Monday, January 9, 2017

खादी मेला और वो 4000 रुपये............

खादी मेला समाप्त हो चुका है। कल ही समापन के दिन, मैं और अरुण श्रीवास्तव मेला का परिभ्रमण करने पहुंचा। परिभ्रमण के दौरान पाया कि मेले के अंतिम दिन भारी भीड़ थी। लाखों की संख्या में लोग अपने परिवार के साथ मेले का आनन्द लेने पहुंचे थे। मेरी धर्मपत्नी भी कहीं थी कि खादी मेला मैं भी देखना चाहती हूं, पर समयाभाव के कारण मैं उन्हें मेला नहीं दिखा सका। मेले में खरीदार से लेकर दुकानदार तक प्रसन्न दीखे। अच्छी कारोबार हुई, सुनने को मिला। नोटबंदी का असर इस मेले में न के बराबर दिखा। आयोजकों ने अच्छी व्यवस्था की थी, जिस कारण यहां कहीं कोई दिक्कत किसी को नहीं हुई। इसके लिए सचमुच संजय सेठ की टीम बधाई के पात्र है। बधाई दीपंकर पांडा को भी क्योंकि इनकी भी भूमिका सराहनीय ही रही।
खादी मेला घूम ही रहा था कि एक दृश्य मेरे सामने से घूम गई। यह दृश्य था, जब मैं ईटीवी छोड़ने के बाद मौर्य से जुड़ा था और पांच महीने में ही मौर्य से नाता तोड़कर घर में बैठ गया था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उस वक्त छोटा बेटा हिमांशु मारवाड़ी कॉलेज का छात्र था और नाट्य विधा से जुड़ा था। खादी मेले में शतरूपा नाटक करने के लिए दिल्ली से टीम आई थी। शतरूपा नाटक में भाग लेने के लिए स्थानीय कलाकारों को भी शामिल किया गया था, जिसमें गीत तथा नाटक प्रभाग की रांची टीम नें मुख्य भूमिका निभाई थी। शतरूपा नाटक में हिमांशु को दिल्ली से आई टीम ने कहा था कि उसमें उसे कुछ लीड रोल देंगे, पर उसे लीड रोल नहीं मिली। उसे लीड रोल नहीं मिली उसका मूल कारण भ्रष्टाचार था, जिसे लेकर हिमांशु ने प्रतिवाद भी किया था, और उसकी दिलचस्प कहानी उसने हमें बतायी थी। अंततः उसे सामान्य रोल में ही जगह मिली, पर हिमांशु ने सिद्ध किया कि उसे लीड रोल मिले या न मिले, पर वह अपनी भूमिका से नाटक देखनेवालों को अपनी ओर खीचने में जरुर कामयाब होगा।
तभी गांधी के नमक सत्याग्रह के आंदोलन का नाटक का मंचन होना था, हिमांशु को उसमें सामान्य सत्याग्रही का रोल मिला, जो आंदोलन में शामिल था, उसने नेत्रहीन का रोल किया और अपने एक साथी को विकलांग के रुप में चलने को कहा, अंततः लोगों को नेत्रहीन हिमांशु का रोल इतना अच्छा लगा कि नाटक देख रहे मेरे बड़े बेटे सुधांशु ने खादी मेले से ही हमें फोन कर सूचित किया कि पापा जी, हिमांशु तो बहुत अच्छा रोल किया है, दर्शक दीर्घा में लोग उसकी खूब तारीफ कर रहे है। दूसरे दिन अखबारों में उसके फोटो भी छपे, देखकर अतिप्रसन्नता हुई।
इसी बीच कुछ और उसे छोटे रोल मिले। तबियत खराब थी, वह खूले आकाश के नीचे अपने छोटे-छोटे रोल को ईमानदारी से मंचित करने में लगा था। मैं एक बार उसकी नाटक देखने भी गया, उसे छोटे से बौद्धभिक्षु के रोल में देखकर, हमें अच्छा लगा। मैंने कहा था कि रोल कोई भी छोटा नहीं होता, अगर वह ईमानदारी से किया जाय। खादी मेला का समापन हो चुका था, दूसरे दिन उसे चार हजार रुपये नाटक में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए मिले थे। वह चार हजार रुपये लेकर दौड़ता हुआ आया और कहा कि पापा जी ये चार हजार रुपये आपके। वो चार हजार रुपये हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण थे, वो सिर्फ मैं और मेरा बेटा हिमांशु और सुधांशु ही जानता था, दूसरा कोई नहीं...
मोरहाबादी में जब – जब खादी मेला लगता है, मुझे ये परिदृश्य स्वतः नजर आते है, शायद याद दिलाते है, मेरे छोटे से बेटे की उस दृढ़इच्छा शक्ति की, अभिनय के प्रति सम्मान की, साथ ही पितृभक्ति की...

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