Tuesday, May 11, 2010

पढने का मतलब......!

पढ़ने का मतलब – विद्रोही

हमारे बहुत सारे ऐसे मित्र हैं जिनकी मासिक आमदनी एक लाख से उपर हैं, वे खूब धन कमाना चाहते हैं, जिंदगी की हर खुशियों को पाना चाहते हैं, अपने बच्चों को वो बनाना चाहते हैं, जो वो नहीं बन सकें और इसी बनाने के चक्कर में खुद को नाना प्रकार के अवसादों में ढक ले रहे हैं, क्योंकि अंत में परिणाम वो आ रहा हैं, जिसकी परिकल्पना उन्होंने नहीं की थी।
मैं इन मित्रों में से कई को उदाहरण दिया हूं, वे सुनते हैं, समझते हैं, पर करते वहीं हैं, जो लक्ष्मी जी इनसे करा लेती हैं, क्योंकि ये नहीं समझते कि धन की तीन गतियां हैं – सर्वोच्च गति हैं – दान, मध्यम गति हैं – उपभोग और निकृष्ट गति जो आप चाहे या न चाहे हो ही जाती हैं – नाश।
जरा कोई हमारे मित्रों साथ ही वे लोग जो आज धनपशु बनने के चक्कर में चरित्र को श्रद्धांजलि दे, वे सब कुछ कर रहे हैं, जिससे समाज को खतरा उत्पन्न हो गया हैं, भ्रष्टाचार की सारी सीमाएँ लांघ गये हैं, हमारे कुछ सवालों का जवाब दे सकते हैं।
गांधी के माता – पिता अपने बच्चे का नाम रखा – मोहनदास, पर बेटे ने ऐसी राजनीतिक प्रबंधन की कि बेटा मोहनदास से महात्मा गांधी हो गया, यहीं नहीं जिसने उसे पैदा किया, उस़का भी बाप बन गया राष्ट्रपिता कहलाया। क्यॉ कोई बता सकता हैं कि महात्मा गांधी ने किस शिक्षण संस्थान से राजनीतिक प्रबंधन के गुर सीखे, जिसके कारण उन्होंने मरणोपरांत अपने जन्मदिन पर अतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस तक घोषित करा दिया।
कबीर, जिन्होंने कभी स्याही कलम पकड़ी नहीं और उन्होंने ऐसी साखी लिखी कि उनकी साखी पूरे दूनिया को सीख दे रही हैं। लोग कबीर की लिखी पंक्तियों पर सर्च नहीं रिसर्च कर रहे हैँ और डाक्टरेट की उपाधि ले जा रहे हैं, कमाल हैं आज तो सिर्फ ये रिसर्च कर रहे हैं, क्योंकि सर्च तो पहले ही कबीर कर चुके हैं –
ये कहकर कि –
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
एकै आखर प्रेम का पढ़ैं सो पंडित होय
रवीन्द्र नाथ ठाकुर, जिन्होंने कभी स्कूल एवं कालेज का मुंह तक नहीं देखा, उनकी गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद धूम मचाती हैं, और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं।
आधुनिक प्रमाण की ओर ध्यान दें –
महेन्द्र सिंह धौनी जो आज क्रिकेट जगत में धूम मचा रहे हैं, क्या उनके परिवार में कोई क्रिकेट का एबीसीडी भी जानता था, या आनेवाले समय में क्या खुद वे अपने ही संतान को उस उचाई तक ले जा सकते हैं, जिस उचाई पर वे आज हैं, अरे जब सुनील मनोहर गावस्कर अपने बेटे रोहन को उस उचाई तक नहीं ले जा सके तो और कोई क्या कर सकता हैं।
लालू यादव जो पन्द्रह सालों तक बिहार की कुर्सी से परोक्ष व अपरोक्ष रुप से चिपके रहे, जिन्होंने अँधाधूध पैसे कमाये, वो सब कुछ अपने बेटे बेटियों के लिए कर दिया, जो एक सामान्य मां – बाप कभी नहीं कर सकते, पर क्या लालू ही बताये, जो राजनीतिक उचाईयों उन्होंने छूई क्या उनके संतान भी ऐसी उंचाई छू सकते हैं।
उत्तर होगा -- नहीं
आर्थिक क्षेत्रों की ओर नजर डाले – जिस धीरु भाई अंबानी ने नया कार्यक्षेत्र का शुभारंभ किया, उनके बेटे उस क्षेत्र को नई दिशा जरुर दे रहे हैं, पर वे धीरु भाई अंबानी नहीं बन सकतें, क्योंकि खोज एक अलग चीज हें, और उसे आगे बढ़ाना दूसरी चीज।
परतंत्रता की बेड़ी में पड़े भारतवर्ष में टाटा आयरण एंड स्टील कंपनी को खोलनेवाले जमशेदजी टाटा ने जो करामात उस वक्त दिखाई क्या जमशेदजी टाटा के जैसा, उन्हीं के यहां कोई दूसरा जमशेदजी टाटा बन सका।
वर्तमान राजनीतिक क्षेत्र में देखे – मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी सभी सामान्य वर्ग से आते हैं, राजनीतिक बुलंदियों को छूआ हैं, ये आर्थिक और सामाजिक सम्मान में किसी से भी कम नहीं पर ये भी चाहे कि अपने परिवारवालों को वो चीजें दिला दें जो उन्होंने पाया। असंभव हैं।
क्योंकि वो चीजें पाने के लिए आपको भी औरों से हटकर कुछ विशेष काम करने होंगे और इनमें जो सबसे ज्यादा जरुरी हैं वो हैं – चरित्र, जिसकी सभी ने अब तिलांजलि एक तरह से दे दी हैं। सभी को लगता हैं कि धन कमाओं और इस धन से वे सारी चीजें खरीद लों, जिसकी वे चाहत रखते हैं, पर उन्हें ये मालूम नहीं कि धन से दवा खरीदी जा सकती हैं, पर दुआएं नहीं, धन से भोजन खऱीदा जा सकता हैं और पर भूख को शांत नहीं किया जा सकता, धन से सुख के सारे संसाधन खऱीदे जा सकते हैं, पर सुख नहीं। फिर भी धन कमाने की होड़, और इस होड़ में एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा हैं।
मैं, जिस गांव में पला बढ़ा हूं, उस गांव में दो धनाढ्य थे, जिनके पास धन और जमीन की कोई कमी नहीं थी, पर आज उन्हीं दो धनाढ्यों के बच्चों ने उन संपत्तियों को एक – एक कर बेचना शुरु कर दिया आज के डेट में उनके पास खाने तक को कुछ नहीं, ऐसे में इस प्रकार के धन कमाने से क्या फायदा।
हाल ही में पटना के एक अधिकारी, के यहां छापा पड़ा, जनाब छापे और पकड़ाने के भय से परिवार के साथ पर्व त्योहार भी नहीं मना सकें, बच्चे पापा को खोज रहे थे, पर पापा पता नहीं कहां थे।
समाज का कोई भी क्षेत्र हो गर आप उसमें भाग ले रहे हैं और उसमे सच्चरित्रता का समावेश कर लेते हैं तो आपका जीवन धन्य हो जाता हैं, पर जहां उसमें चारित्रिक पतन का समावेश करते हैं तो सिर्फ आप धनपशु कहलाते हैं, और इसके बाद जो पशु की जिंदगी होती हैं, वो आपकी जिंदगी हो जाती हैं, आखिर आप इस छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते।
स्वतंत्रता के पूर्व भारत में शिक्षा का अभाव था पर चरित्रता व ज्ञान की वैशिष्टयता का अभाव नहीं था, पर आज क्या हैं, शिक्षा और संचार क्रांति में भारत जैसे जैसे आगे बढ़ रहा हैं, ठीक वैसे – वैसे चरित्र और ज्ञान की वैशिष्ट्यता का अभाव भी तेजी से बढ़ता चला जा रहा हैं। आज स्कूलों – कालेजों में बच्चें सब कुछ बन रहे हैं, पर आदमी नहीं बन रहे. यहीं आदमी का नहीं बनना भारत जैसे देश के लिए काल बनता चला जा रहा हैं, जो आपस में ही इतनी दूरियां तय कर दे रहा हैं कि कल भाई ही भाई के खिलाफ तलवार निकालकर, भारतीयता को ही नष्ट कर देने को उतावला हो जाये तो इसे अतिश्योक्ति नहीं माना जाना चाहिए

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