राज्य
सरकार ने राज्य के आदिवासियों के हित के लिए एसपीटी और सीएनटी में बदलाव
करने का फैसला लिया। इस फैसले से आदिवासियों का एक बहुत बड़ा तबका, जो
चाहता है कि आदिवासियों के जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव हो, वह बहुत ही खुश
है, पर एक तबका इस पर राजनीति कर, अपना चेहरा चमकाने को बेताब है। जो अपना
चेहरा चमकाना चाहता है, वह यहां के मिशनरियों से अनुप्राणित है। मिशनरियां
भी चाहती है कि जिस प्रकार डोमिसाइल आंदोलन की आग को उन्होने हवा दी थी,
इसे भी अपने ढंग से हवा देकर इस मुद्दे को आग की तरह फैला दे, ताकि रघुवर
सरकार की जमकर किरकिरी हो जाय, पर इसके विपरीत न लाभ और न हानि, न सत्ता का
लोभ, न कुछ पाने की इच्छा ने मुख्यमंत्री रघुवर दास को स्थानीय नीति और
अब एसपीटी और सीएनटी पर हीरो के रूप में झारखण्ड में स्थापित कर दिया है।
जिसको लेकर राज्य के छोटे से लेकर बड़े आदिवासी नेताओं की हवा निकल गयी।
पिछले दिनों गुपचुप तरीके से आदिवासियों की रैली आयोजित करने के बाद, आज
बाबूलाल मरांडी का ग्रुप आदिवासी आक्रोश रैली का आयोजन किया। इस रैली के
सफल आयोजन के लिए खूब मेहनत की गयी। जमकर गांव-गांव का परिभ्रमण किया गया।
मिशनरियों से भी सहयोग लिया गया। उन सारे लोगों के पांव पकड़े गये, जो किसी
न किसी प्रकार से आदिवासी समुदाय के नाम पर नेतागिरी चमकाते है, क्योंकि
उन्हें लग रहा था कि कहीं आदिवासी के नाम पर उनकी नेतागिरी न छिन जाये।
राज्य व राष्ट्रस्तर पर जो आदिवासी नेता का बड़ा लेबल लगा है, वह न छिन
जाये। मोराबादी से लेकर कचहरी चौक तक लाउडस्पीकर का बंदोबस्त किया गया, पर
भीड़ उतनी नहीं जूट सकी, जितना का उन्होंने ऐलान कर रखा था।
दूसरी ओर रांची से प्रकाशित एक अखबार हिन्दुस्तान की सारी टीम इस रैली के आयोजन के पूर्व ही आयोजनकर्ताओं के आगे नतमस्तक हो गयी। खूब जमकर तारीफ के पूल बांधे। प्रथम पृष्ठ से लेकर अंदर के पृष्ठों तक आदिवासी आक्रोश रैली के गुणगान छापे। प्रथम पृष्ठ पर तो इस अखबार ने एक प्रकार से आदिवासी आक्रोश रैली के नाम पर दहशत फैलाने की कोशिश की। यह लिखकर कि “रांची की सड़कें आज प्रदर्शनकारियों से रहेंगी जाम” पर खुशी इस बात की कि आज प्रशासन ने इस प्रकार की व्यवस्था कर दी थी कि कहीं भी कोई जाम नहीं लगा, नहीं तो यकीन मानिये हिन्दुस्तान इसे भी बढ़ा-चढ़ा कर दूसरे दिन छाप देता, पर हिन्दुस्तान अखबार की हेकड़ी निकल गयी। ऐसे भी रांची में कोई अखबार नहीं, जो दूध का धुला हो, सभी पत्रकारिता छोड़ दुकान खोलकर बैठ गये है और जिसमें उनका हित सधता है, उस प्रकार से वे अपना दिमाग सेट कर कभी सरकार के खिलाफ तो कभी किसी नेता के खिलाफ तो कभी किसी संगठन के खिलाफ लिख चलते है और जैसे ही इनका विज्ञापनों से मुंह बंद कर दिया जाता है, फिर ये उसकी स्तुति गाने लगते है।
रांची से प्रकाशित ही एक अखबार है – राष्ट्रीय सागर। बहुत ही छोटा अखबार, पता नहीं आप जानते है या नहीं। इसी में काम करते है एक पत्रकार उमाकांत महतो। उनका एक आलेख छपा है, आज प्रथम पृष्ठ पर। शीर्षक है – पहला संशोधन 1914 में और 26वां 1995 में, अगर ये आर्टिकल आप पढ़े तो आपको पता लग जायेगा कि अब तक छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में 26 बार संशोधन हो चुके है। अब मेरा सवाल है कि केवल 1914 से लेकर 1995 तक जब 26 संशोधन हो चुके है तो फिर इस बार के संशोधन से आदिवासियों के लिए नेतागिरी करनेवाले, आदिवासी नेता और मिशनरियों के पेट में दर्द क्यों? मैं पूछता हूं कि अब तक 26 संशोधनों को अपने माथे पर ढोनेवाले आज झारखण्ड बनने के बाद रघुवर दास द्वारा लिये गये सही निर्णयों को नहीं मानने के लिए आंदोलन को हवा क्यों दे रहे है? आखिर आदिवासी आक्रोश रैली के नाम पर भीड़ क्यों जुटाई जा रही है। जरा पूछिये, बाबू लाल मरांडी, शिबू सोरेन, सूरज सिंह बेसरा और डोमिसाइल आंदोलन की उपज बंधु तिर्की से, कि वे इन 26 संशोधनों पर क्या कहते है?
• आखिर एक ही जगह पर एक आदिवासी परिवार और एक सामान्य परिवार की जमीन की बिक्री में आकाश और जमीन का अंतर क्यों होता है?
• आखिर एक आदिवासी परिवार अपने जमीन पर केवल कृषि और कृषि से जुड़ा ही कार्य क्यों करें, अन्य कार्य जैसे अन्य समुदाय के लोग करते है, उस पर लागू क्यों न हो, ताकि उसका भी आर्थिक उन्नयन हो।
ये दो सवाल ऐसे है, जिसे लेकर सारा आदिवासी समुदाय पहली बार इस प्रकार की भ्रांतियों से उबरने की कोशिश कर रहा है। हमें खुशी है कि राज्य सरकार ने इन नेताओं द्वारा फैलायी जा रही भ्रांतियों को समय रहते दूर करने की कोशिश की।
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धारा 21 एवं धारा 13 संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम के तहत रैयत अपनी जमीन का उपयोग सिर्फ कृषि और कृषि से जुड़े कार्यों के लिए ही कर सकते है, यानी उन्हें अपनी ही जमीन का गैर कृषि कार्यों के लिए उपयोग करने का अधिकार प्राप्त नहीं है, ऐसे में अगर वे चाहे कि अपनी जमीन पर, मैरिज हॉल, होटल, ढाबा, दुकान या अपनी मर्जी का कोई और प्रतिष्ठान खोल सकें तो वे ऐसा नहीं कर सकते, ऐसे में उनका आर्थिक विकास कैसे होगा, वे सशक्त कैसे होंगे। ये सब को सोचना होगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने उनके आर्थिक उन्नयन के लिए संशोधन का प्रस्ताव रखा है, ताकि वे अपनी जमीन का अपनी मर्जी से अपने हित में सही इस्तेमाल कर सकें, साथ ही अपना विकास भी कर सकें। राज्य सरकार ने स्पष्ट कहा कि जो भ्रांतियां फैलायी जा रही है कि इससे आदिवासियों के जमीन पर उनका स्वामित्व खत्म हो जायेगा, वे गलत कर रहे है, पूर्णतः भ्रांति फैला रहे है। इस संशोधन से किसी भी रैयती के जमीन पर स्वामित्व के उसके अधिकार को कोई चुनौती दे ही नहीं सकता, बल्कि इससे उनके स्वामित्व का सही आर्थिक लाभ रैयतों को प्राप्त होगा।
राज्य सरकार ने अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखा और जनता से कहा कि इसके लिए वे जितना हिस्सा गैर कृषि कार्यों के लिये करेंगे, उतनी ही भूमि के बाजार मूल्य के अधिकतम एक प्रतिशत के बराबर ही उन्हें गैर कृषि लगान देना होगा। इससे रैयतों के अधिकार एवं स्वामित्व को और मजबूती मिलेगी। राज्य सरकार के अनुसार अगर कोई रैयत द्वारा ऐसे भूखण्ड पर गैर कृषि कार्य किया जा रहा है तो उसे नियमित भी किया जा सकेगा। जिससे रैयत भविष्य में होनेवाले कानूनी झंझट से भी बच जायेंगे, साथ ही कानूनी संरक्षण भी उन्हें प्राप्त हो जायेगा।
रघुवर सरकार ने यह भी कहा कि धारा 49 छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम में भी संशोधन प्रस्तावित है। चूंकि राज्य में चल रहे रेलवे, सड़क, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, विभिन्न प्रकार की जनोपयोगी परियोजनाओं के लिए जमीन की आवश्यकता होती है। अतः उक्त आवश्यकताओं को देखते हुए इसमें भी बदलाव की आवश्यकता है, जिससे जनकल्याणकारी योजनाओं के लिये कोई भी रैयत उपायुक्त से अनुमति प्राप्त कर अपनी भूमि जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए हस्तांतरित कर सकता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भूमि हस्तांतरित होगी, उनका कार्यान्वयन 5 वर्षों के अंदर करना होगा, अन्यथा संबंद्ध रैयतों को पूर्व में हस्तातंरण की गयी राशि बिना वापस किये उनकी भूमि उन्हें लौटा दी जायेगी।
पूर्व में राज्य के आदिवासियों की अवैध रूप से हस्तांतरित भूमि को उन्हें एसएआर कोर्ट द्वारा वापस करने का प्रावधान है। धारा 71 ए के द्वीतिय और तृतीय की आड़ में बिहार अनुसूचित क्षेत्र विनियमन अधिनियम 1969 में प्रावधानित नियमों के विपरीत 30 वर्षों के बाद भी एसएआर कोर्ट द्वारा कम्पन्शेसन का आदेश जमीन माफिया/जमीन दलाल प्राप्त कर आदिवासियों की जमीन हड़पने में सफल होते रहे है। धारा 71 ए में कम्पन्शेसन का प्रावधान ही हटा दिया गया है तथा 6 महीने के अंदर आदिवासियों की जमीन उन्हें वापस करने का प्रावधान कर दिया गया है। ऐसे में ये कहना कि इन संशोधनों से आदिवासियों का अहित होगा, वह पूर्णतः गलत है, सच्चाई यह है कि इससे आदिवासियों का ही हित सधेगा।
दूसरी ओर रांची से प्रकाशित एक अखबार हिन्दुस्तान की सारी टीम इस रैली के आयोजन के पूर्व ही आयोजनकर्ताओं के आगे नतमस्तक हो गयी। खूब जमकर तारीफ के पूल बांधे। प्रथम पृष्ठ से लेकर अंदर के पृष्ठों तक आदिवासी आक्रोश रैली के गुणगान छापे। प्रथम पृष्ठ पर तो इस अखबार ने एक प्रकार से आदिवासी आक्रोश रैली के नाम पर दहशत फैलाने की कोशिश की। यह लिखकर कि “रांची की सड़कें आज प्रदर्शनकारियों से रहेंगी जाम” पर खुशी इस बात की कि आज प्रशासन ने इस प्रकार की व्यवस्था कर दी थी कि कहीं भी कोई जाम नहीं लगा, नहीं तो यकीन मानिये हिन्दुस्तान इसे भी बढ़ा-चढ़ा कर दूसरे दिन छाप देता, पर हिन्दुस्तान अखबार की हेकड़ी निकल गयी। ऐसे भी रांची में कोई अखबार नहीं, जो दूध का धुला हो, सभी पत्रकारिता छोड़ दुकान खोलकर बैठ गये है और जिसमें उनका हित सधता है, उस प्रकार से वे अपना दिमाग सेट कर कभी सरकार के खिलाफ तो कभी किसी नेता के खिलाफ तो कभी किसी संगठन के खिलाफ लिख चलते है और जैसे ही इनका विज्ञापनों से मुंह बंद कर दिया जाता है, फिर ये उसकी स्तुति गाने लगते है।
रांची से प्रकाशित ही एक अखबार है – राष्ट्रीय सागर। बहुत ही छोटा अखबार, पता नहीं आप जानते है या नहीं। इसी में काम करते है एक पत्रकार उमाकांत महतो। उनका एक आलेख छपा है, आज प्रथम पृष्ठ पर। शीर्षक है – पहला संशोधन 1914 में और 26वां 1995 में, अगर ये आर्टिकल आप पढ़े तो आपको पता लग जायेगा कि अब तक छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में 26 बार संशोधन हो चुके है। अब मेरा सवाल है कि केवल 1914 से लेकर 1995 तक जब 26 संशोधन हो चुके है तो फिर इस बार के संशोधन से आदिवासियों के लिए नेतागिरी करनेवाले, आदिवासी नेता और मिशनरियों के पेट में दर्द क्यों? मैं पूछता हूं कि अब तक 26 संशोधनों को अपने माथे पर ढोनेवाले आज झारखण्ड बनने के बाद रघुवर दास द्वारा लिये गये सही निर्णयों को नहीं मानने के लिए आंदोलन को हवा क्यों दे रहे है? आखिर आदिवासी आक्रोश रैली के नाम पर भीड़ क्यों जुटाई जा रही है। जरा पूछिये, बाबू लाल मरांडी, शिबू सोरेन, सूरज सिंह बेसरा और डोमिसाइल आंदोलन की उपज बंधु तिर्की से, कि वे इन 26 संशोधनों पर क्या कहते है?
• आखिर एक ही जगह पर एक आदिवासी परिवार और एक सामान्य परिवार की जमीन की बिक्री में आकाश और जमीन का अंतर क्यों होता है?
• आखिर एक आदिवासी परिवार अपने जमीन पर केवल कृषि और कृषि से जुड़ा ही कार्य क्यों करें, अन्य कार्य जैसे अन्य समुदाय के लोग करते है, उस पर लागू क्यों न हो, ताकि उसका भी आर्थिक उन्नयन हो।
ये दो सवाल ऐसे है, जिसे लेकर सारा आदिवासी समुदाय पहली बार इस प्रकार की भ्रांतियों से उबरने की कोशिश कर रहा है। हमें खुशी है कि राज्य सरकार ने इन नेताओं द्वारा फैलायी जा रही भ्रांतियों को समय रहते दूर करने की कोशिश की।
छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धारा 21 एवं धारा 13 संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम के तहत रैयत अपनी जमीन का उपयोग सिर्फ कृषि और कृषि से जुड़े कार्यों के लिए ही कर सकते है, यानी उन्हें अपनी ही जमीन का गैर कृषि कार्यों के लिए उपयोग करने का अधिकार प्राप्त नहीं है, ऐसे में अगर वे चाहे कि अपनी जमीन पर, मैरिज हॉल, होटल, ढाबा, दुकान या अपनी मर्जी का कोई और प्रतिष्ठान खोल सकें तो वे ऐसा नहीं कर सकते, ऐसे में उनका आर्थिक विकास कैसे होगा, वे सशक्त कैसे होंगे। ये सब को सोचना होगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने उनके आर्थिक उन्नयन के लिए संशोधन का प्रस्ताव रखा है, ताकि वे अपनी जमीन का अपनी मर्जी से अपने हित में सही इस्तेमाल कर सकें, साथ ही अपना विकास भी कर सकें। राज्य सरकार ने स्पष्ट कहा कि जो भ्रांतियां फैलायी जा रही है कि इससे आदिवासियों के जमीन पर उनका स्वामित्व खत्म हो जायेगा, वे गलत कर रहे है, पूर्णतः भ्रांति फैला रहे है। इस संशोधन से किसी भी रैयती के जमीन पर स्वामित्व के उसके अधिकार को कोई चुनौती दे ही नहीं सकता, बल्कि इससे उनके स्वामित्व का सही आर्थिक लाभ रैयतों को प्राप्त होगा।
राज्य सरकार ने अपना स्पष्ट दृष्टिकोण रखा और जनता से कहा कि इसके लिए वे जितना हिस्सा गैर कृषि कार्यों के लिये करेंगे, उतनी ही भूमि के बाजार मूल्य के अधिकतम एक प्रतिशत के बराबर ही उन्हें गैर कृषि लगान देना होगा। इससे रैयतों के अधिकार एवं स्वामित्व को और मजबूती मिलेगी। राज्य सरकार के अनुसार अगर कोई रैयत द्वारा ऐसे भूखण्ड पर गैर कृषि कार्य किया जा रहा है तो उसे नियमित भी किया जा सकेगा। जिससे रैयत भविष्य में होनेवाले कानूनी झंझट से भी बच जायेंगे, साथ ही कानूनी संरक्षण भी उन्हें प्राप्त हो जायेगा।
रघुवर सरकार ने यह भी कहा कि धारा 49 छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम में भी संशोधन प्रस्तावित है। चूंकि राज्य में चल रहे रेलवे, सड़क, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, विभिन्न प्रकार की जनोपयोगी परियोजनाओं के लिए जमीन की आवश्यकता होती है। अतः उक्त आवश्यकताओं को देखते हुए इसमें भी बदलाव की आवश्यकता है, जिससे जनकल्याणकारी योजनाओं के लिये कोई भी रैयत उपायुक्त से अनुमति प्राप्त कर अपनी भूमि जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए हस्तांतरित कर सकता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भूमि हस्तांतरित होगी, उनका कार्यान्वयन 5 वर्षों के अंदर करना होगा, अन्यथा संबंद्ध रैयतों को पूर्व में हस्तातंरण की गयी राशि बिना वापस किये उनकी भूमि उन्हें लौटा दी जायेगी।
पूर्व में राज्य के आदिवासियों की अवैध रूप से हस्तांतरित भूमि को उन्हें एसएआर कोर्ट द्वारा वापस करने का प्रावधान है। धारा 71 ए के द्वीतिय और तृतीय की आड़ में बिहार अनुसूचित क्षेत्र विनियमन अधिनियम 1969 में प्रावधानित नियमों के विपरीत 30 वर्षों के बाद भी एसएआर कोर्ट द्वारा कम्पन्शेसन का आदेश जमीन माफिया/जमीन दलाल प्राप्त कर आदिवासियों की जमीन हड़पने में सफल होते रहे है। धारा 71 ए में कम्पन्शेसन का प्रावधान ही हटा दिया गया है तथा 6 महीने के अंदर आदिवासियों की जमीन उन्हें वापस करने का प्रावधान कर दिया गया है। ऐसे में ये कहना कि इन संशोधनों से आदिवासियों का अहित होगा, वह पूर्णतः गलत है, सच्चाई यह है कि इससे आदिवासियों का ही हित सधेगा।
No comments:
Post a Comment