आज अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस है...
उन महिलाओं को नमन, जो निर्धन और अभावों में रहते हुए भी अपने बच्चों, परिवार, समाज और देश को एक नई दिशा दी...
उन महिलाओं को नमन, जो खेतों-खलिहानों में, विभिन्न प्रकार के निर्माणों में अपना श्रमदान कर अपने परिवार और बच्चों का भरण पोषण कर रही है और अपने दिव्य संस्कारों से उनका मार्गदर्शन कर रही है...
उन महिलाओं को नमन, जो स्वयं भूखी रहकर अपने परिवार और समाज को ये लखने नहीं देती कि वो कई दिनों से भूखी है...
उन महिलाओं को नमन, जो लाख विरोधों के बीच सत्य को सत्य कहने से नहीं झिझकती, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान, जो डंके की चोट पर ग्वालियर नरेश के खिलाफ यह कहकर बिगुल फूंकती है कि –
अंग्रेजों के मित्र सिंधिंया ने छोड़ी रजधानी थी।
खुब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।।
उन महिलाओं को नमन जिन्होंने बच्चों में संस्कार जगाने और उनमें छुपे वात्सल्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कमर कसती है, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान को देखिये –
यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे – धीरे।।
उन महिलाओं को नमन जो परतंत्रता की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराने के लिए, पूर्ण स्वतंत्रता के लिए, सशक्त भारत के निर्माण के लिए अपना कलम खोलती है, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान को देखिये, जो कहती है –
वीरों का कैसा हो वसन्त,
आ रही हिमाचल से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार.
प्राची पश्चिम भू नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं
दिग-दिगन्त,
वीरों का कैसा हो वसन्त।
जब भी 8 मार्च आता है, महिलाओं के सम्मान देने के नाम पर नाना प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होते है, ये कार्यक्रम वे लोग आयोजित करते है, जो सहीं मायनों में महिलाओं को सम्मान देते ही नहीं, इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजन करनेवालों की संख्या बहुतायत है, पर जिनके लिए महिलाएं आज भी सर्वोपरि है, या सम्मान की पात्र है, उनके लिए 8 मार्च कोई मायने नहीं रखता। भारत में आज भी 90 प्रतिशत महिलाएं जो खेतों-खलिहानों या शहरों में मजदूरी का कार्य करती है, जरा उनसे पूछिये कि अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस कब मनाया जाता है या इसका अभिप्राय क्या है? तो पता चलेगा कि उनका इस प्रकार के कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं और न ही वे इस प्रकार के कार्यक्रम को बारे में जानना या समझना चाहती है, पर नारीत्व के भाव को वो जितना समझती है, शायद ही कोई समझेगा।
रांची जैसे शहर में लड़कियों और महिलाओं की क्या स्थिति है? किसे नहीं पता। लड़कियां यौन शोषण-दुष्कर्म की शिकार हो रही है और पुलिस उन दुष्कर्मियों और यौन-शोषणकर्ताओं को संरक्षण दे रही है, ये किसके इशारे पर हो रहा है, किसे नहीं पता। छोटी – छोटी बच्चियां जो कस्तूरबा बालिका में पढ़ती है और उनके साथ ऐसी हरकतें हो रही है कि हम उसे यहां लिख नहीं सकते। लड़कियां मुख्यमंत्री का द्वार खटखटाती है, पर ये मुख्यमंत्री है, जो उनकी सुनते ही नहीं, तो ऐसे में इस प्रकार के आयोजन बेमानी सिद्ध होते है।
लड़कियों और महिलाओं का सम्मान दिल से होना चाहिए पर मैं यहां देख रहा हूं कि लोग इनका सम्मान दिमाग से करने लगे है, कि इस प्रकार के आयोजन से उन्हें क्या फायदा मिलेगा? जहां इस प्रकार की मानसिकता लोगों की है, वहां महिलाओं का सम्मान हमेशा खतरे में रहेगा।
हमारे देश में रक्षाबंधन का एक त्यौहार होता है, जिस त्यौहार में महिलाएँ पुरुषों को रक्षा सूत्र बांधती है, जिससे पुरुष का यत्र-तत्र-सर्वत्र रक्षा होता रहता है। उस रक्षा सूत्र में महिलाओं के द्वारा आशीर्वाद इस प्रकार से सिंचित होता है कि वह पुरुष का रक्षा कवच का काम करता है, तो जहां ऐसी परंपरा व संस्कृति का वास हो, उस देश में आज महिलाओं की ऐसी स्थिति क्यों? उसका मूल कारण है कि हमने महिलाओं को सम्मान देने में दिमाग का इस्तेमाल किया। आज स्थिति है कि घर का ही पुरुष अपने ही घर की महिलाओं को महिला नहीं समझ रहा, आज स्थिति ऐसी है कि महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं। ऐसा कौन है – जिसनें हमारी ये स्थिति कर दी। उसका सरल उत्तर है – हमारे देश व समाज में भोगवादी संस्कृति के विष का फैलना, ये विष इस कदर फैल रहा है, जिसका परिणाम अब प्रत्येक दिन दिखाई देने लगा है। जरुरत है, वक्त को पहचानने और स्वयं को संभालने की, नहीं तो स्थिति ऐसी होगी कि आप अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस तो मनायेंगे पर सही मायनों में वहां महिला दिखाई ही नहीं पड़ेंगी।
एक बार पुनः उन महिलाओं को बधाई, जो आज के आडम्बरों से दूर, अपने बच्चों और परिवारों के लिए खेतों-खलिहानों और शहरों की भीड़ में अपना वजूद ढूंढने के लिए निकल पड़ी हैं।
उन महिलाओं को नमन, जो निर्धन और अभावों में रहते हुए भी अपने बच्चों, परिवार, समाज और देश को एक नई दिशा दी...
उन महिलाओं को नमन, जो खेतों-खलिहानों में, विभिन्न प्रकार के निर्माणों में अपना श्रमदान कर अपने परिवार और बच्चों का भरण पोषण कर रही है और अपने दिव्य संस्कारों से उनका मार्गदर्शन कर रही है...
उन महिलाओं को नमन, जो स्वयं भूखी रहकर अपने परिवार और समाज को ये लखने नहीं देती कि वो कई दिनों से भूखी है...
उन महिलाओं को नमन, जो लाख विरोधों के बीच सत्य को सत्य कहने से नहीं झिझकती, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान, जो डंके की चोट पर ग्वालियर नरेश के खिलाफ यह कहकर बिगुल फूंकती है कि –
अंग्रेजों के मित्र सिंधिंया ने छोड़ी रजधानी थी।
खुब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।।
उन महिलाओं को नमन जिन्होंने बच्चों में संस्कार जगाने और उनमें छुपे वात्सल्य को जन-जन तक पहुंचाने के लिए कमर कसती है, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान को देखिये –
यह कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे – धीरे।।
उन महिलाओं को नमन जो परतंत्रता की बेड़ियों से भारत को मुक्त कराने के लिए, पूर्ण स्वतंत्रता के लिए, सशक्त भारत के निर्माण के लिए अपना कलम खोलती है, जैसे सुभद्रा कुमारी चौहान को देखिये, जो कहती है –
वीरों का कैसा हो वसन्त,
आ रही हिमाचल से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार.
प्राची पश्चिम भू नभ अपार,
सब पूछ रहे हैं
दिग-दिगन्त,
वीरों का कैसा हो वसन्त।
जब भी 8 मार्च आता है, महिलाओं के सम्मान देने के नाम पर नाना प्रकार के कार्यक्रम आयोजित होते है, ये कार्यक्रम वे लोग आयोजित करते है, जो सहीं मायनों में महिलाओं को सम्मान देते ही नहीं, इस प्रकार के कार्यक्रम आयोजन करनेवालों की संख्या बहुतायत है, पर जिनके लिए महिलाएं आज भी सर्वोपरि है, या सम्मान की पात्र है, उनके लिए 8 मार्च कोई मायने नहीं रखता। भारत में आज भी 90 प्रतिशत महिलाएं जो खेतों-खलिहानों या शहरों में मजदूरी का कार्य करती है, जरा उनसे पूछिये कि अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस कब मनाया जाता है या इसका अभिप्राय क्या है? तो पता चलेगा कि उनका इस प्रकार के कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं और न ही वे इस प्रकार के कार्यक्रम को बारे में जानना या समझना चाहती है, पर नारीत्व के भाव को वो जितना समझती है, शायद ही कोई समझेगा।
रांची जैसे शहर में लड़कियों और महिलाओं की क्या स्थिति है? किसे नहीं पता। लड़कियां यौन शोषण-दुष्कर्म की शिकार हो रही है और पुलिस उन दुष्कर्मियों और यौन-शोषणकर्ताओं को संरक्षण दे रही है, ये किसके इशारे पर हो रहा है, किसे नहीं पता। छोटी – छोटी बच्चियां जो कस्तूरबा बालिका में पढ़ती है और उनके साथ ऐसी हरकतें हो रही है कि हम उसे यहां लिख नहीं सकते। लड़कियां मुख्यमंत्री का द्वार खटखटाती है, पर ये मुख्यमंत्री है, जो उनकी सुनते ही नहीं, तो ऐसे में इस प्रकार के आयोजन बेमानी सिद्ध होते है।
लड़कियों और महिलाओं का सम्मान दिल से होना चाहिए पर मैं यहां देख रहा हूं कि लोग इनका सम्मान दिमाग से करने लगे है, कि इस प्रकार के आयोजन से उन्हें क्या फायदा मिलेगा? जहां इस प्रकार की मानसिकता लोगों की है, वहां महिलाओं का सम्मान हमेशा खतरे में रहेगा।
हमारे देश में रक्षाबंधन का एक त्यौहार होता है, जिस त्यौहार में महिलाएँ पुरुषों को रक्षा सूत्र बांधती है, जिससे पुरुष का यत्र-तत्र-सर्वत्र रक्षा होता रहता है। उस रक्षा सूत्र में महिलाओं के द्वारा आशीर्वाद इस प्रकार से सिंचित होता है कि वह पुरुष का रक्षा कवच का काम करता है, तो जहां ऐसी परंपरा व संस्कृति का वास हो, उस देश में आज महिलाओं की ऐसी स्थिति क्यों? उसका मूल कारण है कि हमने महिलाओं को सम्मान देने में दिमाग का इस्तेमाल किया। आज स्थिति है कि घर का ही पुरुष अपने ही घर की महिलाओं को महिला नहीं समझ रहा, आज स्थिति ऐसी है कि महिलाएं घर में ही सुरक्षित नहीं। ऐसा कौन है – जिसनें हमारी ये स्थिति कर दी। उसका सरल उत्तर है – हमारे देश व समाज में भोगवादी संस्कृति के विष का फैलना, ये विष इस कदर फैल रहा है, जिसका परिणाम अब प्रत्येक दिन दिखाई देने लगा है। जरुरत है, वक्त को पहचानने और स्वयं को संभालने की, नहीं तो स्थिति ऐसी होगी कि आप अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस तो मनायेंगे पर सही मायनों में वहां महिला दिखाई ही नहीं पड़ेंगी।
एक बार पुनः उन महिलाओं को बधाई, जो आज के आडम्बरों से दूर, अपने बच्चों और परिवारों के लिए खेतों-खलिहानों और शहरों की भीड़ में अपना वजूद ढूंढने के लिए निकल पड़ी हैं।
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