Friday, October 23, 2015

आनन्द की खोज.............

कल विजयादशमी समाप्त हो गयी। सभी ने आनन्द प्राप्त किया है। हर का आनन्द अलग – अलग प्रकार का है। किसी ने प्रभुता का ढूंढ लिया तो किसी ने हमेशा की तरह उस आनन्द की खोज की, जो एक पशु की चाहत होती है.....
आखिर एक पशु की पहली और अंतिम चाहत क्या है?
भोजन व मैथुन।
मैंने भी हमेशा की तरह आनन्द की खोज के लिए अपने घर से निकला। सपरिवार एक साथ निकले और एक साथ घर पहुंचे। इस दौरान अनेक कौतुक देखे, जो हम आप तक पहुंचाना चाहते है, शायद आप को कुछ प्राप्त हो.........
हमने देखा कि रांची में बड़े – बड़े पंडाल बने थे। ये पंडाल कहीं बड़े-बड़े ठेकेदारों, व्यापारियों के समूह, आला दर्जे के बेईमान व राज्य व केन्द्र सरकार के करों की चोरी करनेवालों के द्वारा बनाये गये थे, जिसका उद्घाटन ठीक उसी प्रकार के राजनीतिज्ञों व मंत्रियों के द्वारा हो रहा था। पंडाल व देवी प्रतिमाओं से जूड़े पूजा समितियों के मुख पर इस भाव का आनन्द था कि उन्होंने अपने कुकृत्यों को इस प्रकार के आयोजन से धो डाला है, जबकि राजनीतिज्ञों के मुख पर इस भाव का आनन्द था कि देखों हम तो भगवान से भी बड़े है। इनका उद्घाटन बिना हमारे संभव ही नहीं है।
अखबार वाले आनन्द पाने के चक्कर में इससे भी आगे निकल गये थे, वे मां की प्रतिमाओं व उनके दरबार का आकलन जजों के द्वारा करा रहे थे, तो कोई एसएमएस मंगवा रहा था। पूछ रहा था कि कहां की प्रतिमा और कहां का पंडाल बहुत सुंदर बना है? यानी मां और महाशक्ति को प्रतिमा मे तौल कर व जजों द्वारा तुलवा कर परम आनन्द की प्राप्ति की। चौकियेगा मत, जल्द ही ये आयोजन कर मां की प्रतिमाओँ को सर्वश्रेष्ठ बता कर अन्य सभी मां की प्रतिमाओं को नीचे भी गिरायेंगे और यहीं बात मां के दरबार यानी पंडालों पर लागू होगी। यानी हम बाजारीकरण और व्यवसायीकरण की आड़ में अपनी श्रद्धा और भक्ति को भी नीलाम कर दिया, क्योंकि हमें आनन्द जो प्राप्त करनी है।
इन्हीं में से कई दर्शनार्थियों को देखा, जो मां के दर्शन के लिए निकले थे, पर बालाओं के कपोलों और उनके वस्त्रों की ओर अनायास ही खीचे जा रहे थे, यानी उनका आनन्द इन्हीं पर सिमट जा रहा था।
अपने बाल – गोपाल के साथ निकले कई मां के भक्तों को देखा कि उनका आनन्द इस ओर था कि उनके बच्चों ने मेले का आनन्द लिया या नहीं। वे पूछते – तुमने मूर्ति देखी, तुम ने देखा कि बिजली से कैसे बाघ दहाड़ रहा था?, कैसे विष्णु की प्रतिमा जगमग कर रही थी? आदि सवालों से उनका और अपना मनोरंजन कर रहे थे।
रांची जंक्शन पर देखा भारी भीड़ थी। आयोजक की जय – जय हो रही थी, होर्डिंग्स में भी आयोजक के बड़े – बड़े फोटो लगे थे, फोटो में आयोजक चुनरी लिये दीख रहा था, मानो दुनिया का सबसे बड़ा मां का भक्त वहीं है। यहां रेलवे के भ्रष्ट अधिकारियों का समूह व आयोजक के शुभचिंतकों का समूह व मीडिया व प्रशासन के लोग बड़ी आसानी से दर्शन कर रहे थे, ठीक उसी प्रकार जैसे – बड़े मंदिरों में विशिष्ट लोगों के लिए अलग सुविधाएं होती है। वह दृश्य यहां साफ दीख रहा था। यहां आयोजक इस बात को लेकर आनन्दित था कि उसने ऐसी कलाकृति पेश कर दी, कि लोगों का झूंड उसी के आगे माथे झूका रहा है। रेलवे के भ्रष्ट अधिकारियों का समूह, इस बात को लेकर आनन्दित था कि रेलवे कार्यालय में तो उसका डंका बजता ही है, मां के दरबार में भी उसी की बजती है, और सामान्य जन इस बात को लेकर आनन्दित था कि वह तो हमेशा की तरह ठेलमठेल की जिंदगी जीता है, यहां भी जी रहा हैं तो क्या गलत है? और जो ये भीड़ देखकर कांप गया, वह दूर से ही यह कहकर प्रणाम कर लिया कि भाई भगवान तो दिल में रहते है.......
विभिन्न पंडालों के आस पास भिखमंगों की भी फौज दिखाई पड़ी, उसका आनन्द इसमें समाया था कि उसके कटोरे में इस दुर्गापूजा में कितने पैसे पड़े है?, जबकि सड़कों पर कुकरमुत्ते की तरह उगे चाट दुकानों को इस बात के आनन्द की फिक्र थी कि इस बार उसके चाट दुकानों में कितने ग्राहकों ने चाट का लुफ्त उठाया और उसकी आमदनी में बढ़ोतरी हुई या नहीं।
सड़कों पर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का झूंड, विभिन्न खिलौनों को लेकर उतर गया था। उसे न तो आज हिंदू से मतलब रह गया था और न मुस्लिम से। आज उसका आनन्द व ईमान इस बात पर केन्द्रित था कि आज उसकी आमदनी कितनी होगी? जब कोई खिलौना उससे खरीदता तो उसके चेहरे की मुस्कान देखते बनती और जब कोई मोल-जोल कर भी नहीं खरीदता तो उसके चेहरे का भाव भी देखते बनता, उसकी मायूसी दिल को तोड़ देती।
रांची विश्वविद्यालय के मुख्यालय के पास, हर साल की भांति इस साल भी व्यवसायियों का एक ग्रुप भंडारा लगा रखा था। वह रास्ते में चलते मां के भक्तों को पुकारता, उन्हें दो पुड़ियां और सब्जी खिलाता और कहता ये प्रसाद है, ग्रहण करें, यहां पानी की भी अच्छी व्यवस्था थी। यानी यहां के लोगों को खिलाने में आनन्द था, शायद ये जान गये थे कि असली आनन्द तो सेवा में है। उपनिषद् तो कहता ही है – सेवा परमो धर्मः।
और अंत में
एक पहाड़ी मंदिर में एक अधेड़ महिला, एक बैग में बहुत सारे केले रखी थी, वह पहाड़ी मंदिर जानेवाली किसी भी लड़की को रोकती, उसे तिलक लगाती और उसे एक केले देती और फिर बाद में उसके पांव छू लेती। शायद उसे लगता था कि आज का दिन, ऐसा करने से उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी या मनोवांछित फल प्राप्त हो जायेगा। हम कहेंगे कि ऐसा संभव है और संभव हैं भी नहीं, पर इतना तो जरुर है कि जब वो महिला बालिकाओं के साथ ऐसा व्यवहार करती थी तब उन छोटी बालिकाओं की खुशियां देखते बनती, जो खुशियां बिखेरेगा, वहीं तो परम आनन्द की प्राप्ति करेगा, वहीं देवत्व को प्राप्त करेगा, बाकी क्या प्राप्त करेंगे, खुद ही जान लें, व समझ लें..................

No comments:

Post a Comment