भुत पिशाच निकट नहीं आवे-----विद्रोही
नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये
एक फिल्म का सुपर हिट गीत है ------
जो तुमको, हो पसंद, वो ही बात करेंगे.
तुम दिन को कहो रात, तो हम रात कहेंगे.
ये गीत फिलहाल झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन पर फिट बैठता है. क्योकि जो -जो नक्सली कह रहे है, वे करते चले जा रहे है. उदार इतने है की वे नक्सलियों को अपना भाई-बंधू कहने से नहीं चुकते. ऑपरेशन ग्रीन हंट के सम्बन्ध में जब कोलकाता में मीटिंग होती है तब बीमारी का बहाना बनाकर अपोलो के बेड पर जाकर लेट जाते है. प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण होता है और वे इसे छोटो-मोटी घटना कहकर टाल जाते है. नक्सली जब उन्हें प्रेस कांफ्रेंस कहने को करते है तो वे प्रेस कांफ्रेंस तक कर डालते है. वाह देश के विभिन्न राज्यों में ऐसा सुंदर छवि और बुद्धिमान कोई मुख्यमंत्री है. इस सवाल का जवाब शिबू सोरेन ही दे तो अच्छा रहेगा.
झारखण्ड में धालभूमगढ़ के प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण, नक्सलियों के मांग के बाद पल पल में नक्सलियों के अनुरूप वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का बदलता बयान, ऑपरेशन कोबरा पर लगी रोक और अंत में यहाँ के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का बयान साफ़ जाहिर करता है हमारा मुख्यमंत्री नक्सलियों के आगे कितना असहाय हो जाता है. देश में इस राज्य के मुख्यमंत्री ही है जो गुरूजी नाम से जाने जाते है. पर धालभूमगढ़ प्रकरण ने साफ़ कर दिया की यहाँ असली गुरु कौन है. यहा शासन किसकी चलती है.
इस प्रकरण ने बहुत सारे सवाल भी उठाये है. वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का ये कहना की जियां और आस्ति गाव से पकडे गए लोग नक्सली नहीं थे, गर वे नक्सली नहीं थे फिर पुलिस ने उन्हें पकड़ा क्यों, ये तो और शर्मनाक है, आखिर झारखण्ड पुलिस किस ओर कदम बढ़ा रही है, ऐसे में नक्सलियों ने जो सहानुभूति उन ग्रामीणों से बटोरी, उसका लाभ किसे मिलेगा, पुलिस को या नक्सली को. यहाँ के DGP को खुद चिंतन करना चाहिए.
कमाल है सरकार के गठन हुए डेढ़ महीने से ज्यादा हो गए पर सरकार नक्सालियों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है या ये भी कह सकते है की नक्सलियों की गणेश-परिक्रमा कर रही है. आखिर ये सरकार काम कब करेगी. धालभूमगढ़ प्रकरण ने सिद्ध कर दिया की यहाँ सरकार नाम की कोई चीज नहीं है, इसलिए आम जनता शिबू के आगे न झुक कर नक्सलियों के आगे झुके तभी उनका कल्याण है अन्यथा नहीं. ये घटना यहाँ के प्रशासनिक अधिकारीयों को भी शायद अहसास करा दी है की उनकी सुरक्षा का भार किस पर है. इसलिए इनका जहाँ पदस्थापना होगा तो ये सरकार की कम और नक्सलियों की ज्यादा सुनेगे. ऐसे भी यहाँ के प्रशासनिक और पुलिसकर्मी अपने क्षेत्र में हनुमान चालीसा कुछ ज्यादा ही पढने लगे है. तुलसी की इस चालीसा में सिर्फ एक ही परिवर्तन हुआ है. भूत-प्रेत की जगह -- नक्सली जुट गया है. जैसे एक पंक्ति है ---- भूत-पिशाच निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये. अब हो गया, नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये।
नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये
एक फिल्म का सुपर हिट गीत है ------
जो तुमको, हो पसंद, वो ही बात करेंगे.
तुम दिन को कहो रात, तो हम रात कहेंगे.
ये गीत फिलहाल झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन पर फिट बैठता है. क्योकि जो -जो नक्सली कह रहे है, वे करते चले जा रहे है. उदार इतने है की वे नक्सलियों को अपना भाई-बंधू कहने से नहीं चुकते. ऑपरेशन ग्रीन हंट के सम्बन्ध में जब कोलकाता में मीटिंग होती है तब बीमारी का बहाना बनाकर अपोलो के बेड पर जाकर लेट जाते है. प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण होता है और वे इसे छोटो-मोटी घटना कहकर टाल जाते है. नक्सली जब उन्हें प्रेस कांफ्रेंस कहने को करते है तो वे प्रेस कांफ्रेंस तक कर डालते है. वाह देश के विभिन्न राज्यों में ऐसा सुंदर छवि और बुद्धिमान कोई मुख्यमंत्री है. इस सवाल का जवाब शिबू सोरेन ही दे तो अच्छा रहेगा.
झारखण्ड में धालभूमगढ़ के प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण, नक्सलियों के मांग के बाद पल पल में नक्सलियों के अनुरूप वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का बदलता बयान, ऑपरेशन कोबरा पर लगी रोक और अंत में यहाँ के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का बयान साफ़ जाहिर करता है हमारा मुख्यमंत्री नक्सलियों के आगे कितना असहाय हो जाता है. देश में इस राज्य के मुख्यमंत्री ही है जो गुरूजी नाम से जाने जाते है. पर धालभूमगढ़ प्रकरण ने साफ़ कर दिया की यहाँ असली गुरु कौन है. यहा शासन किसकी चलती है.
इस प्रकरण ने बहुत सारे सवाल भी उठाये है. वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का ये कहना की जियां और आस्ति गाव से पकडे गए लोग नक्सली नहीं थे, गर वे नक्सली नहीं थे फिर पुलिस ने उन्हें पकड़ा क्यों, ये तो और शर्मनाक है, आखिर झारखण्ड पुलिस किस ओर कदम बढ़ा रही है, ऐसे में नक्सलियों ने जो सहानुभूति उन ग्रामीणों से बटोरी, उसका लाभ किसे मिलेगा, पुलिस को या नक्सली को. यहाँ के DGP को खुद चिंतन करना चाहिए.
कमाल है सरकार के गठन हुए डेढ़ महीने से ज्यादा हो गए पर सरकार नक्सालियों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है या ये भी कह सकते है की नक्सलियों की गणेश-परिक्रमा कर रही है. आखिर ये सरकार काम कब करेगी. धालभूमगढ़ प्रकरण ने सिद्ध कर दिया की यहाँ सरकार नाम की कोई चीज नहीं है, इसलिए आम जनता शिबू के आगे न झुक कर नक्सलियों के आगे झुके तभी उनका कल्याण है अन्यथा नहीं. ये घटना यहाँ के प्रशासनिक अधिकारीयों को भी शायद अहसास करा दी है की उनकी सुरक्षा का भार किस पर है. इसलिए इनका जहाँ पदस्थापना होगा तो ये सरकार की कम और नक्सलियों की ज्यादा सुनेगे. ऐसे भी यहाँ के प्रशासनिक और पुलिसकर्मी अपने क्षेत्र में हनुमान चालीसा कुछ ज्यादा ही पढने लगे है. तुलसी की इस चालीसा में सिर्फ एक ही परिवर्तन हुआ है. भूत-प्रेत की जगह -- नक्सली जुट गया है. जैसे एक पंक्ति है ---- भूत-पिशाच निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये. अब हो गया, नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये।
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