ईसाई मिशनरियों ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत
"वनवासी" शब्द पर अपनी आपत्ति दर्ज क्या करा दी? कुछ लोग वनवासी शब्द से ही
चिढ़ने लगे, जबकि सच्चाई यह है कि मिशनरियों के धर्मांतरण और अनुसूचित जन
जातियों के मूल धर्म से अलग करने की उनकी हरकतों की आलोचना और प्रतिकार
स्वयं उसी समय के अनेक आदिवासी महापुरुषों ने किया। भगवान बिरसा मुंडा का
प्रमाण सबके सामने है, पर इन दिनों देख रहा हूं कि मिशनरियों ने एक बार फिर
वनवासी के नाम पर वो गंदी हरकत शुरु की है, जिससे समाज में एक बार फिर विष घुल रहा है...आखिर मिशनरियां ये विष क्यों घोल रही है, हमें लगता है कि यहां बताना जरुरी है।
इन दिनों आदिवासियों का एक बहुत बड़ा वर्ग मिशनरियों के धर्मांतरण के कुचक्र से लोहा ले रहा है और अपने बंधुओं को सरना धर्म में लौटने की मुहिम चला रखी है, जिससे उनके धर्मांतरण की मुहिम की हवा निकल गयी है, इसलिए वे बेतुके शब्दों के माध्यम से विष-बेली बो रहे है,ताकि समाज में नफरत की वो बुनियाद तैयार हो, जिससे मिशनरियां अपनी रोटी सेंक सकें। हमें अच्छी तरह पता है कि इसके लिए खाद - बीज कहां से उन्हें उपलब्ध हो रहा है...
और अब बात उनसे जो वनवासी शब्द पर आपत्ति दर्ज करा रहे है?
जब हम वनों में रहेंगे, तो हम भी वनवासी कहलायेंगे, इसमें दिक्कत क्या है...सिर्फ आदिवासी ही वनवासी के पर्याय नहीं है, अगर कोई ये सोचता है, तो कृपया अपने दिमाग से इस विकार को निकाल दें...सिर्फ आदिवासी को जो लोग सिर्फ वनवासी कहते है, वे मूरख ही होंगे...राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण और अपनी पत्नी के साथ 14 वर्षों तक वनों में रहे, वनवासी कहलाये। पांडव वनों में रहे, वनवासी कहलाये...एक समय था पूरा भारत वनों से ढंका था, सभी वनवासी कहलाये...आज भी जिसे हम चंपारण कहते हैं, वह चंपा और अरण्य शब्द से ही बना है, आरा अरण्य का ही अपभ्रंश है, आज भी दारुकावन, दंडकारण्य आदि कई नाम है, जो वन और वहां के वाशिदों का प्रतिनिधित्व करते है... जो आदिवासी ये सोचते है कि वनवासी सिर्फ उन्हीं के लिए बना है, तो माफ करें...मुझे भी वनवासी कहलाने में उतना ही गर्व महसूस होगा, जितना की नगरवासी या भारतवासी कहलाने में...ये तो कुछ घटियास्तर के बुद्धिजीवियों की दिमाग में उपजी घटियास्तर की मानसिक दिवालियापन है, कि इस सुंदर शब्द में भी अलगाववाद और कुत्सितविचारों का बीजारोपण कर दिये है...ईश्वर उन्हें सदबुद्धि दें ताकि वे शब्दों का सही अर्थ निकाल सकें....
इन दिनों आदिवासियों का एक बहुत बड़ा वर्ग मिशनरियों के धर्मांतरण के कुचक्र से लोहा ले रहा है और अपने बंधुओं को सरना धर्म में लौटने की मुहिम चला रखी है, जिससे उनके धर्मांतरण की मुहिम की हवा निकल गयी है, इसलिए वे बेतुके शब्दों के माध्यम से विष-बेली बो रहे है,ताकि समाज में नफरत की वो बुनियाद तैयार हो, जिससे मिशनरियां अपनी रोटी सेंक सकें। हमें अच्छी तरह पता है कि इसके लिए खाद - बीज कहां से उन्हें उपलब्ध हो रहा है...
और अब बात उनसे जो वनवासी शब्द पर आपत्ति दर्ज करा रहे है?
जब हम वनों में रहेंगे, तो हम भी वनवासी कहलायेंगे, इसमें दिक्कत क्या है...सिर्फ आदिवासी ही वनवासी के पर्याय नहीं है, अगर कोई ये सोचता है, तो कृपया अपने दिमाग से इस विकार को निकाल दें...सिर्फ आदिवासी को जो लोग सिर्फ वनवासी कहते है, वे मूरख ही होंगे...राम अपने छोटे भाई लक्ष्मण और अपनी पत्नी के साथ 14 वर्षों तक वनों में रहे, वनवासी कहलाये। पांडव वनों में रहे, वनवासी कहलाये...एक समय था पूरा भारत वनों से ढंका था, सभी वनवासी कहलाये...आज भी जिसे हम चंपारण कहते हैं, वह चंपा और अरण्य शब्द से ही बना है, आरा अरण्य का ही अपभ्रंश है, आज भी दारुकावन, दंडकारण्य आदि कई नाम है, जो वन और वहां के वाशिदों का प्रतिनिधित्व करते है... जो आदिवासी ये सोचते है कि वनवासी सिर्फ उन्हीं के लिए बना है, तो माफ करें...मुझे भी वनवासी कहलाने में उतना ही गर्व महसूस होगा, जितना की नगरवासी या भारतवासी कहलाने में...ये तो कुछ घटियास्तर के बुद्धिजीवियों की दिमाग में उपजी घटियास्तर की मानसिक दिवालियापन है, कि इस सुंदर शब्द में भी अलगाववाद और कुत्सितविचारों का बीजारोपण कर दिये है...ईश्वर उन्हें सदबुद्धि दें ताकि वे शब्दों का सही अर्थ निकाल सकें....
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