Wednesday, May 12, 2010

पत्रकारिता का सच ---- 2

विद्रोही

जनवरी 95, ये मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट था। इसी महीने हम आकाशवाणी पटना के युववाणी एकांश और पटना से प्रकाशित आर्यावर्त्त अखबार से भी जुड़े। पटना से करीब 12 किलोमीटर दूर है -- दानापुर। दानापुर अनुमंडल का भार मुझ पर था, आर्यावर्त्त से एक भी पैसा नहीं मिलता था, फिर भी इसके लिए बिना पैसे का काम करने का आनंद ही कुछ और था। शायद ये पत्रकारिता का जूनून था। इसी समय बिहार विधान सभा का चुनाव भी आ गया था। नेताओं का भाषण सुनना, उनके समाचार लिखना और फिर साइकिल चलाकर आर्यावर्त्त कार्यालय जाना, फिर दुसरे दिन अपनी ख़बरों को समाचार पत्र में देखना, छप गया तो खुश और नहीं छपा तो दिन भर की खुशियाँ काफूर। इन समाचारों के संकलन में प्रतिदिन 50-60 किलोमीटर साइकिल चलाना पड़ जाता। इसी बीच कई नेता हमारे साइकिल से समाचार संकलन करते देख द्रवित हुए और स्कूटर दिलाने की पेशकश की, पर जमीर बेचकर उनके स्कूटर पर चढने की लालसा कभी नहीं रही। क्योकि मेरी टूटी - फूटी साइकिल कुछ मुझे ज्यादा अच्छी लगती थी, इसी दौरान हमने देखा। कई जगह प्रेस कांफ्रेंस होते, पत्रकारों की खूब आवभगत होती । पत्रकार भी इस आवभगत का खूब मज़ा लेते। कई पत्रकारों को हमने देखा की वे नेताओं से, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों से समाचार छपवाने के नाम पर पैसे भी वसूलते। कई पत्रकार मित्रों ने तो चुनाव में अच्छी आमदनी भी कर ली थी, और यही से शुरू हुई जमीर बेचने की आदत उन्हें कही की न रखी। जो नेता या प्रत्याशी उन्हें पैसे देते, उनकी नज़रे उन पर देखने लायक होती। आज भी जिनकी नेताओ से पैसे लेने की आदत है, उनके हालात पैसे रहने के बावजूद बदतर है। न तो वे सम्मान और न ही उनकी जिन्दगी ही बेहतर कही जा सकती है।

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