दिनांक 24 अक्टूबर, दिन सोमवार को
हजारीबाग के बड़कागांव में बीते दिनों हुई पुलिस फायरिंग के विरोध में
कांग्रेस, झाविमो, राजद, जदयू और सभी वामदलों एवं आदिवासी नामधन्य संगठनों
ने झारखण्ड बंद का ऐलान किया था। इस बंद को राज्य की प्रमुख विपक्षी दल
झामुमो ने भी अपना नैतिक समर्थन दिया था। कुल मिलाकर कहें तो भाजपा को
छोड़कर सभी दलों ने बंद बुलाया था, जिस प्रकार बंद की तैयारी थी, उस प्रकार
से तो ये बंद ऐतिहासिक हो जानी चाहिए थी, पर आम जनता द्वारा इस बंद को
नकार दिये जाने के कारण ये बंद प्रभावहीन दिखा। हम आपको यह भी बता दें कि
इस बंद को एक प्रकार से रांची के प्रमुख राष्ट्रीय और क्षेत्रीय अखबारों ने
भी अपना नैतिक समर्थन दिया था। एक अखबार जो स्वयं को अखबार नहीं आंदोलन
कहता है, उसने तो इस आंदोलन को दमदार आंदोलन की संज्ञा दे डाली थी, पर उसे
कल अवश्य घोर निराशा हाथ लगी होगी कि उसके इस दमदार आंदोलन में रांची में
मात्र 472 बंद समर्थक ही सड़क पर दीखे, जो गिरफ्तार हुए। अगर हम झारखण्ड
बंद की बात करें, तो पूरे झारखण्ड में बंद का मिला-जुला असर दिखा। राज्य के
प्रमुख महानगरों जैसे रांची, जमशेदपुर, धनबाद व डालटनगंज में बंद का कोई
असर नहीं दिखा। रांची में तो दोपहर के 12 बजे, जिंदगी आमदिनों की तरह दिखी।
सर्वाधिक मजा तो धनबाद में बंद के दौरान दिखा। बंद करानेवाले नेता मुकदमे के डर से स्वयं ही सेल्फी लेकर अपना फोटो पत्रकारों को उपलब्ध करा रहे थे। स्थिति ऐसी थी कि धनबाद में ज्यादातर नेता ड्रामेबाजी में ही मशगुल दीखे। कांग्रेस का एक नेता संतोष सिंह सुबह में राजधानी एक्सप्रेस को रोकने धनबाद स्टेशन पहुंचा, ट्रेन के आने पर फोटो खिंचवाई और चलता बना। झाविमो का रमेश राही का भी यहीं हाल था, सुबह बंद कराने निकले, स्टेशन पहुंचे, चेहरा चमकाये और चल दिये। जदयू के पिंटू सिंह का भी यही हाल था, यानी जेल और मुकदमे के डर ने इन नेताओं का गला सूखा दिया था।
आखिर ये बंद क्यों असफल रहा? इस बंद के असफल होने का मूल कारण, बंद के तिथि का समय ठीक नहीं होना है। चूंकि दीपावली है, धनतेरस है, धन्वतंरि जयंती है, भैया दूज है, छठ महापर्व का आगमन है, इन सारे पर्व – त्यौहारों के कारण बंद की हवा निकल गयी और जनता ने इस बंद से स्वयं को अलग रखा। शायद बंद समर्थक नेता व कार्यकर्ता इन बातों को समझने में असफल रहे।
बंद का भी एक समय होता है, आप जब बंद बुला लें और बंद का जनसमर्थन जुटा लें, ये संभव नहीं है। हां, अगर जनता का समर्थन चाहिए तो जनता का दिल भी टटोलना होगा, उनकी मनोदशा का भी आकलन करना होगा।
एक बात और, यहां की जनता पिछले 15 सालों से बंद का दंश झेलकर आजीज हो चुकी है, अब एक तरह से वह बंद से नफरत करने लगी है, ये बंद समर्थकों को समझना होगा। हां अब बंद का वे विकल्प तलाशें, अच्छा रहेगा कि ये बंद एकदिवसीय न होकर, कुछ घंटे का हो, जिसमें बंद समर्थक अपनी नीतियों को सरकार तक भी पहुंचा दें और आम जनता को तकलीफ भी नहीं हो। अगर इन विकल्पों पर राजनीतिक दलों ने नहीं सोचा, तो समझ लीजिये, राज्य की जनता उन्हें अच्छी तरह समझा देगी, क्योंकि ये राजनीतिज्ञ कोई दूध के धूले नहीं है, जनता सब समझती है...
एक बात और, भले ही बंद समर्थकों के बंद को रांची की जनता ने नकार दिया, पर झारखण्ड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने बंद को सम्मान देते हुए बंद समर्थकों के हौसले जरुर बुलंद कर दिये। उन्होंने अपने एक कार्यक्रम को झारखण्ड बंद के कारण रद्द कर दिया। जैसे उन्हें कल रांची के एक्सआइएसएस जाना था, पर वे वहां नहीं गयी और कह दिया कि चूंकि बंद है, इसलिए वे वहां जाने में असमर्थ है, यानी सरकार बंद में जनता के साथ और राज्यपाल बंद में बंद समर्थकों के साथ।
सर्वाधिक मजा तो धनबाद में बंद के दौरान दिखा। बंद करानेवाले नेता मुकदमे के डर से स्वयं ही सेल्फी लेकर अपना फोटो पत्रकारों को उपलब्ध करा रहे थे। स्थिति ऐसी थी कि धनबाद में ज्यादातर नेता ड्रामेबाजी में ही मशगुल दीखे। कांग्रेस का एक नेता संतोष सिंह सुबह में राजधानी एक्सप्रेस को रोकने धनबाद स्टेशन पहुंचा, ट्रेन के आने पर फोटो खिंचवाई और चलता बना। झाविमो का रमेश राही का भी यहीं हाल था, सुबह बंद कराने निकले, स्टेशन पहुंचे, चेहरा चमकाये और चल दिये। जदयू के पिंटू सिंह का भी यही हाल था, यानी जेल और मुकदमे के डर ने इन नेताओं का गला सूखा दिया था।
आखिर ये बंद क्यों असफल रहा? इस बंद के असफल होने का मूल कारण, बंद के तिथि का समय ठीक नहीं होना है। चूंकि दीपावली है, धनतेरस है, धन्वतंरि जयंती है, भैया दूज है, छठ महापर्व का आगमन है, इन सारे पर्व – त्यौहारों के कारण बंद की हवा निकल गयी और जनता ने इस बंद से स्वयं को अलग रखा। शायद बंद समर्थक नेता व कार्यकर्ता इन बातों को समझने में असफल रहे।
बंद का भी एक समय होता है, आप जब बंद बुला लें और बंद का जनसमर्थन जुटा लें, ये संभव नहीं है। हां, अगर जनता का समर्थन चाहिए तो जनता का दिल भी टटोलना होगा, उनकी मनोदशा का भी आकलन करना होगा।
एक बात और, यहां की जनता पिछले 15 सालों से बंद का दंश झेलकर आजीज हो चुकी है, अब एक तरह से वह बंद से नफरत करने लगी है, ये बंद समर्थकों को समझना होगा। हां अब बंद का वे विकल्प तलाशें, अच्छा रहेगा कि ये बंद एकदिवसीय न होकर, कुछ घंटे का हो, जिसमें बंद समर्थक अपनी नीतियों को सरकार तक भी पहुंचा दें और आम जनता को तकलीफ भी नहीं हो। अगर इन विकल्पों पर राजनीतिक दलों ने नहीं सोचा, तो समझ लीजिये, राज्य की जनता उन्हें अच्छी तरह समझा देगी, क्योंकि ये राजनीतिज्ञ कोई दूध के धूले नहीं है, जनता सब समझती है...
एक बात और, भले ही बंद समर्थकों के बंद को रांची की जनता ने नकार दिया, पर झारखण्ड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने बंद को सम्मान देते हुए बंद समर्थकों के हौसले जरुर बुलंद कर दिये। उन्होंने अपने एक कार्यक्रम को झारखण्ड बंद के कारण रद्द कर दिया। जैसे उन्हें कल रांची के एक्सआइएसएस जाना था, पर वे वहां नहीं गयी और कह दिया कि चूंकि बंद है, इसलिए वे वहां जाने में असमर्थ है, यानी सरकार बंद में जनता के साथ और राज्यपाल बंद में बंद समर्थकों के साथ।
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