प्यारे बच्चों,
आओ, आज मैं तुम्हें बताता हूं कि हमारे पूर्वज कैसे अभावों में भी शानदार ढंग से जीवन व्यतीत करते हुए अपने जीवन को समाज और देश के लिए उत्सर्ग कर देते थे। मैं कहूंगा कि तुम एक बात गिरह पार लो – तुम अपने जीवन में जितना आवश्यकताओं को सीमित करोगे, तुम उतना ही आनन्द प्राप्त करोगे और इसके विपरीत जितना तुम अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाओगे, तुम उतना ही दुख के सागर में डूबते चले जाओगे। कौन व्यक्ति कहां से धन ला रहा है? और कैसे वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति कर रहा है? – ऐसी सोच सामान्य बुद्धिवाले लोग रखते है, पर जो असामान्य है, वे इन बातों पर ध्यान ही नहीं देते। वे तो इस ओर ध्यान देते है कि उन्होंने अपने जीवन में ईमानदारी को वहन किया है या नहीं, जैसे ही उन्हें पता लगता है कि उनके पास आया धन बेईमानी से उन तक पहुंचा है, वे विचलित हो जाते है और उसका वे उपयोग करना भी पाप समझते है, ठीक इसके विपरीत अधम लोगों की प्रवृत्ति कैसी होती है? हमें लगता है तुम्हें बताने की जरुरत नहीं।
कहा भी गया है...
अधमा: धनम् इच्छन्ति, धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमा: मानम् इच्छन्ति, मानो हि महतां धनम्।।
अर्थात् जो दुष्ट होते हैं, उन्हें सिर्फ धन की इच्छा होती हैं, जो मध्यमवर्गीय है अर्थात जो न संत है, न अधम है, वे मध्यम मार्ग अपनाते है, उन्हें धन और मान दोनों की आवश्यकता होती है, पर जो संत प्रवृत्ति के लोग है, उनके जीवन में धन की इच्छा कभी नहीं रहती, उनके लिए तो सम्मान से बड़ा कोई धन है ही नहीं।
तुम जहां हो, वहां तुम्हें ये तीन प्रकार के लोग बराबर मिलेंगे, अब तुम्हें ये सोचना है कि तुम किस प्रकार के लोगों का वरण करो? या तुम्हारे मित्र या सखा किस प्रकार के लोग हो? ये निर्णय करने का अधिकार, मैं तुमलोगों पर छोड़ता हूं, मेरा स्वभाव क्या है? ये तुम जानते ही हो।
कुछ लोग कहते है कि जीने के लिए धन की आवश्यकता होती है, पर मैं कहता हूं कि जीने के लिए धन की आवश्यकता होती ही नहीं, और जितनी आवश्यकता होती है, उसका प्रबंध ईश्वर स्वयं कर देता है, ठीक उसी प्रकार जैसे...
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये, सब के दाता राम
हमें लगता है कि तुम इस दोहे का अर्थ समझ गये होंगे।
मैं स्वयं 50 वें वर्ष में हूं और जो मैंने तुम्हारे दादा-दादी और अपने गुरुजनों तथा भारत के महान आध्यात्मिक संतों के बताये मार्गों का अनुसरण किया है, उससे साफ पता चलता है कि जीवन में धन उतना महत्वपूर्ण नहीं।
ऐसे भी धन से आप खाट या पलंग खरीद सकते है, पर नींद नहीं। धन से आप स्वादिष्ट व्यजंनों को खरीद सकते है, पर उसका रसास्वादन कर पायेंगे, इसका जवाब खरीदनेवाले के पास भी नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों? इस पर चिन्तन की आवश्यकता है।
कुछ लोगों से मैं पूछता हूं कि महात्मा गांधी का घर कहां है? तो वे बताते है कि उनका घर गुजरात के पोरबंदर में हैं, पर उन्हें नहीं मालूम कि जिसे वे महात्मा गांधी का घर बता रहे है, गांधी ने वो घर बनाया ही नहीं, वो तो उनका पैतृक आवास है, गांधी को समय कहां मिला कि वे अपना घर बनायें।
मेरे प्यारे बच्चों,
याद रखों, जो दूसरे का घर बनाता है, वह अपना घर नहीं बना पाता, वो तो दूसरों के घर में ही आनन्द ढूंढ लेता है, तुम इसी बात को सरदार पटेल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, संत रविदासजी, गुरु नानक, स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी से भी जान सकते हो।
आजकल लोगों को मैं देखता हूं कि वे अपने आस-पास रहनेवाले मित्रों व पड़ोसियों के जीवन शैली को देखते हुए, स्वयं की जीवन शैली को प्रभावित करना प्रारंभ कर देते है, यह भी दुख का कारण है।
भाई मान लिया कि किसी के घर में फ्रिज है, तो कोई जरुरी नहीं कि मेरे घर में भी फ्रिज होने चाहिए, गर आवश्यकता है तो खरीदिये पर लोगों को दिखाने के लिए कि मेरे पास भी फ्रिज है, ये गलत है और ये दुख का कारण है...
जरा मुझे ही देख लो, मैंने तो अपने जिंदगी में फ्रिज खरीदी ही नहीं, और न मैं खरीदूंगा, क्योंकि मुझे ये आवश्यक नहीं लगता, आखिर क्यों, मुझे आवश्यक नहीं लगा, जरा ध्यान दो...
फ्रिज करता क्या है?
फ्रिज में सब्जियों को रख देने से सब्जियां ताजी रहती है, मैं कहता हूं कि मैं इतनी सब्जी खरीदू ही क्यों? जिसके लिए मुझे भंडारण करनी पड़े, रोज बाजार जाउंगा और ताजी सब्जियां लाउँगा।
फ्रिज में पानी ठंडा रहता है, पर मैं दावे के साथ कहता हूं कि इस पानी से प्यास नहीं बुझती, जबकि घड़ा में पानी भी ठंडा और इससे प्यास भी बुझती है।
फ्रिज में पकाये भोजन के शेषांश को सुरक्षित रखा जा सकता हैं, मैं कहता हूं कि मैं इतना भोजन बनाऊं ही क्यों, जिसके लिए हमें सुरक्षित रखने के लिए फ्रिज की आवश्यकता पड़ जाये।
फ्रिज में आइसक्रीम बन जाती है, भाई हम कोई रईस की औलाद तो है नहीं कि हम रोज दस किलो दूध लाये और आइसक्रीम बनाते जाये, हम तो आइसक्रीम खाने के लिए किसी दुकान पर गये और आइसक्रीम खरीदी, खा लिये।
ऐसे भी फ्रिज रखेंगे, 24घंटे बिजली की खपत अलग और बेवजह का बिजली बिल का भुगतान करने का झंझट अलग।
यहीं नहीं, इसके अलावा फ्रिज से पर्यावरण को भी नुकसान, क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन और ओजोन में छिद्र को बढ़ावा।
यानी कुल मिलाकर हमें नहीं लगता कि हम भारतीयों के लिए ये फ्रिज जरुरी है, पर देखता हूं कि लोग धड़ल्ले से इन फ्रिजों को अपने घर के रसोईघर में रसोईप्रवेश करा रहे है, और मैंने आज तक नहीं लिया।
सच्चाई जानते हो।
कुछ लोगों को देखता हूं कि जब अपने बेटे-बेटियों की शादी करेंगे तो अंधाधुंध खर्च करेंगे, जैसे लगता हो कि वे कितने धन्ना सेठ है, पर हम बता देते है कि ऐसी खर्च से वे अपने बेटे-बेटियों की खुशियां नहीं खरीदते, बल्कि वे स्वयं का नुकसान करते है, समाज और देश का नुकसान करते है, क्योंकि इसी देखा-देखी में लोग अपने घर के सुख को नष्ट कर डालते है। जो धन्ना सेठ है, जिनको ईश्वर ने धन दिया है, उन्हें भी चाहिए कि वे सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखे, पर वे ऐसा करेंगे, हमें नहीं लगता।
अगर ईश्वर ने किसी को धन दिया है तो उन्हें उक्त धन को, उन बेटियों की शादी में खर्च करना चाहिए, जिनकी शादियां धन के अभाव में नहीं हो रही। मैं दावे के साथ कहता हूं कि ऐसा करने से जो उन्हें आनन्द प्राप्त होगा, वह स्वयं की शादी में भी उन्हें नहीं आयी होगी।
कहा भी गया है...
संत प्रवृत्ति के लोगों के पास जो धन आता है, वह लोगों के आनन्द पर खर्च होता है और जब यहीं धन दूष्टों के पास पहुंचता है तो वह लोगों के आनन्द को हर लेता है...
संत प्रवृत्ति के लोगों की संख्या आज भी बहुतायत है, बस उन्हें परखने की जरुरत है...
मैं यह क्यों लिख रहा हूं, तुम सब, ये सब लिखने का मतलब समझ गये होगे...
बस करना यहीं है कि कभी भी अपने मेहनत के पैसे को उन जगहों पर जाया नहीं करना है, जो जरुरी न हो। जहां जरुरी है, वहां उन पैसों को खर्च करिये और जहां जरुरी नहीं है, वहां कुछ भी हो जाय, खर्च नहीं करना है, सदैव समाज और देश के लिए पैसे खर्च होने चाहिए।
भामा शाह को देखो, उनके पास खूब धन था, और उन्होंने अपना सारा धन महाराणा प्रताप के चरणों में रख दिया...
महाराजा रघु के दरबार में छोटा सा कौत्स जाता है, और महाराज रघु, कौत्स के पास अपना सारा धन रख देते है, और कौत्स उतना ही लेता है, जितनी की उसे आवश्यकता है। ये प्रमाण बताने के लिए काफी है कि भारत क्या है? और हमें क्या करना चाहिए...
खुब खुश रहो।
तुम्हारा पिता
कृष्ण बिहारी मिश्र
आओ, आज मैं तुम्हें बताता हूं कि हमारे पूर्वज कैसे अभावों में भी शानदार ढंग से जीवन व्यतीत करते हुए अपने जीवन को समाज और देश के लिए उत्सर्ग कर देते थे। मैं कहूंगा कि तुम एक बात गिरह पार लो – तुम अपने जीवन में जितना आवश्यकताओं को सीमित करोगे, तुम उतना ही आनन्द प्राप्त करोगे और इसके विपरीत जितना तुम अपनी आवश्यकताओं को बढ़ाओगे, तुम उतना ही दुख के सागर में डूबते चले जाओगे। कौन व्यक्ति कहां से धन ला रहा है? और कैसे वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ति कर रहा है? – ऐसी सोच सामान्य बुद्धिवाले लोग रखते है, पर जो असामान्य है, वे इन बातों पर ध्यान ही नहीं देते। वे तो इस ओर ध्यान देते है कि उन्होंने अपने जीवन में ईमानदारी को वहन किया है या नहीं, जैसे ही उन्हें पता लगता है कि उनके पास आया धन बेईमानी से उन तक पहुंचा है, वे विचलित हो जाते है और उसका वे उपयोग करना भी पाप समझते है, ठीक इसके विपरीत अधम लोगों की प्रवृत्ति कैसी होती है? हमें लगता है तुम्हें बताने की जरुरत नहीं।
कहा भी गया है...
अधमा: धनम् इच्छन्ति, धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमा: मानम् इच्छन्ति, मानो हि महतां धनम्।।
अर्थात् जो दुष्ट होते हैं, उन्हें सिर्फ धन की इच्छा होती हैं, जो मध्यमवर्गीय है अर्थात जो न संत है, न अधम है, वे मध्यम मार्ग अपनाते है, उन्हें धन और मान दोनों की आवश्यकता होती है, पर जो संत प्रवृत्ति के लोग है, उनके जीवन में धन की इच्छा कभी नहीं रहती, उनके लिए तो सम्मान से बड़ा कोई धन है ही नहीं।
तुम जहां हो, वहां तुम्हें ये तीन प्रकार के लोग बराबर मिलेंगे, अब तुम्हें ये सोचना है कि तुम किस प्रकार के लोगों का वरण करो? या तुम्हारे मित्र या सखा किस प्रकार के लोग हो? ये निर्णय करने का अधिकार, मैं तुमलोगों पर छोड़ता हूं, मेरा स्वभाव क्या है? ये तुम जानते ही हो।
कुछ लोग कहते है कि जीने के लिए धन की आवश्यकता होती है, पर मैं कहता हूं कि जीने के लिए धन की आवश्यकता होती ही नहीं, और जितनी आवश्यकता होती है, उसका प्रबंध ईश्वर स्वयं कर देता है, ठीक उसी प्रकार जैसे...
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये, सब के दाता राम
हमें लगता है कि तुम इस दोहे का अर्थ समझ गये होंगे।
मैं स्वयं 50 वें वर्ष में हूं और जो मैंने तुम्हारे दादा-दादी और अपने गुरुजनों तथा भारत के महान आध्यात्मिक संतों के बताये मार्गों का अनुसरण किया है, उससे साफ पता चलता है कि जीवन में धन उतना महत्वपूर्ण नहीं।
ऐसे भी धन से आप खाट या पलंग खरीद सकते है, पर नींद नहीं। धन से आप स्वादिष्ट व्यजंनों को खरीद सकते है, पर उसका रसास्वादन कर पायेंगे, इसका जवाब खरीदनेवाले के पास भी नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों? इस पर चिन्तन की आवश्यकता है।
कुछ लोगों से मैं पूछता हूं कि महात्मा गांधी का घर कहां है? तो वे बताते है कि उनका घर गुजरात के पोरबंदर में हैं, पर उन्हें नहीं मालूम कि जिसे वे महात्मा गांधी का घर बता रहे है, गांधी ने वो घर बनाया ही नहीं, वो तो उनका पैतृक आवास है, गांधी को समय कहां मिला कि वे अपना घर बनायें।
मेरे प्यारे बच्चों,
याद रखों, जो दूसरे का घर बनाता है, वह अपना घर नहीं बना पाता, वो तो दूसरों के घर में ही आनन्द ढूंढ लेता है, तुम इसी बात को सरदार पटेल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, संत रविदासजी, गुरु नानक, स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी से भी जान सकते हो।
आजकल लोगों को मैं देखता हूं कि वे अपने आस-पास रहनेवाले मित्रों व पड़ोसियों के जीवन शैली को देखते हुए, स्वयं की जीवन शैली को प्रभावित करना प्रारंभ कर देते है, यह भी दुख का कारण है।
भाई मान लिया कि किसी के घर में फ्रिज है, तो कोई जरुरी नहीं कि मेरे घर में भी फ्रिज होने चाहिए, गर आवश्यकता है तो खरीदिये पर लोगों को दिखाने के लिए कि मेरे पास भी फ्रिज है, ये गलत है और ये दुख का कारण है...
जरा मुझे ही देख लो, मैंने तो अपने जिंदगी में फ्रिज खरीदी ही नहीं, और न मैं खरीदूंगा, क्योंकि मुझे ये आवश्यक नहीं लगता, आखिर क्यों, मुझे आवश्यक नहीं लगा, जरा ध्यान दो...
फ्रिज करता क्या है?
फ्रिज में सब्जियों को रख देने से सब्जियां ताजी रहती है, मैं कहता हूं कि मैं इतनी सब्जी खरीदू ही क्यों? जिसके लिए मुझे भंडारण करनी पड़े, रोज बाजार जाउंगा और ताजी सब्जियां लाउँगा।
फ्रिज में पानी ठंडा रहता है, पर मैं दावे के साथ कहता हूं कि इस पानी से प्यास नहीं बुझती, जबकि घड़ा में पानी भी ठंडा और इससे प्यास भी बुझती है।
फ्रिज में पकाये भोजन के शेषांश को सुरक्षित रखा जा सकता हैं, मैं कहता हूं कि मैं इतना भोजन बनाऊं ही क्यों, जिसके लिए हमें सुरक्षित रखने के लिए फ्रिज की आवश्यकता पड़ जाये।
फ्रिज में आइसक्रीम बन जाती है, भाई हम कोई रईस की औलाद तो है नहीं कि हम रोज दस किलो दूध लाये और आइसक्रीम बनाते जाये, हम तो आइसक्रीम खाने के लिए किसी दुकान पर गये और आइसक्रीम खरीदी, खा लिये।
ऐसे भी फ्रिज रखेंगे, 24घंटे बिजली की खपत अलग और बेवजह का बिजली बिल का भुगतान करने का झंझट अलग।
यहीं नहीं, इसके अलावा फ्रिज से पर्यावरण को भी नुकसान, क्लोरोफ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन और ओजोन में छिद्र को बढ़ावा।
यानी कुल मिलाकर हमें नहीं लगता कि हम भारतीयों के लिए ये फ्रिज जरुरी है, पर देखता हूं कि लोग धड़ल्ले से इन फ्रिजों को अपने घर के रसोईघर में रसोईप्रवेश करा रहे है, और मैंने आज तक नहीं लिया।
सच्चाई जानते हो।
कुछ लोगों को देखता हूं कि जब अपने बेटे-बेटियों की शादी करेंगे तो अंधाधुंध खर्च करेंगे, जैसे लगता हो कि वे कितने धन्ना सेठ है, पर हम बता देते है कि ऐसी खर्च से वे अपने बेटे-बेटियों की खुशियां नहीं खरीदते, बल्कि वे स्वयं का नुकसान करते है, समाज और देश का नुकसान करते है, क्योंकि इसी देखा-देखी में लोग अपने घर के सुख को नष्ट कर डालते है। जो धन्ना सेठ है, जिनको ईश्वर ने धन दिया है, उन्हें भी चाहिए कि वे सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखे, पर वे ऐसा करेंगे, हमें नहीं लगता।
अगर ईश्वर ने किसी को धन दिया है तो उन्हें उक्त धन को, उन बेटियों की शादी में खर्च करना चाहिए, जिनकी शादियां धन के अभाव में नहीं हो रही। मैं दावे के साथ कहता हूं कि ऐसा करने से जो उन्हें आनन्द प्राप्त होगा, वह स्वयं की शादी में भी उन्हें नहीं आयी होगी।
कहा भी गया है...
संत प्रवृत्ति के लोगों के पास जो धन आता है, वह लोगों के आनन्द पर खर्च होता है और जब यहीं धन दूष्टों के पास पहुंचता है तो वह लोगों के आनन्द को हर लेता है...
संत प्रवृत्ति के लोगों की संख्या आज भी बहुतायत है, बस उन्हें परखने की जरुरत है...
मैं यह क्यों लिख रहा हूं, तुम सब, ये सब लिखने का मतलब समझ गये होगे...
बस करना यहीं है कि कभी भी अपने मेहनत के पैसे को उन जगहों पर जाया नहीं करना है, जो जरुरी न हो। जहां जरुरी है, वहां उन पैसों को खर्च करिये और जहां जरुरी नहीं है, वहां कुछ भी हो जाय, खर्च नहीं करना है, सदैव समाज और देश के लिए पैसे खर्च होने चाहिए।
भामा शाह को देखो, उनके पास खूब धन था, और उन्होंने अपना सारा धन महाराणा प्रताप के चरणों में रख दिया...
महाराजा रघु के दरबार में छोटा सा कौत्स जाता है, और महाराज रघु, कौत्स के पास अपना सारा धन रख देते है, और कौत्स उतना ही लेता है, जितनी की उसे आवश्यकता है। ये प्रमाण बताने के लिए काफी है कि भारत क्या है? और हमें क्या करना चाहिए...
खुब खुश रहो।
तुम्हारा पिता
कृष्ण बिहारी मिश्र
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