नाम ही होली हैं। स्वयं को परमात्मा के अधीन कर, सत्य का आश्रय ले, सब को परम आनन्द देने का नाम ही होली हैं........................... .....
होली तो प्यार बांटने का नाम हैं
होली तो एक दूसरे को गले लगाने का नाम हैं
होली तो स्वीकार्यता का दूसरा नाम हैं
होली तो एक दूसरे में समा जाने का नाम हैं
पर शायद ही ऐसे भाव अब होली के दौरान, देखने को मिलते हो। एक दिन, एक बच्चे ने मेरे पास आकर कहा - भैया, हम होली खेलेंगे। मैंने कहा - हां हां, खेलो होली। वो अपने दोनों नन्हीं-नन्ही हाथों में लाल रंग लगाकर आया और मेरे गालों पर लगाकर, खिलखिलाकर होली हैं-होली हैं, कहता हुआ भाग खड़ा हुआ। मैं कुर्सी से उठा और अचानक आइने के पास पहुंच अपने चेहरे को देखा, तो मुस्कुराएं बिना नहीं रह सका। बच्चे की छोटी छोटी अंगूलियों और हथेलियों से चेहरे पर लगे रंगों के भाव कुछ कह रहे थे।
वाराणसी के विद्वान प्रो. सुधाकर दीक्षित आजकल एक - दो वर्षो से रांची में रह रहे हैं। उनसे कुछ दिन पहले होली क्यों विषय पर लंबी बातचीत की। बातचीत के दौरान, उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि भारतीय पर्व त्योहार ऐसे ही नये मनाये जाते। ये पर्व त्यौहार केवल खाने-पीने तक ही सिमटे नहीं रहते, बल्कि ये एक सुंदर संदेश भी देते हैं। ये कहकर कि इन संदेशों को आत्मसात करोगे तभी आप पर्व - त्यौहारों के परम आनन्द कौ प्राप्त कर सकते हो, अन्यथा भौतिक आनन्द को ही गर आनन्द आप समझते हो तो फिर कोई बात ही नहीं।
भारतीय वांग्मय कहता हैं कि होली, वहीं मनाता हैं, जो अपने से दीन-हीन अवस्था में रह रहे, अपने समाज के लोगों को आज के दिन आत्मसात करता हैं। जो समाज व देश के प्रति प्रेम का रंग अपने हृदय में भरता हैं। जिसके हृदय में लेशमात्र भी कटुता का भाव प्रकृति व सत्य के प्रति नहीं रहता। जरा हिरण्यकशिपु को देखिये वो सत्य के प्रतीक प्रह्लाद को मिटा देना चाहता हैं। वो इसके लिए अपनी बहन होलिका का सहारा भी लेता हैं। इसी दौरान होलिका जलकर मर भी जाती हैं, फिर भी उसका दंभ नहीं मिटता, पर प्रह्लाद तो प्रह्लाद हैं, उसके कण-कण में आह्लाद हैं, भला, उसके आह्लाद को कौन मिटा सकता हैं। सत्य अंततः जीतता हैं, क्या इस सत्यरुपी रंग को असत्य कभी मिटा सकता हैं। उत्तर होगा - नहीं। तब ऐसे हालात में असत्य को धारण कर, राक्षसी प्रवृत्तियां अपना कर लोग किस प्रकार का आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।
एक उदाहरण, जो फिलहाल होली के दौरान ही दीख रहा हैं। मार्च का महीना हैं। संभवतः 31 मार्च को क्लोजिंग डेट भी होता हैं। मैंने कई लोगों को देखा हैं, अभी से ही दिमाग लगा रहे हैं कि इस बार आयकर के रुप में उनके कमाई की राशि नहीं कटे। असत्य का सहारा भी उन्होंने जमकर लिया हैं। संभव हैं, ये पकड़े भी नहीं जायेंगे, पर हृदय के किसी कोने में बैठा परमेश्वर अथवा सत्य, उसे इस गलत कार्यों के लिए, क्षमा करेगा या वो इस गलत कार्यों में संलिप्तता होने के बावजूद आनन्द की प्राप्ति कर पायेंगे। उत्तर होगा - नहीं। क्योंकि आनन्द तो सिर्फ सत्य के पास होता हैं। असत्य को आनन्द कहां। जो देश के लिए अपनी आय की राशि का एक हिस्सा ईमानदारी से नहीं दे सकता। वो देश के लिए तन और मन को कैसे उत्सर्ग करेगा। जो ऐसा नहीं कर पायेगा। वो होली कैसे मनायेगा। होली तो मनाया कबीर ने, ये कहकर..............
मन लागा मेरा यार फकीरी में,
जो सुख पाउं राम भजन में,
वो सुख नाहीं अमीरी में,
भला बुरा सबका सुन लीजै
कर गुजरान,गरीबी में
मन लागा, मेरा यार फकीरी में..................
अर्थात, जो सत्य को धारण करेगा, उसे ही सुख प्राप्त होगा, उसे ही राम मिलेंगे, असत्य को प्राप्त कर न तो राम मिलेंगे और न ही कोई परम आनन्द को प्राप्त कर पायेगा। परम आनन्द को प्राप्त करने का नाम ही होली हैं। स्वयं को परमात्मा के अधीन कर, सत्य का आश्रय ले, सब को परम आनन्द देने का नाम ही होली हैं...........................
Sachmuch holi ki vastavikta to aaj kal log bhool hi gaye hain.
ReplyDeletegaribon ke gharon mein khushi na de sakne waale aur asahayon ki madad na karne walon ko holi manane ka koin hak nahin hai.