Sunday, April 9, 2017

फैमिली की बात होती है............

हमारे यहां फैमिली में औरतें भी होती हैं, जिसे मां, मौसी, दीदी, बुआ, चाची, नानी, दादी आदि कहकर पुकारते हैं और जब फैमिली की बात होती हैं तो निःसंदेह हम फैमिली में रह रहे औरतों के विभिन्न रुप जैसे मां, मौसी, दीदी, बुआ, चाची, नानी, दादी यहां तक की पड़ोस की मां-बहनों की भी बातें करते है, साथ ही उन्हें हम उतनी ही इज्जत देते है, जिस सम्मान को पाकर वे अभिभूत हो जाती है, इसलिए विद्या बालन जी आपका ये संवाद कि फैमिली की बात होती है, बिजनेस की बात होती है, लेकिन औरतों की बात कम होती है, इसका हम कड़े शब्दों में प्रतिवाद करते है। प्राचीन इतिहास को उलटे तो हमारे यहां वेश्याओं को भी उतना ही सम्मान मिलता था, जितना एक सामान्य महिला को। आपने आम्रपाली का नाम जरुर सुना होगा, इस पर फिल्म भी बनी है, जरा देख लीजियेगा। पूर्व में एक फिल्म चित्रलेखा भी बनी थी, जरा देखियेगा। आपको समझ में आयेगा।
एक खास इलाके में अथवा एक परिवार में किसी ने महिला की बात नहीं सुनी, इसका मतलब ये नहीं कि पूरा समाज और देश को आप कटघरे में खड़ा कर दें। आश्चर्य है कि सूचना भवन के सभागार में आपने ये संवाद कहा है और आपका किसी ने प्रतिवाद भी नहीं किया होगा और न इस संबंध में किसी पत्रकार ने आपसे सवाल पूछे होंगे। पत्रकारों का सवाल नहीं पूछना और सूचना भवन में इस प्रकार के संवाद बोल जाना, ये भी बताता है कि आप महिलाओं को यहां कितना सम्मान मिलता है।
कल संयोग ही था रांची से प्रकाशित एक अखबार ने राज्य की कई महिलाओं को एक कार्यक्रम आयोजित कर सम्मानित किया, हालांकि मैं इस प्रकार के कार्यक्रम का कटु आलोचक हूं। सम्मान तो वह है, जैसे सुभाषचंद्र बोस और रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने मोहनदास गांधी को दिया था, जिसका प्रभाव ऐसा हुआ कि पूरी दुनिया गांधी को बापू और महात्मा कहकर संबोधित करती है। अखबार द्वारा या किसी संस्थान द्वारा दिया जानेवाला पीतल अथवा कागज का टूकड़ा सम्मान नहीं होता, बल्कि ये विशुद्ध रुप से व्यापार चलाने का अपने सामान की ब्रांडिंग करने का एक माध्यम है, पर अफसोस कि इसमें वे सारे लोग पहुंचते है, जिनसे समाज को आशाएं है, पर ये झूठी शान और सम्मान पाने के लिए इन कार्यक्रमों में पहुंचते है, तालियां बजवाते है, और फिर निकल लेते है। ये हमारे अपने विचार है, हो सकता है कि ये विचार किसी को अच्छे नहीं लगे।
विद्या बालन जी, आप झारखण्ड में हैं। इसी झारखण्ड में कुछ दिन पहले सरहुल मनाया गया, एक नेता अर्जुन मुंडा ने तो अपने घर में सरहुल मिलन समारोह आयोजित कराया और वहां देखा गया कि स्त्रियों और पुरुषों में कोई विभेद ही नहीं था, सभी एक दुसरे का सम्मान कर रहे हैं, नृत्य कर रहे है, संगीत से स्वयं को प्रकृति के साथ जोड़ रहे है। ऐसी जगह, इस प्रकार की छोटी बात, अच्छी नही लगती। यह बातें मैं इसलिए लिख रहा हूं कि क्योंकि आपही का एक संवाद है, जो टीवी और रेडियों में खुब देखने और सुनने को मिलता है, जहां सोच वहां शौचालय, यानी सोच बदलिये...
मैं कहूंगा कि आप भी सोच बदल ही डालिये। महेश भट्ट के साथ रहकर महेश भट्ट के विचारों से ओतप्रोत न होकर, आप अपनी विचारों को पोषित करिये। राज्य सरकार का क्या है?  उसे तो कनफूंकवों ने अपने ग्रिप में ले लिया है। रघुवर दास को क्या पता कि महेश भट्ट का संघ और भाजपा के प्रति क्या दृष्टिकोण है? महेश भट्ट तो समय-समय पर भाजपा शासित राज्यों को औकात बताते रहते है, अभी हाल ही में टेलीग्राफ में छपे उस खबर को भी देख लीजिये, बस महेश भट्ट को मौका मिलना चाहिए, भाजपा शासित राज्यों को औकात बताने का, औकात बता देंगे।
हम अच्छी तरह जानते है कि बेगम जान जो फिल्म बनी है, वो देश और समाज को नई दिशा देने के लिए नहीं बनी है, ये बनी है विशुद्ध रुप से व्यवसाय के लिए, ये अलग बात है कि इसका फायदा किसको मिलेगा, पर सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास ने खुलकर आप पर राज्य सरकार का कोष लूटा दिया है। आपकी फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया, पर इसका फायदा जनता को मिलेगा क्या? जरा पूछिये रघुवर दास से, कि महेन्द्र सिंह धौनी पर बनी फिल्म भी टैक्स फ्री हुई थी, उसका कितना फायदा आम जनता को मिला। मैं तो स्वयं जब उक्त फिल्म देखने गया, तो मुझे उतने ही पैसे चुकाने पड़े, जितने हमेशा चुकाने पड़ते थे। ये है सरकार और उसकी ढपोरशंखी घोषणाओं का ज्वलंत उदाहरण।
एक बात और कल ही मैंने देखा, कि सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में कार्यरत अधिकारियों का दल इस प्रकार आपके साथ सेल्फी लेकर, फेसबुक पर पोस्ट कर रहा था, जैसे उसे लग रहा था कि उसे भगवान से भेंट हो गई हो, इस भाव से भी समझिये कि यहां औरतों की क्या इज्जत है? जरा आइपीआरडी में कार्यरत उन अधिकारियों से पूछिये तो वे यहीं कहेंगे कि उनका जीवन धन्य हो गया, साक्षात विद्या बालन से उनकी भेंट हो गई और परम सुख को प्राप्त किया, जिस सुख को पाने के लिए ईश्वर भी लालायित रहते है,  हांलाकि आजकल हमारे देश में ये जो सेल्फी लेनेवाली कल्चर इधर विकसित हुई है, इस कल्चर ने अधिकारियों-कर्मचारियों और आम जनता के सम्मान को इस प्रकार नष्ट किया है, कि सेल्फी लेनेवाले को पता ही नहीं चल रहा कि वह जो कार्य कर रहा है, उसकी मर्यादा के अनुरुप है भी या नहीं, पर सेल्फी लेना है तो लेना है, इज्जत तो बाजार में बिकता ही है, बाजार से रुपये किलो खरीद लेंगे।
अंततः आपकी फिल्म बेगम जान खुब चले, लोगों को फिल्म पसंद आये, झारखण्ड आगे बढ़े, देश आगे बढ़े, इन्हीं कामनाओं के साथ, सभी को मेरा प्रणाम...

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