सारा भारतवर्ष होली के रंग में रंगने को तैयार हैं। कई होली के रंग
में रंग चुके हैं तो कई इसके लिए तैयारी कर रहे हैं। वो इंतजार कर रहे हैं,
एक निश्चित समय का। जब वो होली के आनन्द में डूबकी लगायेंगे। पर सच्चाई ये
हैं कि होली वहीं मनाता हैं जो कृष्ण के समीप हैं, जो कृष्ण के समीप ही
नहीं, वो होली का आनन्द क्या लेगा। आज तो सारा भारतवर्ष जलसंकट से जूझ रहा
हैं, कई लोग तिलक होली खेलने की वकालत कर रहे हैं और पानी बचाने का इसे
एकमात्र उपाय बता रहे हैं, तो कई ने होली नहीं खेलने का फैसला किया हैं।
होली नहीं खेलने का तर्क भी, उन्होंने बहुत अच्छा ढूंढ निकाला हैं। उनका
कहना है कि होली में पानी बेतहाशा खर्च होता हैं, नष्ट होता हैं। इसलिए वो
होली नहीं खेलेंगे। जबकि सच्चाई ये हैं कि होली के समय ऐसा तर्क देनेवाले
अन्य दिनों में जल संरक्षण पर ध्यान ही नहीं देते। कभी - कभी मैं सोचता हूं
कि
क्या होली, एक दूसरे को रंग लगाने का नाम हैं
क्या होली, एक दूसरे के गालों पर गुलाल मलने का नाम हैं
क्या होली, एक दूसरे को तंग करने या एक दूसरे को देख लेने का नाम हैं
उत्तर हैं - नहीं।
होली तो इन सबसे अलग प्रभु के हृदय में स्थान पाने का नाम हैं। होली
तो उन सबको गले लगाने का नाम हैं, जो किन्हीं कारणों से हमसे बहुत अलग हैं,
जो समाज के मुख्यधारा से कटे हैं, जिन्होंने संसार के प्रमुख उपभोग
करनेवाली वस्तुओं का सेवन तक नहीं किया। उन्हें अपने घर बुलाकर, स्वयं से
अहंकार को दूर कर, प्रभु का हो जाने का नाम हैं। जब - जब होली आती हैं, लोग
प्रह्लाद और होलिका की कथा को याद करते हैं, पर भूल जाते हैं कि प्रह्लाद
और होलिका दोनों एक प्रतीक हैं। प्रह्लाद धर्म का तो होलिका अधर्म की
प्रतीक हैं। आश्चर्य इस बात की भी कि प्रह्लाद और होलिका एक परिवार से हैं।
होलिका प्रह्लाद की बुआ हैं। वो प्रह्लाद को मार डालना चाहती हैं, फिर भी
प्रह्लाद बच कर निकल जाता हैं। प्रह्लाद का बचकर निकलना, होलिका का जल
जाना- क्या संदेश देता हैं। संदेश वहीं हैं। धर्म हमेशा विजयी होता हैं,
अधर्म सदैव हारता हैं। ये कथा बड़े ही सरल शब्दों में ये भी संदेश देती हैं
कि अधर्म से आपको घर में भी जूझना पडे़गा, ये आपके उपर निर्भर करता हैं कि
आप अधर्म से कैसे लड़ते हैं, उस पर कैसे विजय प्राप्त करते हैं या अधर्म
के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। वो कहते हैं न कि जीने के दो मार्ग हैं, एक
धर्म का और दूसरा अधर्म का। ये आपके उपर निर्भर करता हैं कि आप किस मार्ग
को अपनाते हैं। आप होली के दिन रंग-गुलाल लगाये अथवा नहीं लगाये पर जब आप
समाज के मुख्यधारा से कटे लोगों को हृदय लगाते हैं तो होली को बहुत फर्क
पड़ता हैं। वो फर्क ये हैं कि इससे समाज बनता हैं, देश बनता हैं और होली के
एकात्मता, मानवीय मूल्यों और धर्म के मूलस्वरुप की पहचान हो जाती
है......................
जायसी हो या रसखान या रहीम, सभी ने कृष्ण को पहचाना और वे आजीवन होली के रंग में डूबे रहे
याद करिये रहीम मानवीय मूल्य रुपी रंग को कैसे परिभाषित करते हैं............
जे गरीब पर हित करे. ते रहीम बड़ लोग
कहां सुदामा बापूरो, कृष्ण मिताई जोग
मीरा तो कृष्ण के सांवले सलोने रुप पर इतनी बलिहारी होती हैं, वो कृष्णरुपी भक्ति रंग में ऐसे डूबी कि वो बार - बार यहीं कहती रही
श्याम पिया, मोरी रंग दे चुनरियां...........यहीं नहीं वो तो इससे भी अलग कह डालती हैं, वो क्या, जरा मीरा के शब्दों में सुनिये
अपने ही रंग में, अपने ही रंग में, रंग दे चुनरिया, श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया................
हमें लगता हैं कि कृष्णरुपी भक्तिरंग, धर्म स्वरुपी विलक्षणरंग में जो
रंग जाता हैं, उस पर कोई अन्य रंग चढ़ ही नहीं सकता और जिस पर अन्य रंग
नहीं चढ़ता, वो कृष्ण का हो जाता हैं, तो हम क्यों नहीं कृष्ण के आचरण को
अपनाते हुए, धर्म को धारण करते हुए, इस होली को मनाये। हमें नहीं लगता कि
इस प्रकार की होली खेलने में, रंग और गुलाल की भी आवश्यकता पडे़गी और फिर
कोई कह नही पायेगा कि वो जल संरक्षण के लिए, इस बार तिलक होली खेलेगा या
होली नहीं खेलेगा। जरुरत हैं, होली के मूलस्वरुप को समझने की, जो हम भूलते
जा रहे हैं...........................
Bilkul,
ReplyDeleteKabhi Kabhi main bhi yahi sochta hoon,
Shyam piya mori Rang de chunaria, rang de Chunariay...
Wah Krishna Bhai, aap ne to kamal hi kar diya....