Wednesday, December 28, 2011

बेशर्मों को शर्म कहां.............

पांच राज्यों में चुनाव हैं। कांग्रेस ने सुनियोजित साजिश रचकर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए, अल्पसंख्यकों को धर्म के आधार पर आरक्षण दे दिया, जबकि संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। इससे कांग्रेस को फायदे हैं, इसाई बहुल गोवा में कहेंगी कि वह इसाईयों को आरक्षण दे दी हैं, सिक्ख बहुल पंजाब में कहेगी कि उसने सिक्खों को आरक्षण दे दिया हैं, और मुस्लिम बहुल उत्तरप्रदेश के कई विधानसभा क्षेत्रों में वो इसी आधार पर मुस्लिमों को भी आकर्षित करते हुए वोट मांगेगी। संभव हैं, उसे फायदे मिले भी क्योंकि हमारे देश की जनता, कांग्रेस के इस लालीपाप पर आकर्षित हो कर, उसके पक्ष में भारी मतदान कर दे, तो इस पर किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए, क्योंकि यहां की जनता क्या हैं, वो इतिहास बताता हैं, जब अंग्रेज इस देश में आये और विदेशी बाबर इस देश में आया तो कैसे यहां की जनता ने उसका स्वागत करते हुए, अपने देश पर विदेशियों का शासन हंसते हंसते करवाया, और खुद गुलाम बनकर आनन्दित होते रहे, कमोवेश आज भी यहीं स्थिति हैं। भले ही आज की पीढ़ी न स्वीकारें, पर सच्चाई यहीं हैं। फिलहाल कांग्रेस की नजर सर्वाधिक उत्तरप्रदेश पर हैं। अल्पसंख्यकों के नाम पर मुस्लिमों को 4 प्रतिशत आरक्षण का लालीपॉप दिलाने के बावजूद भी, कांग्रेस और कांग्रेस भक्तो को लगता हैं कि अन्ना हजारे उऩके लिए शामत खड़ी कर सकते हैं. इसलिए कांग्रेस को पांच राज्यॉ में जीत सुनिश्चित करने के लिए, कांग्रेस और कांग्रेस भक्तों में धमा चौकड़ी चल रही हैं कि कौन सर्वाधिक सोनिया और राहुल की चरण वंदना करते हुए चाटुकारिता का रिकार्ड तोड़ता हैं। इनमें शामिल हैं - कांग्रेस के कार्यकर्ता-नेता, कांग्रेस भक्त पत्रकार और केन्द्र शासित प्रदेशों में कार्यरत प्रशासनिक उच्चाधिकारी जो कांग्रेसी नेताओं की कृपापात्र बनकर देश का सत्यानाश कर रहे हैं। एक बात मैं बता दूं कि मैं अन्ना, टीम अन्ना और उनके आंदोलन का कतई समर्थक नहीं हूं, गर ज्यादा जानकारी इस संबंध में लेना हैं तो इसी ब्लाग पर अन्ना के आंदोलन और उनके सदस्यों के प्रति हमारे विचार आज भी लिखे पड़े हैं, उन्हें पढ़कर, मेरे विचारों से अवगत हुआ जा सकता हैं, लेकिन अऩ्ना के खिलाफ कांग्रेसियों के आक्रामक रवैये ने हमे ये लिखने पर मजबूर कर दिया कि भारत में जितने भी पागलखाने हैं, उनमें कम से कम कांग्रसियों के लिए कुछ शायिका आरक्षित होने चाहिए क्योंकि ये सभी मानसिक दिवालियेपन के शिकार हो रहे हैं और गर इनका इलाज नहीं किया गया, तो ये पागल होकर भारत के विभिन्न शहरों मे घूमेंगे, जिससे हमें इन्हें देखकर दुख होगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि इनके परिवार, अपने इस पागल सदस्य को देख विधवा प्रलाप करे।
जरा सोनिया का बयान देखिये -- वो कहती हैं कि अन्ना पर व्यक्तिगत हमले नहीं होने चाहिए। सोनिया ये बतायें कि अऩ्ना पर व्यक्तिगत हमले कौन कर रहा हैं। अन्ना को भगोड़ा कौन कह रहा हैं, संघ का एजेंट कौन कह रहा हैं। गर नहीं उसे बूझा रहा तो ऐसी नेता को हम क्या कहें। जरा बेनी प्रसाद वर्मा का बयान देखिये -- ये कह रहे हैं कि अन्ना भाजपा के एजेंट हैं, और भारत पाक युद्ध के समय के भगोड़े भी हैं, तो बेनी जी, भारत सरकार और जिस सरकार में आप भी अपनी गाल लाल कर चुके हैं, बैठ कर क्या कर रहे थे, इसी दिन का इंतजार कर रहे थे क्या, कि कब सोनिया माता की जय बोलने का अवसर मिले, कब अपना सर राहुल के चरण कमलों पर रखने का मौका मिले। गर ऐसा हैं तो आपने सिद्ध कर दिया हैं - राहुल और सोनिया आप की हो गयी, क्योंकि आपने तो ऐसा बयान दे दिया कि आपने पागलपन में दिग्विजय और मणीष तिवारी को भी पीछे छोड़ दिया। इधर कांग्रेसियों को कहीं से पुराना चित्र मिल गया हैं, जिसमें नानाजी देशमुख के साथ अन्ना हजारे का फोटो हैं। इस पर वे बावेला मचाये हुए हैं और अपने कांग्रेस भक्त पत्रकारों को कह रहे हैं कि वे इस मु्ददे को उछालकर, अन्ना की हालत खराब कर दें, पर उन्हें पता नहीं कि जिसका जितना विरोध होता वो उतना ही शक्तिशाली बनकर उभरता हैं। मैं पूछता हूं कि --- नानाजी देशमुख की समाजसेवा व देशभक्ति पर कोई अंगूली उठा सकता हैं क्या। संघ क्या देशद्रोहियों की संस्था हैं क्या, गर संघ देशद्रोहियों की संस्था हैं, तो अटल बिहारी वाजपेयी तो संघ के प्रचारक भी थे, वो तो प्रधानमंत्री पद तक पहुंच गये। आपके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, हाल ही में उनके जन्मदिन पर, उनके घर पर पहुंचकर शुभकामनाएँ भी दी, तो क्या देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी संघ के एजेंट हैं क्या। देश के पूर्व प्रधानमत्री लाल बहादुर शास्त्री से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी संघ पर कई सकारात्मक टिप्पणी की हैं तो वे सभी संघ और भाजपा के एजेंट थे क्या। पता नहीं आजकल के नेताओं को क्या हो गया हैं, कि सभी संघ - संघ चिल्ला रहे हैं, गर संघ से इतनी ही चिढ़ हैं तो तुम्हारे पास सत्ता हैं, कर क्या रहे हो, औरंगजेब और बाबर की तरह संघ के कार्यालय जहां जहां हैं - ढहवां दो, प्रतिबंध लगा दो, संघ के लोगों को रासुका के तहत जेल में डलवा दो, पर ये भी तुम नहीं कर सकते, क्योंकि आपकी औकात यहां की जनता जिसके पास शर्म और हया बची हैं, वो जानती हैं। आपके घटियास्तर के बयानों के आधार पर ही शायद आप जैसे नेताओँ को छुटभैया, रीढ़विहीन, दलाल, राजनीतिबाज, चिरकुट आदि नामों से विभूषित किया जाता हैं।
और अब मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का बयान देखिये जो यहां की सभी अखबारों में छपा हैं, उनका बयान ही बताता हैं कि उन्हें भी अन्ना के आंदोलन से चिढ़ और कांग्रेस को पुनः सर्वत्र स्थापित करने में कितनी दिलचस्पी हैं। उनका बयान मैंने एक अखबार में पढ़ा -- पांच राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खिलाफ अभियान करने के टीम अन्ना के प्रस्ताव के औचित्य और नैतिकता पर सवाल खड़ा करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी ने रविवार को चेतावनी दी कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के रास्ते में जो कुछ भी आयेगा, उसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। सवाल ये हैं कि टीम अन्ना के कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन चलाने पर चेतावनी देने वाले, कुरैशी कौन होते हैं। उनका काम हैं चुनाव शांतिपूर्ण और निष्पक्ष ढंग से कराना। पर उन्हें अन्ना या अन्ना की टीम ऐसा करने से रोक रही हैं क्या और गर कोई गलत करेगा, तो उसके खिलाफ कानून अपना काम करेगा। आप संवाददाताओं के माध्यम से टीम अन्ना को धमकाना चाहते हैं कि वे कांग्रेस के खिलाफ बोलने से बचे। आजतक किसी मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस प्रकार से किसी समाजसेवी के खिलाफ बयान नहीं दिया पर इन्होंने बयान देकर बता दिया कि आखिर इनके मन में क्या हैं। सवाल तो ये भी उठता हैं कि उधर कांग्रेस धर्म आधारित आरक्षण की घोषणा करती हैं, और ठीक तुरंत बाद ये पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा करते हैं, आखिर ये सब क्या हैं, इसकी जांच होनी चाहिए। हमें तो लगता हैं कि देश में हर चीज का कांग्रेसीकरण हो गया हैं, जो देश के लिए खतरा हैं। लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, जरुरत हैं एक और लोकनायक जयप्रकाश की, जो ऐसी कांग्रेसी सत्ता को धूल चटाने और चुनाव आयोग जैसी संस्था और देश में अन्य प्रशासनिक विभागों में फैलें कांग्रेसी भूतों से देश को मुक्त कराये। हमें लगता हैं कि अब देर नहीं, जल्दी ही वो दिन आयेगा, जब देश कांग्रेसियों के अत्याचार और शोषण से, विदेशी ताकतों के कुचक्रों से, मुक्त होगा, बस थोडी़ मेहनत और लगन से देश सेवा करने की हैं।

Saturday, November 26, 2011

पता नही पाकिस्तान भारत और हिन्दूओं से इतनी नफरत क्यों करता है...........

पाकिस्तान में बनी फिल्म बेदारी से लेकर आज के जमाने में बनी फिल्म खुदा के लिए तक में भारत और भारत में रहनेवाले हिंदुओं के प्रति इतनी ऩफरत क्यों भरी रहती हैं। हमें आज तक समझ में नहीं आया, जबकि जन्म से लेकर आज तक मैंने कोई ऐसी भारतीय फिल्में नहीं देखी या ऐसी भारत में कोई पुस्तकें नहीं देखी या पढ़ी जो पाकिस्तान से नफरत का पाठ पढ़ाती हो। पता नहीं क्यों पाकिस्तानी फिल्मों में भारत और हिंदुओं के प्रति नफरत क्यों भर दी जाती हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत और हिंदुओं का विरोध, वहां फिल्में हिट होने का आधार होती हैं, गर ऐसा हैं तो हम ये कह सकते हैं कि ये ऩफरत पाकिस्तान को और नर्क बना देगा। जरुरत हैं ऩफरत की जगह प्यार का पाठ याद करने और इसे सींचने की। हम अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या हैं जो पाकिस्तान से शत्रुता रखते हैं और पाकिस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो भारत से शत्रुता रखते हैं, पर क्या इन दोनों देशों में एक दूसरे से शत्रुता रखनेवालों की संख्या इतनी अधिक हैं, जो प्रेम शब्द को ही मिटा दें। गर प्रेम शब्द ही मिटा दोगे तो काहे का हिंदु और काहे का मुसलमान। तब तो, तुम दोनों से अच्छे तो वो जाहिल हैं, जो मंदिर और मस्जिद दोनों के दरवाजे पर बैठकर, भीख मांगकर, अपनी दुनिया चला रहे होते हो, एक तरह से सीख भी देते हैं कि जिंदगी क्या हैं.........................।
ऩफरत कैसे भरी जा रही हैं -- पाकिस्तान में उसकी बानगी देखिये।
1954 में भारत में एक फिल्म बनी जागृति। जिसके गीत लिखे थे - पं. प्रदीप ने। उनके ये गीत आज भी अमर हैं और भारतीय स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, सभी में ये खूब गाये और गंवाये जाते हैं। शायद ही कोई भारतीय हो, जो इस दिन इनके गाने न सुन पाये हो। मैं इनके ज्यादातर गीतों को यहां उदाहरण बनाना नहीं चाहता, पर एक गीत का उदाहरण जरुर देना चाहुँगा। एक गाना था जागृति में जिसके अंतरा थे -- आराम के तुम भूल भूलैंया में न भूलों, सपनो के हिंडोंले में मगन होके ना झूलो, अब वक्त आ गया मेंरे हंसते हुए फूलों, उठो छलांग मार के आकाश को छूलो, आकाश को छूलो, तुम गाड़ दो गगन में तिरंगा उछाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। इस फिल्म में जिस बालकलाकार ने काम किया था, उसका नाम था रतन कुमार, जो मुस्लिम बाल कलाकार था। बाद में ये पाकिस्तान का रुख किया और इसनें 1957 में बेदारी बनायी, वहां जाकर उसने गीत का क्या पोस्टमार्टम कराया जरा सुनिये -- लेना हैं ये कश्मीर तुम ये बात न भूलो, ये बात न भूलों, कश्मीर में लहराना हैं झंडा उछाल के, इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के। यहीं नहीं -- दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल के तर्ज पर मो. अली जिन्ना के शान में इसनें गाना गाया -- यू दी हमें आजादी की दूनिया हुई हैरान, ऐ कायदे आजम तेरा अहसान हैं अहसान। इस गीत के माध्यम से गांधी को जिन्ना के सामने बौना और बेवकूफ दिखाने की कोशिश की गयी थी। कहां गांधी और कहां जिन्ना। गांधी आज विश्वव्यापी हो चुके और जिन्ना क्या हैं वो पाकिस्तान के लोग ही बेहतर बता सकते हैं। आज गांधी के जन्मदिवस पर पूरा विश्व 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाता हैं, क्यों मनाता हैं, हमें लगता हैं बताने की जरुरत नहीं। आकाश की ओर हम थूंकेंगे तो वह थूक मेरे उपर ही आकर गिरेगा। ये जान लेना चाहिए। ये उदाहरण इसलिए मैं दे रहा हूं कि एक पं. प्रदीप हैं जो अपने गीतों के माध्यम से अपने बच्चों में संस्कार डाल रहे हैं और कह रहे हैं कि भारत को कहां ले जाना हैं और पाकिस्तान की सोच देखिये वो सिर्फ कश्मीर पर ही आकर अटक जाता हैं, अरे कश्मीर तक अटकोगे तो कैसे अपने देश को आगे बढ़ाओंगे। पूरी दुनिया में अपना नाम और चरित्र दिखाओ ताकि तुम्हें लोग कहें कि हां एक पाकिस्तान की सोच कुछ विशेष प्रकार का हैं।
यहीं नहीं एक फिल्म देखी तेरे प्यार में, जिसमें पाकिस्तानी अभिनेता एक भारतीय सैनिक के केवल हाथ नहीं मिलाने पर पूरे भारत के हिदुओं पर ही गंदी टिप्पणी करते हुए कहता हैं कि पता नहीं कैसे यहां मुसलमान रहते होंगे, इस दोजख में। क्या एक भारतीय सैनिक किसी पाकिस्तानी नागरिक से हाथ नहीं मिलायेगा तो क्या पूरे देश के सौ करोड़ हिंदु गलत हो गये। इसी तरह इस फिल्म में तिरंगे का अपमान करते हुए दिखाया जाता हैं। और अब बात हाल ही में बनी फिल्म खुदा के लिए में, जिसमें इसी अभिनेता से एक विदेशी अभिनेत्री पूछ रही होती हैं कि पाकिस्तान कहां हैं। ये अभिनेता पाकिस्तान की चौहद्दी बताकर बता रहा होता हैं कि पाकिस्तान कहां हैं, पर जैसे ही वह भारत का नाम लेता हैं। वो विदेशी अभिनेत्री कहती हैं कि ओह इंडिया नेवर, आई लाईक इंडिया, हेयर इज ताजमहल। अभिनेता बोलता हैं कि यू नो, हू मेड ताजमहल। विदेशी अभिनेत्री पूछती हैं - हू। पाकिस्तानी अभिनेता बोलता हैं कि शाहजहां, जस्ट लाईक मी। ही वाज मुस्लिम। देन पाकिस्तान ऐंड इंडिया आर वन। शर्म आती हैं ऐसी सोच पर। शर्म आनी चाहिए, ऐसे संवाद लिखनेवाले लेखक, और फिल्म निर्माताओं पर। क्या एक मुस्लिम होने से सब कुछ ठीक हो जाता हैं और हिंदु हो जाने से सब कुछ गलत हो जाता हैं। ये कुछ उदाहरण हैं जो पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट़ीज में काम करनेवाले लोगों की सोच को दर्शाता हैं और जब ऐसी सोचवाली फिल्में वहां बनेंगी तो वहां का समाज कैसा बनेगा। आप सोच सकते हैं. यहां के बुद्धिजीवियों की कैसी सोच हैं।
ये तो रही फिल्मों की बात, आये दिन पाकिस्तानी समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में, तथा विदेशी समाचार जगत में पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर किस प्रकार का अत्याचार होता हैं। पटी रहती हैं। पाकिस्तान में हाल ही में बाढ़ आया और उस बाढ़ में हिंदु बाढ़पीड़ितों को गोमांस परोस दिया गया, जब हिंदु भड़के तो सरकार और सरकार के नुमांइदों ने अपनी गलती स्वीकारी। यहीं नहीं पाकिस्तानी हिंदुओं की बेटियों का अपहरण करना, और उन्हें जबरन मुस्लिम बनाकर, उनसे शादी करना तो वहां आम बात हैं और अगर आपने उसका विरोध किया तो बस हो जाईये, उपर जाने के लिए तैयार। क्योंकि वहां की अदालत भी, आपको ठोकर ही मारेगी। पाकिस्तान में मंदिरों की क्या स्थिति हैं, वहां के अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति हैं, ये जानना हैं तो हाल ही में पर्यटन के नाम पर पाकिस्तान से लौटे सैकड़ों हिदु परिवार जो अब पाकिस्तान लौटना नहीं चाहते, उनके बयान सुन और पढ़ लीजिये पता लग जायेगा कि आखिर वे अपने वतन क्यों नहीं लौटना चाहते। पाकिस्तान बताये कि उसके देश में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति हैं, अब तक कितने लोग राष्ट्रपति अथवा पाकिस्तान के सर्वोच्च पदों पर पहुंचे हैं और हम बताते है कि जिन मुसलमानों की वो बात करते हैं और उनके दुख दर्द पर बेवजह चिल्लाते हैं, हम बताते हैं कि भारत में मुसलमानों की क्या स्थिति हैं। हमें तो बताने की जरुरत भी नहीं, पूरा विश्व जानता हैं कि भारत में अल्पसंख्यक किस प्रकार रह रहे हैं। यहां के अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में वृद्धि हो रही हैं, पर पाकिस्तान में हिंदुओं की संख्या में लगातार गिरावट क्यों। कमाल हैं चलनी दूसे, सूप के, जिन्हें बहतर छेद।
पाकिस्तान के लोगों को जान लेना चाहिए कि नफरत से नफरत बढ़ती हैं, प्यार की सीख, सर्वाधिक जरुरी हैं। इसलिए प्यार करना सीखे और सीखाएँ, और भारत से ज्यादा प्यार करें, क्योंकि हम आपके सर्वाधिक निकट हैं, हमारे पुरखे और आपके पुरखे एक ही हैं, वेवजह खून की नदियां बहाने का ख्वाब पालकर कोई आप तीस मारखां या हम तीसमारखां नहीं बन जायेंगे।
और अगर आप ये सोचते हैं कि पूरे पाकिस्तान से हिंदुओं को मिटाकर या अल्पसंख्यकों का नामोनिसां मिटाकर आप महान बन जायेंगे तो ये आपकी सोच, आपको मुबारक। नफरत की आंधी में जन्म लेकर, आपने क्या पाया। आपने कभी सोचा। हमने क्या गंवाया और हमें क्या मिला, आपने सोचा, नहीं सोचा और आप सोचना भी नहीं चाहते, क्योंकि बस आपको तो हिंदुओं से नफरत हैं। हिंदुओं को गला काटने, उन्हें जबरत धर्मांतरण कराने, उनके बहु-बेटियों को बलात, अपहरण करने और उन्हें बलात्कार करने में बड़ा मजा आता हैं। वे भी बेचारे हिंदु क्या करेंगे, अदालत जायेंगे, कोई मुल्ला मौलवी आयेगा, बोल देगा कि वो तो अल्पसंख्यक थी, हिंदू थी। वो मुसलमान बना दी गयी, अदालत भी चुप। क्या बनाया हैं आपने पाकिस्तान को। ये मै इसलिए नहीं कह रहा हूं कि किसी ने हमें बोल दिया। अरे जनाब, दुनिया इंटरनेट की जगह पर बहुत छोटी हो गयी हैं। आप ही के यहां का आजाद चैनल और जियो चैनल में जो बहस होती हैं, और वो बहस कोई शख्स यू टूयब पर डाल देता हैं, मैं देख कर प्रतिक्रिया दे रहा हूं। आपके जिन्ना और अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान बनाया था, वो भी धर्मनिरपेक्ष और आपने उनकी मौत के बाद, वहां का राष्ट्रीय धर्म ही बना डाला - इस्लाम। और इस्लाम के नाम पर खुदा के नाम पर, आपने जो किया या कर रहे हैं, वो तो जियो के निर्माताओं ने फिल्म खुदा के लिए में दिखा ही दिया, कि आप किस पाकिस्तान में जी रहे हैं और अपने पाकिस्तान को कहां ले जाना चाहते हैं। पर मैं अपने हिंदुस्तान को वो हिंदुस्तान बनाना चाहता हूं, जहां सारे मजहब के लोग मिलकर रहे, खुश रहे, किसी को किसी से वैर न रहे। हमारे यहां भी कुछ सिरफिरे हैं, पर उनके लिए कानून अपना काम कर रहा हैं, उन्हें सजा भी मिलती हैं। सजा मिल भी रही हैं। ऐसा नहीं कि कोई पंडित या मुल्ला कह देगा तो कानून अपना काम करना बंद कर देगा। जो सपने हमारे पूर्वजों और देशभक्त नेताओं ने देखे हैं हमें खुशी हैं कि चाहे हमारे यहां किसी की सरकार आये, हिम्मत नहीं कि धर्मनिरपेक्षता की दीवार को दरकाने की कोशिश करे।
और अब आप हमसे 14 अगस्त 1947 को अलग हो गये, हमसे अलग होकर आपको क्या मिला और हमें क्या मिला, जरा गौर फरमाये ----------------
क. आपके यहां लोकतंत्र हमेशा मरता हैं और कभी - कभी ही दिखाई पड़ता हैं। इस लोकतंत्र को और कोई नहीं कभी पाक सेना का सेनाध्यक्ष जिया उल हक तो कभी परवेज मुशर्रफ गला घोंट देता हैं, जबकि हमारे यहां 15 अगस्त 1947 से लोकतंत्र जीवित हैं और प्रत्येक आमचुनाव में और मजबूत होकर निकलता हैं, गर आपको नहीं विश्वास हो तो याद करिये, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, जो एक वोट से गिर गयी, फिर लोग जनता के बीच गये, और जनता ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी को जनादेश दिया। सारा विश्व देख रहा हैं कि भारत में लोकतंत्र कैसे दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा हैं। यहीं नहीं आपका राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्राध्यक्ष पद से हटने के बाद इतना पाकिस्तान से डरता हैं कि वो विदेश में शरण ले लेता हैं, जबकि अपने देश में आज तक ऐसा देखने को नहीं मिला। आज भी देश के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति पद पर शोभायमान बड़े बड़े शख्स भारत में ही रहकर, अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं।
ख. भारत 15 अगस्त 1947 को जिस स्थिति में था, उसी स्थिति में हैं, लेकिन आपको कश्मीर से इतर नहीं सोचने की सनक ने आपके एक बहुत बड़े क्षेत्रफल को ही लील लिया। नहीं याद हैं तो मैं आपको बता देता हूं, पूर्वी पाकिस्तान आज बांग्लादेश हैं।
ग. भारत की संप्रभुता को कोई चुनौती नहीं दे सकता, पर आपकी संप्रभुता को कौन कौन देश चुनौती दे रहा हैं, वो शायद आपको भी मालूम हैं, पर नहीं मालूम होने का बहुत अच्छा नौटंकी कर लेते हैं। अमरीकन सेना ने आपके घर में घुसकर ऐबटाबाद में क्या किया। पूरा विश्व देखा, पर शर्म नहीं आती। आज आपके यहां से कोई विदेश जाता हैं तो उसे भारतीय कहना पड़ रहा हैं, क्योंकि वो जानता हैं कि विदेश में रहने पर पाकिस्तानी बोलने पर सम्मान नहीं मिलेगा।
घ. आज भारतीय हर क्षेत्र में अपनी लोहा मनवा रहे हैं, पर आपको शेखी बघारने, भारत के खिलाफ विषवमन करने में ज्यादा आनन्द आता हैं। आप खुद देखिये भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की पूरी दुनिया में क्या बिसात हैं और आप के यहां की क्या बिसात हैं। एक उदाहरण दे देना चाहता हूं आप खुद देखिये संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के वोट से आप कैसे अस्थायी सदस्य के रुप में नियुक्त हो गये, पर उसके बदले में आप क्या दे रहे हैं भारत को।
ड़. हमारे राजनीतिज्ञ, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष विज्ञान के साथ विकसित भारत बनाने का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हैं, पर आप अभी तक वहीं अटके हैं, जहां से चले थे, हमे लगता हैं कि आप इससे उपर जाना भी नहीं चाहते, ऐसे में आपको क्या मिला। आपने मंदिर भी तोड़े और खुद उस मस्जिद में भी सेना भेजकर, वहां गोले बरसाये, जहां आपने कभी नमाज पढ़ी थी, उसका कारण क्या हैं, ये विचार करने की जरुरत हैं। धर्मांध बनने से काम नहीं चलेगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस्लाम कभी किसी दूसरे की हत्या करने, उन्हें बर्बाद करने, दूसरे धर्म के लोगों को इज्जत लूटने की सीख नहीं देता, पर क्या किया जाये, जो आप सीखेंगे, वो खुद पर भी आजमायेंगे ही। पूरा विश्व आपको किस नजर से देख रहा हैं, इसकी भी चर्चा, आपके इलेट्रानिक मीडिया के लोग बखूबी कर रहे हैं, उसे भी देखिये।
च. आपकी खासियत हैं कि आपके यहां जो जाता हैं, आप उसका खातिरदारी खूब करते हैं, आप इसकी शान भी दिखाते हैं, खासकर फिल्मों में। हमारे यहां से भी जो लोग जाते हैं, आपके यहां. वे बताते हैं कि जब उन्होंने कहा कि वे हिंदुस्तान से आये हैं तो कई होटलवालों ने खाने - पीने के पैसे नहीं लिये। उसका प्रमाण मेरे यहां भी हैं, जब प्रभात खबर के हरिवंश जी और रांची एक्सप्रेस के बलबीर दत्त आपके यहां गये तो वहां से लौटने के बाद, इन दोनों हस्तियों ने आपकी खुब प्रशंसा की। बलबीर दत्त जी ने तो आपके यहां का मिला मानचित्र ही हु ब हु छाप दिया था, बाद में रांची एक्सप्रेस ने गलती सुधारकर छापना शुरु कर दिया। ऐसे हैं आप। पर हम भी, आप से कम नहीं - खातिरदारी में। आप एक मौका तो दें, पर क्या करें, जब भी आप आयेंगे, कश्मीर का राग अलापेंगे, हिंदुओं को काफिर और पता नहीं क्या क्या कहकर संबोधित करेंगे, ऐसे में, हम आपकी खातिरदारी कैसे करें। कुछ तो आपके यहां से इस प्रकार आते हैं कि एक जनाब मुबंई के जेलों में बंद हैं, वो नाम आपने सुना ही होगा -- कसाब का।
चलिए, बहुत कुछ हुआ, थोड़ा आप गिले शिकवे दूर करें, थोड़ा हम गिले शिकवे दूर करें, चलिये भाईयों की तरह नहीं तो कम से कम एक अच्छे पड़ोसी की तरह तो रहे, ताकि दुनिया कह सकें कि ये पाकिस्तान हैं और ये भारत, दोनों में कितना प्यार हैं, पर क्या करें, वो दिन आ पायेगा भी नहीं, इसका हमें बेसब्री से इंतजार रहेगा।

Tuesday, November 22, 2011

बाकी भूत-प्रेत...................


ये उस वक्त की बात हैं। जब मैं ईटीवी में कार्यरत था। मेरी पोस्टिंग धनबाद में थी। चूंकि परिवार और बच्चे रांची में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, तो साप्ताहिक अवकाश के दिन रांची में बिताना मेरी मजबूरी हुआ करती थी, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे, सप्ताह में एक दिन भी मेरे साथ दूर रहे। इसी दौरान रांची - धनबाद और धनबाद - रांची करना मेरा साप्ताहिक कार्यक्रम हुआ करता था। पर इसी कालखंड में, एक से एक लोग यात्रा के दौरान मिले भी, जो देखने में तो बहुत सुंदर पर अंदर से उतने ही काले। सिर्फ अपने लिए जीने की चाह रखनेवाले, जबकि कई ऐसे भी थे, जिनको अपनी तो चाह नहीं, पर दूसरे के लिए जीना चाहते थे। उन्हीं में से एक घटना, अपने मित्रों के बीच शेयर करना चाहता हूं। आमतौर पर जहां से ट्रेन खुलती हैं, ट्रेनों की साफ - सफाई होती ही हैं, पर जैसे ही वो ट्रेन अपने गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ती हैं, उसी ट्रेन में सफर करनेवाले, उस ट्रेन की बॉगी के साथ ऐसा शत्रुवत् व्यवहार करते हैं, जैसे लगता हैं कि अब इस ट्रेन से उनका वास्ता ही नहीं होगा। कभी - कभी मैं खुद व्यंग्यात्मक रुप से ऐसे लोगों से कह भी देता कि जनाब, आपने ट्रेन की पूरी कीमत वसूल ली हैं, ऐसा आपको करना भी चाहिए, क्योंकि ट्रेन की बॉगियां, इसी के लिए तो बनी हैं। जैसे आप खुद देखते होंगे कि ट्रेनों में पंखों के उपर जूते - चप्पल रखना, दरवाजों और शौचालयों के आसपास पान और गूटखों को पीक फेंकना, जालीदार बने सामान रखनेवाले जगह पर, उन जालियों में पान खोंसदेना या बेवजह की कागज, पालिथिन ठूस देना, जो हवाओं के आनेजाने के लिए बने हैं। यहीं नहीं, मूंगफली के छिलकों से पूरे कपार्टमेंट को गंदा कर देना, शौचालय में गये तो सीट से अलग शौच करना, फ्लैश नहीं चलाना, शौचालय के दीवारों पर कलम अथवा पेंसिल से अपनी कुत्सित भावनाओं को उकेरना, यहीं तो हम करते हैं, और करते आ रहे हैं, करते रहेंगे। गर पैसे ज्यादा हो गये तो एसीवाली बॉगी में भी वहीं हरकतें करना, पान की पींक बर्थ व सीट के नीचे फेंक देना, खाने-पीने के सामानों को यूज कर, उसके शेषांश इधर - उधर फेंक देना, और फिर इन गंदगियों के बीच भारतीय राजनीति पर चर्चा करते हुए, सारी गंदगियों और भ्रष्टाचार को लेकर, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं पर अपना गुस्सा निकालना, पर कभी भी किसी भी हालत में स्वयं को नहीं परखना कि हमारी थोड़ी सी गलती और नासमझी ने, उस जगह को नर्क बना दिया, जिस नर्क ने गंतव्य की ओर पहुचंने के क्रम में नाना प्रकार की बीमारियां उन्हें भी दी, जिन्होंने इसे फैला दी थी। ये वो लोग हैं, जो अपने घरों में रहते हैं तो ऐसी गंदगी अपने घरों में नहीं फैलाते, पर दूसरों के घरों और अन्य जगहों पर, इनकों सारा जगह कूड़ा ही नजर आता हैं, या यों कहें तो इन्हें कूड़े - कचड़े में रहना ही ज्यादा मजा आता हैं, इसलिए हर प्रकार की गंदगियां फैला देते हैं। एक दिन इन्हीं गंदगियों के बीच, धनबाद से रांची जाने का अवसर मिला। हम आपको बता दें कि धनबाद से रांची जाने के लिए हमें धनबाद एलेप्पी एक्सप्रेस पकड़नी थी। उस ट्रेन में मात्र एक ही जेनरल बॉगी होता हैं, जिसमें हम जैसे तैसे घूसे। भीड़ इतनी थी कि मुझे ट्रेन के बागी के प्रवेश द्वार पर ही टिकना पड़ा। ट्रेन खुल चुकी थी, एक व्यक्ति जो दिखने मे सज्जन, गले मे सोने की चैन, हाथ में महंगी घड़ी, सुट पहने, पांव में शानदार जूते और मुंह में गुटके चबाये थे, पास में ही खड़े थे। गुटके का गंध शायद उनको ज्यादा पसंद आ रहा था, पर उस गंध से कई लोग परेशान दीखे, मेरी तो हाल ये थी कि पूछिये मत। अचानक, मैने देखा कि जनाब ने, इधर - उधर नजर दौड़ायी, और ट्रेन के दोनो ओर बने शौचालय के बीच वाली जगह में गुटखे की ऐसी पिचकारी छोड़ी की कई लोगों के कपड़ों में वो लगने से बची। जनाब ने तो खुद राहत महसूस की, पर लोगों के हालत देखने लायक थे। मैने उस जनाब से कहा कि आप दिखने में तो रईस लगते है, कहां जाना हैं। उन्होंने बताया कि, उन्हें बस रांची जानी हैं। बात बढ़ी, मैंने कहा कि जब आप जैसे महानुभावों के लिए भारतीय रेल ने एक - एक बागी में छह- छह पीकदान, चार- चार शौचालय और उसमें भी पीकदान की व्यवस्था कर दी हैं तो फिर आप उसका उपयोग क्यों नहीं करते, क्यों दूसरो पर गुटखे का धौंस जमाते हुए, बागी को पीक से कलरफूल बनाने की कोशिश करते हैं, इससे लोगों को दिक्कत होती हैं, आपको समझ में नहीं आता। बस क्या था, जनाब भड़क गये, उन्हें इस बात को लेकर गुस्सा था कि मैंने उन्हें आईना क्यूं दिखाया, आईना दिखाया तो दिखाया, उसमें उनका चेहरा क्यूं नजर आया। वे पील पड़ें, चलिए आपको देख लूंगा। बात बढ़ती चली गयी। अचानक मैने देखा कि कोई मेरे पांव को स्पर्श कर रहा हैं, पता चला - कि स्पर्श करनेवाला व्यक्ति और कोई नहीं, नेत्रहीन हैं। शायद वो कुछ कहना चाहता हैं। नेत्रहीन व्यक्ति ने मुझसे कहा - ऐ बेटा।
मानुष मानुष बहुत हैं, मानुष में बड़ भेद।
कोई कोई तो मानुष हैं, बाकी भूत - प्रेत।।

उस नेत्रहीन ने, जैसे लगा कि सब कुछ क्लियर कर दिया। कि जो इस ट्रेन में सवार थे, सभी दीख तो मनुष्य रहे थे, पर इनमें भी मनुष्यों की संख्या कम ही थी। ज्यादा तो भूत-प्रेत ही दीख रहे थे। जिन्हें न तो इंसानियत और न ही साफ - सफाई से मतलब था। मतलब तो केवल एक था कि खुद साफ रहो और दूसरे को गंदा करते रहो। नेत्रहीन के संवाद ने तो स्पष्ट ये भी किया कि इन आंखवालों के बीच में एक ही आंखवाला था, जो नेत्रहीन था, पर अपने विचारों और दोहों से मुझे इतना प्रभावित किया, कि उसे घटना को आज तक मैं भूल ही नहीं पाया।

Friday, November 18, 2011

मुझे मेरा बचपन लौटा दो.....................


पता नहीं क्यूं...। आज मुझे मेरा बचपन याद आ रहा हैं। वो दौड़ लगाना, छुक- छुक करती रेल की तरह भागते जाना, तालाबों, खेतों - खलिहानों के बीच दौड़ते जाना, जाड़े के दिनों में हांडी में आलू रख औंधा लगाना, हवाओं से भी तेज भागते हुए, उसकी खिल्ली उड़ाना, अपने बाल दोस्तों के बीच सभा करना, मस्ती के आलम में डूबे रहना, बिजली कटने के बाद, बिजली आने पर हंगामा मचाते हुए, घर की ओर लौटना.... वो समय फिर जिंदगी में लौट कर क्यूं नहीं आता.........।
आज तो कंम्पयूटर का युग हैं, अपने बचपन की तलाश, मैं जब आज के बच्चों से करता हूं, तो पता चलता हैं कि आज के बच्चों और कल के बच्चों की सोच और बालपन में काफी अंतर आया हैं, कुछ में तो आज के बच्चे बहुत आगे निकल चुके हैं तो कुछ में बहुत पीछे..............।
कमाल के वो दिन थे, एक से एक खेल। मानो किसी ने खेल पर शोध कर, एक से एक खेल का इजाद किया हो। एक खेल खत्म नहीं हुआ कि दूसरा खेल शुरु और दुसरा खेल खत्म नहीं हुआ कि तीसरा खेल शुरु, खेलों के जैसे मौसम हुआ करते, ठीक उसी प्रकार जैसे पर्वों और त्योहारों के.....।
कहां से शुरु करुं और कहां से अंत। मुझे समझ में नहीं आ रहा, पर इतना जरुर हैं, जो भी लिंखूंगा, शायद वो पाठकों को पसंद आये या कुछ पाठकों को लगेगा कि अरे वे इस खेल को अपने जीवन में कभी उतार चुके हैं। खेलों में सबसे पहला और मनोरंजक खेल होता, पहाड़ - पानी। कई के घर के ओटे पहाड़ बन जाते और ओटे की जमीन पानी बन जाती। इसमें भाग लेनेवाले बाल सदस्यों की कोई सीमा नहीं रहती, जो भी शामिल हो जाये, अच्छा हैं, लेकिन सबसे पहले पानी में कौन रहेगा। इसके लिए चुनाव होता। वह भी चुनाव बड़ा मनोरंजक होता, कविताओं के सहारे, सबसे पहले पानी के अंदर रहनेवाले बाल सदस्य का चुनाव होता.................
कविता इस प्रकार की होती.......................
दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ,
सौ में लागा धागा, चोर निकलके भागा,
पाव रोटी बिस्कुट, मेम खाये कुट-कुट
साहेब बोला भेरी गुड।
जैसे ही गुड आता, जिसके पास ये शब्द बोलते हुए आ गये, वो बाहर होता जाता और जो अंत में पड़ा वो पानी में रह गया। अब पानी में रहनेवाला बाल सदस्य पहाड़ पर रहनेवाले बाल सदस्यों का पीछा करता, वह भी तब जब पहाड़ पर रहनेवाला कोई बाल सदस्य पानी में उतरने की कोशिश करता.....। जो कोई पानी में रहनेवाले बाल सदस्य से स्पर्श हो जाता, फिर वहीं वैसा क्रम दुहराता चला जाता....। इसी प्रकार ये क्रम चलता जाता, कब ऐसे में समय बीत जाता पता ही नहीं चलता। इसी तरह एक और खेल था -- बिल्ली चुहा। एक छोटा सा ओटा का कोना, जिसमें आवश्यकता से अधिक बच्चे बैठ जाते, और एक दूसरे को ठेलने की कोशिश करते, इसी क्रम में बच्चों का दल एक दूसरे को पछाड़ रहा होता, यानी ओटे से हटा रहा होता, हटनेवाला बच्चा और ओटे पर कब्जा करनेवाला बच्चा एक दूसरे को देख खिलखिला रहा होता, इस दरम्यान बच्चे, कुछ दोहे भी पढ़ रहे होते, जैसे - ऐ बिल्ली, क्या चुहा, धक्कम धुक्कम होए लड़ईया...............।
जब रात में बिजली कट गयी रहती तो हमारे मुहल्ले के गली में रहनेवाले किसानों के बच्चे सड़कों पर आ जाते. वे भी एक से एक खेल, खेला करते। खेल का नाम था - एक मन की सुतरी। इस खेल में भी बच्चों की संख्या अनिश्चित रहती, खेल बड़ा मनोरंजक होता। जो सबसे बड़ा बच्चा होता, वो ओटे पर बैठकर, एक बच्चे का हाथों से आंखें मूंदकर, ये पूछता कि आटी से पाटी, फलां बच्चे की ... किधर पाटी। गर वो बच्चा सही बता देता, तो कोई बात नहीं, लेकिन गर गलत बताता, तो उसे उस बच्चे को, अपने पीठ पर तब तक चढ़ाये रखना होता, जब तक वो सही उत्तर नहीं दे देता। इस क्रम में ओटे पर बैठा सबसे बड़ा सदस्य, एक हाथ से उसकी आंख मूंदकर, दूसरे हाथों को पीठ पर रख अंगूलियों की संख्या को दर्शाता और पूछता -- एक मन की सूतरी बरियारी घोड़ी के गो....। वो गर संख्या सही बता दिया कि पांच या दो। तो बस पीठ पर चढ़ा बाल सदस्य, नीचे उतर जाता और फिर उसे वो करना पड़ता, जो वो बाल सदस्य कर रहा था................।
इसी प्रकार का खेल था -- चिट्ठी का खेल। इसमें भी बच्चों की संख्या कोई निश्चित नहीं रहती। एक वरिष्ठ बाल सदस्य - एक अन्य बाल सदस्य को अपने पास रखता, और अन्य बाल सदस्यों को दूर भेज देता। फिर वरिष्ठ बाल सदस्य, एक एक कर बाल सदस्यों को अपने पास बुलाता, कहता - ए राजा।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या खाजा
वरिष्ठ बाल सदस्य -- तेरे बाप कन से चिट्ठी आया।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या क्या।
वरिष्ठ बाल सदस्य -- हाथी, घोड़ा, एरोप्लेन, हेलीकाप्टर, कार, फटफटिया
दूसरा बाल सदस्य -- अपने पसंद का कोई यातायात का साधन बोल देता, वरिष्ठ बाल सदस्य के इशारे पर कोई भी बच्चा, वो यातायात के साधन की आवाज निकालता हुआ जाता, ओर उसे ले आता। इसी प्रकार, एक एक कर बाल सदस्य, वरिष्ठ बाल सदस्य के पास आते जाते और खेल खत्म हो जाता।
दादी अम्मा के खेल का जवाब ही नहीं था। एक वरिष्ठ बाल सदस्य किसी उंचे जगह पर बैठकर, दादी अम्मा बन जाता, और दूसरे कई बाल सदस्य शोर करते हुए, दादी अम्मा बनी हुई बाल सदस्य के पास जाकर चिल्लाते - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउं
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों।
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - जाओ बच्चों, इसके बाद बच्चे खूब खेलकूद कर शोर मचा रहे होते। इसके बाद दादी अम्मा बच्चों को बुलाती और कहती।
दादी अम्मा - आओ बच्चों।
बच्चे शोर कर बोलते - नहीं आउंगीं
दादी बोलती - सोने का गिलास दुंगी।
बच्चे - नहीं आऊंगी।
दादी - सोने का कटोरो दुंगी।
बच्चे - नहीं आउंगी।
दादी - सोने का किताब दुंगी।
बच्चे - नहीं आउँगी।
दादी - सोने का भगवान दुंगी।
बच्चे - आउंगी।
और जब बच्चे, दादी अम्मा के पास पहुंचते, तो दादी अम्मा बना बच्चा, अपने बच्चों को लाड प्यार कर रहा होता।
फिर दादी पूछती। कहा गये थे - नानी कन।
दादी -- क्या - क्या खाये
बच्चे - लड्डू पेड़ा
दादी - हमारे लिये क्या लाये
बच्चे - गुड़़ का पकौड़ा, गुड़़ का पकौड़ा, बोलने के साथ ही बच्चे भाग निकलते, और इधर गुस्से से लाल पीली होती दादी, बच्चों को दौड़ा दी होती।
एक खेल था - सोने का पुल। ये ऐसा था कि रोज टूटता और रोज जूटता अथवा बनता। दो बच्चे एक दूसरे के विपरीत खड़े हो जाते, अपने दोनों हाथों को ऊंचा उठाते हुए, जोड़े रहते और पुल बन जाता। कई लड़कों का दल, पंक्तिबद्ध होकर, खड़ो होता। आगे वाला बच्चा - पुल से अनुरोध करता और कहता -- सोने के पुल में जाने दो।
पुल कहता -- सोने का पुल टूट गया।
बच्चे - हीरा मोती जूड़वा दो।
पुल - दाम कौन देगा।
बच्चे - पीछे वाला।
और इस प्रकार जो पीछे होता, पुल बना सदस्य उसे पकड़ लेता और पूछता किस तरफ रहोगे, हमारी या दूसरी तरफ। पकड़ा गया बाल सदस्य, नखरे दिखाता, और अपनी मर्जी के अनुसार पुल बने दो बालसदस्यों में से किसी एक का चुनाव कर लेता।
कितना पानी - गोपी चंदर।
अपने मुहल्ले में कई बच्चे ऐसे होते जो कई बाल सदस्यों के साथ मिलकर हाथों से जोड़ एक गोलाकर शृंखला बना लेता और गोल गोल घूमा करते। इस गोल- गोल घूमने के बीच एक बाल सदस्य होता, उससे पूछा करते, कहते - हरा समुंदर, गोपी चंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी।
बीच में पड़ा मछली बना, बाल सदस्य, पांव के पास हाथ लाकर, कहता, इतना पानी। इसी तरह गोलाकार घूमते बच्चे पूछा करते और मछली बना बाल सदस्य हाथों से इशारा करते हुए बताता, कि इतना पानी, वो भी तब तक, जब तक पानी सर से पार न कर जाये, यानी बिना पानी के ही खेल का मजा आ जाता।
खेल - खेल में पढ़ाई का भी मजा, कई बच्चे ले लिया करते। गणित तो इससे मजबूत जरुर हो जाता। खेल का नाम था - सीताराम चिल्होरियो।
इस खेल में दो दल होते। जिसमें बाल सद्स्यों की संख्या समान होती। दोनों दल विपरीत दिशा में जाते। एक निश्चित समय में छुपा कर, लाईन पारकर, संख्याओं को निर्देशित करते। जब समय पार कर जाता और जिस दल को लगता था कि वो संख्या में जीत सकता हैं वो सीताराम चिल्हौरियो बोल दिया करताष यानी काम खत्म। अब आप इससे अधिक नहीं लिख सकते। दोनों दल एक दूसरे के लाईन पारे हुए पंक्तियों को काटने का प्रयास करते। जो दल नहीं ढूंढ सका वो पंक्ति के आधार पर, काउंट कर विजेता बन जाता।
बारिश के दिनों में में तो मजे ही मजे थे। भगवान से विशेष प्रार्थना की जाती कि हे प्रभु। स्कुल की छुट्टी के समय, इतना पानी बरसे की, बस भींगते हुए, घर जाने का मौका मिले, पर भगवान प्रार्थना स्वीकार ही नहीं करते, लेकिन जिस दिन प्रार्थना स्वीकार करते। उस दिन भींगने का मजा जरुर लेते। इधर मां भी जैसे कोपमुद्रा में दरवाजे पर खड़ी मिलती, खूब डांट मिलती, कभी भुजदंड से पिटाई भी हो जाती। मां को शायद बीमारी का ज्यादा खतरा रहता, लेकिन बीमारी ऐसी की आती ही नहीं। पिटाई स्वीकार था, पर बारिश में न भींगना मंजूर नहीं। गर कभी बुखार लग गयी तो सेवा सुश्रुषा शुऱु। भगवान से प्रार्थना से लेकर मस्जिद की दुआओँ तक की दौड़ हो जाती। घर में सभी लोग, इतना भाव देते की, पूछिये मत, ऐसा लगता कि इस रोज के कच - कच से अच्छा है कि बीमारी की एक्टिंग ही, कर ली जाये।
इधर जब इन्द्र भगवान जब ज्यादा मेहरबान हो जाते, तो लीजिए, बच्चों के दल ने सोचा कि क्या उपाय किया जाय। बादलों को फाड़ने की व्यवस्था भी बच्चों पर रहती। सभी बच्चे मिल जाते। एक लंबी फट्टी या लोहे के डंडे का जूगार किया जाता और एक छोड़ पर कपड़ें की लूत्ती बनायी जाती, जिसमें मिट्टी का तेल डालकर, आग लगाया जाता। फिर एक एक घर जाकर, उस लुत्ती में तेल डलवाया जाता। सारे बच्चे, घर - घर जाते और कहते जाते -- बदरी के ..... में लुत्ती फुत्ती, करे गोसाईयां घामे घाम। पता नहीं क्या और कैसे। इंद्र भगवान को बच्चों की ये विनती सुनायी पड़ जाती और देखते देखते आकाश साफ हो जाता। फिर क्या बच्चे अपनी जीत पर फूंले नहीं समाते।
इसी प्रकार, जब बारिश के क्रम में धूप दिखायी पड़ जाता तो माना जाता कि जंगल में सियार की शादी हो रही हैं। हाथी को देख लेने पर तो सारे बच्चे उछल पड़ते और सभी के जूबां पर एक ही दोहा.....
आम के लकड़ी कराकरी, हथिया --- भराभरी।
आम के लकड़ी कादो में, हथिया .... भादो में।
ये कविता पता नहीं होठों पर कैसे आ जाते... आज तक समझ में नहीं आया। किसी को देख - कैसे अपने आप कविता और दोहे बनकर तैयार हो जाती, होठों पर शब्दों का जाल फैल जाता, कई बार समझने की कोशिश की पर समझ में नहीं आया, सोचता हूं कि गर अगली बार नयीं जिंदगी मिली तो मैं इस बचपन के अंश को खोना नहीं चाहूंगा।

Monday, November 14, 2011

झारखंड निर्माण के 11 वर्ष -------------------

15 नवम्बर 2000 बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर एक नया झारखंड प्रांत उदय ले रहा था। झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में बाबू लाल मरांडी ने शपथ ली थी, प्रथम राज्यपाल बनने का सौभाग्य प्रभात कुमार को मिला था, जबकि विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष बनने जा रहे थे - इंदर सिंह नामधारी। नया प्रांत, नये सपनों के साथ जन्म ले रहा था। इसके पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजद के नेता लालू प्रसाद यादव ने ताल ठोक दी थी कि झारखंड उनके लाश पर बनेगा, पर उनके रहते झारखंड बन चुका था। जब झारखंड जन्म ले रहा था, तो वे रांची में भी थे, पर उनका जादू धीरे धीरे इस इलाके में विलुप्त हो रहा था, या हम कह सकते हैं कि उनका सितारा बुलंदियों से नीचे की ओर सरकना शुरु हुआ था जो आज भी सरकता ही जा रहा हैं। लालू और उऩके जैसे कई नेता ये भी कहते थे कि गर झारखंड बन गया तो बिहार में लालू, बालू और आलू ही दिखाई पड़ेंगे। सच्चाई ये भी हैं कि जब तक मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी रहे, लगता था कि ये कथन सच हो जायेगा, पर जैसे ही उनकी तख्ता, उनसे खार खाये जदयू के नेताओं ने पलटी, झारखंड फिर ठीक से खड़ा नहीं हो सका। जबकि इसके विपरीत बिहार नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रगति के शिखर की ओर बढ़ रहा हैं, ऐसा इसलिए लिखना पड़ रहा हैं कि कुछ पत्र पत्रिकाओं ने नीतीश की कार्य कुशलताओं की प्रशंसा की हैं, लेकिन हमसे गर पूछे तो मुझे नीतीश न कल अच्छे लगे थे और न ही आज। ये अहंकारी पुरुष हैं, ये अलग बात हैं कि इनका कुछ काम ठीक दीखता हैं, पर इनके शासनकाल में भी लॉ एंड आर्डर की वहीं स्थिति हैं जो लालू के काल में थी। अरे जो व्यक्ति बिहार के लोकपर्व छठ पर घाटों की स्थिति नहीं सुधार सकता, जिसके शासनकाल में 24 से अधिक घाटों पर व्रत करने पर प्रतिबंध लगा दिये जाते हो, वो गर कहें कि हम विकास की रास्ते पर हैं, तो बड़ा आश्चर्य लगता हैं। फिर भी जब सब कह रहे हैं, ठीक हैं, तो चलों हम भी कह देते हैं, ठीक हैं, ऐसा कहना वैचारिक दृष्टिकोण से नीतीश के आगे आत्मसमर्पण कर देना होगा, फिर भी बिहार झारखंड के मुकाबले अच्छी स्थिति में हैं, ये मानने में हमें गुरेज नहीं।
हमें याद हैं, जब बिहार से झारखंड अलग हो रहा था, तब उस वक्त मैं पटना स्थित दैनिक जागरण कार्यालय में कार्यरत था और मुझे मोतिहारी की जिम्मेदारी सौपी जा रही थी। उस दिन मुझे झारखंड की राजधानी रांची से निकलनेवाली प्रभात खबर समाचार पत्र खूब याद आयी। वो इसलिए कि प्रभात खबर, अपने समाचार पत्र में कुछ पृष्ठ तो झारखंड के नाम से ही निकालता था। उस वक्त जब कई समाचार पत्र जो रांची से ही प्रकाशित होते थे, झारखंड लिखने से ही परहेज करते थे, पर आज झारखंड शब्द को लिखकर गौरवान्वित हो रहे थे। जिस दिन झारखंड बना, उस दिन तो इस समाचार पत्र ने ऐसे विशेषांक निकाले, जो संग्रहणीय़ थे, पर चूंकि मैं रांची में नहीं था, वो संस्करण मुझे मिले नहीं, जो मेरे मित्र व परिजन रांची में थे, उन्हें कहां था कि वो संजो कर रखे, पर देर से आने का कारण रहा या मित्रों की याददाश्त की कमी, वो संजो कर नहीं रख सकें, पर वो विशेषांक आज तक मुझे नहीं मिले, फिर भी जो लेखकों व अन्य पत्रकारों से जो मुझे संस्मरण मिले, वो बताते कि इस समाचार पत्र ने कितनी मेहनत की थी।
झारखंड बनने के बाद, इस प्रांत में विकास के रास्ते खुले थे, जिस बिहार प्रांत में सड़कें कागजों में ही बन जाती थी, यहां सडकें दिखाई देने लगी। पुल पुलियों को ठीक कराया जाने लगा। स्कूलों में कल्याण विभाग सक्रिय दिखा। लड़कियां सायकिलों पर स्कूल जाने लगी थी। आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों के कल्याण के लिए कई कार्यक्रम शुरु किये जाने लगे थे। सरकारी स्कूलों मे बिहार पैटर्न को छोड़ सीबीएसई पैटर्न लागू कर दिया गया। बच्चों को मुफ्त में किताबे मिलने लगी। शिक्षा का स्तर सुधार होता दिखा। जहां बिजली दिखाई नहीं पड़ती थी वो बिजली अब यहां दिखाई पड़ने लगी। उद्योग धंधे खुलने शुरु हुए। कई परियोजनाओं को मूर्तरुप दिया जाने लगा। निजी कंपनियों के साथ एमओयू होने लगे, हालांकि इन एमओयू का विरोध भी हुआ। लेकिन बाबू लाल मरांडी के शासनकाल में उठी डोमिसाईल की आग ने झारखंड की प्रतिष्ठा में वो आग लगायी कि इस आग से आज भी झारखंड झूलस रहा हैं, हालांकि इस डोमिसाईल की आग को मीडिया ने भी हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक समाचार पत्र और कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों ने इस प्रकार से इस आंदोलन को हवा दी, जैसे लगा की इस आग से कभी झारखंड उबर नहीं पायेगा, पर खुशी इस बात की हैं कि डोमिसाईल की आग, अब वैसी नहीं, फिर भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रुप में ये जिंदा हैं, और इसका भय झारखंड में बाहर से आकर बसे पुराने व नये लोगों में स्पष्ट दीखता हैं।
बिहार और झारखंड अलग - अलग हैं। आज बिहार प्रगति की ओर हैं पर झारखंड प्रगति से कोसो दूर हैं। उसके कारण स्पष्ट हैं। बिहार में एक नेतृत्व और उसकी सोच साफ दिखाई पड़ती हैं, पर यहां नेतृत्व की कमी और उसकी स्पष्टता साफ दिखाई नहीं देती। बाबू लाल मरांडी के समय लगता था कि एक सोच हैं, स्पष्टता हैं, पर उसके बाद सभी में नेतृत्व करने की क्षमता और स्पष्टता का अभाव दिखता हैं। झारखंड निर्माण के बाद, आज तक झारखंड को अपना विधानसभा, अपना सचिवालय नहीं मिला और न इसे बनाने की जरुरत समझी गयी। खेल के क्षेत्र में ये प्रदेश एक मिसाल कायम कर सकता हैं, हम ये भी कह सकते है कि ये स्टेट स्पोर्टस स्टेट बनने की क्षमता रखता हैं, पर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, राष्ट्रीय खेल का समय तो यहां इस प्रकार से बार बार बदले गये कि इस प्रदेश की प्रतिष्ठा दांव पर लगती चली गयी, ऐसे देखा जाय तो खेल में बिहार झारखंड के आगे कहीं टिकता नजर नहीं आता। नया राज्य बनने के बाद राजधानी रांची को जिस प्रकार नये ढंग से बसाने की बात होनी चाहिए थी, उस पर तो आज तक कोई सुनने को तैयार नहीं, आज भी रांची की सभी सड़कों पर सड़क जाम की स्थिति सामान्य सी घटना होती हैं, यहां एक व्यक्ति को एक किलोमीटर की यात्रा संपन्न करने में एक घंटे लग जाते हैं। ये केवल राजधानी की स्थिति नहीं बल्कि झारखंड के सभी नगरों की हैं। विस्थापन, पलायन और गरीबी इस झारखंड की सबसे बड़ी समस्या हैं पर आजतक किसी ने भी इन समस्याओं को झारखंड से त्राण दिलाने की युक्ति नही निकाली।
नक्सल और झारखंड तो जैसे लगता हैं कि एक दूसरे के लिए ही बने हैं और इस नक्सल की समस्याओं को बढा़ने में, खाद और बीज का काम करते हैं यहां के राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी। राजनीतिज्ञ तो विधानसभा में कुछ और सड़कों पर नक्सलियों के लिए कुछ और बयान देते हैं। उसका मूल कारण हैं कि वो जानते हैं कि नक्सलवाद यहां की मिट्टी में किस प्रकार जड़ समा चुका हैं। कुछ तो मानते हैं कि नक्सलवाद की समस्या, यहां से कभी खत्म ही नहीं होगी, पर मैं ऐसा नहीं मानता। गर राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों में इमानदारी के गुण आ जाये, विकास के रास्ते पर कदम बढ़ा दे, नक्सलियों के साथ कठोरता से पेश आये तो ये नक्सली किस चूहे के बिल में होंगे, पता ही नहीं चलेगा। जब पंजाब से आतंकवाद समाप्त हो सकता हैं। असम समस्या को काबू में किया जा सकता हैं, तो ऩक्सलवाद किस चिड़िया का नाम हैं। सच्चाई ये हैं कि नक्सलवाद बढ़ाने में यहां के राजनीतिज्ञों के दोहरे चरित्र ने ही मुख्य भूमिका निभायी हैं। जब विकास के नाम पर लूट होगी, राजनीतिज्ञ दस पुश्तों के लिए, धन इकट्ठा करने में लगायेंगे, तो फिर नक्सलवाद कैसे नहीं बढ़ेगा। यहां भ्रष्टाचार का आलम ये हैं कि यहां एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके शासनकाल के कई मंत्री होटवार जेल में कैदी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, ये झारखंड के ऐसे बदनूमा दाग हैं, जो फिलहाल कहीं से भी धूलते नजर नहीं आते। जब - जब भ्रष्टाचार की बात आती हैं - झारखंड सूर्खियों में ही रहता हैं, चाहे वो नरसिंहराव सरकार बचाने की बात हो अथवा झारखंड प्रांत बनने के बाद एक से बढ़कर एक किये गये घोटाले की बात ही क्यों न हो।
आज यहां जो सरकार चल रही हैं - गठबंधन की। वो क्या हैं। वो भी भ्रष्टाचार की ही देन हैं। जो एक दूसरे को फूंटी आंख देखना नहीं पसंद करते, वो सरकार चला रहे हैं। क्यूं चला रहे हैं. क्या किसी को पता नहीं। खुद यहां के मुख्यमंत्री दिल्ली और विदेश की यात्राओं की झड़ी लगा दी हैं। बगल में बिहार हैं, वहां के मुख्यमंत्री तो लगता हैं कि इतनी दिल्ली यात्रा भी नहीं की होगी, जितना की यहां के मुख्यमंत्री ने एक साल में विदेश की यात्रा कर ली हैं। इसी से पता लग जाता हैं कि कौन अपने प्रांत के लिए क्या कर रहा हैं। यहीं नहीं जरा इस एक साल में देखिये -- एक ओर बिहार में सेवा का अधिकार लागू हो चुका हैं, वहीं झारखंड में सरकार ने घोषणा तो कर दी पर ये सेवा का अधिकार कब लागू होगा, इसका अभी सगुन ही देखा जा रहा हैं, ऐसे में हमें नहीं लगता कि इस 11 वें साल को पूरा कर लेने के बाद भी झारखंड में कोई नयी चीज देखने को मिलेगी, फिर भी निराशावादी से आशावादी होना अच्छा हैं। आशा करेंगे कि क्रिकेट में जैसे धौनी, सौरभ और अब वरुण ने झारखंड में आशा का संचार पैदा किया हैं। राजनीति व प्रशासनिक क्षेत्र में भी कुछ नये चेहरे दिखेंगे जो झारखंड को नयी बुलंदियों तक पहुंचायेंगे, फिलहाल जो पुराने चेहरे हैं, उनसे आशा करना बेमानी होगी, क्योंकि अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य बनता हैं। अतीत तो भ्रष्टाचार में गोता लगाता हुआ दिखा हैं, यहीं कारण हैं कि वर्तमान में कुछ हैं ही नहीं, पर देखे आगे क्या होता हैं..............

Tuesday, November 1, 2011

दरसन दीहिन अपान दीनानाथ, भेंट लीहिन हमार...............

को दस साल उस वक्त उम्र रही होगी। मां छठव्रत कर रही थी और गीत गाती जाती थी, साथ ही इशारों - इशारों में मुझे कुछ कह रही होती और मैं भी उन इशारों को समझ कर, दोनों हाथों को जोड़कर बैठ जाता, मां के गीतों के भाव सब कुछ कह देते कि वो भगवान भास्कर और छठि मईया से क्या चाहती हैं। मैं भी मां से पूछता कि मां ये छठि मईया कौन हैं, भगवान भास्कर को क्यों अर्घ्य देते हैं। मां बताती जाती, मेरा भी बालमन, एक प्रश्न का उतर जैसे ही खत्म होता कि दूसरा शुरु...। पर मां कभी गुस्साती ही नहीं। घर में छठ का होना बहुत ही अच्छा लगता, हमें पता हैं कि जिस घर में छठ होता, मुहल्ले के लोग छठव्रतियों और उऩके परिवार पर विशेष श्रद्धा लुटाते। नहाय खा के दिन तो मैं देखता कि जिसके घऱ में कद्दू फलता, वो बिना पैसे ही लिये कद्दू बांट देता, इसी तरह फलों की भी बारी होती, जिसके घर में घाघरा निंबू या केले के पेड़े होते गर उसके यहां उस कालखंड में फल प्राप्त हुए हैं तो वो स्वयं खाने के बजाय छठि मइया को भोग लगाना नहीं भूलता। पता नहीं क्यूं, मुझे आज भी याद हैं कि जब से होश आया -- तब से लेकर आज तक छठ व्रत के नहाय खा के दिन जो प्रसाद तैयार होता, उस प्रसाद के स्वाद को मैं, फिर सालों भर ढूंढने की कोशिश करता, प्राप्त ही नहीं होता, शायद छठि मइया और भगवान भास्कर के भाव का ही प्रताप हैं कि उस प्रसाद में, गजब के स्वाद मिल जाते हैं जो फिर दूसरे दिन के बाद से मिल ही नहीं पाते।
यहीं नहीं पूरा मुहल्ला दीपावली के समाप्त होते ही एक ही काम में लग जाता कि छठ व्रत को धूमधाम से कम, पर पवित्रता से अधिक मनाना हैं। सादगी खूब झलकती। साड़ी तो कम पर पीली धोती सूखाने का काम जरुर शुरु हो जाता। पीली धोती सुख रही हैं - मतलब इनके घर में छठ होना हैं। खरना के दिन कई घरों में भगवान सत्यनारायण की पूजा और शंख ध्वनि मन को और पवित्र बनाती। हमारे मुहल्ले में चूंकि किसानों के परिवार अधिक थे, इसलिए यहां सत्यनारायण की पूजा की समाप्ति के बाद झाल करतालों, ढोल के बीच - राजाराम जी की आरती, मन को और आह्लादित करती, और ठीक इसके बाद जिस दिन पहला अर्घ्य देना हैं, नवयुवकों की टोली, हाथों में झाडू लेकर सड़कों की ऐसी सफाई करती, जैसे लगता कि स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। हमारे बाबूजी भी हाथ में पानी भरा बाल्टी लेते और जहां तक हो पाता, वे सड़कों के धूलों को उड़ने न देने का विशेष प्रयास करते, पानी छिडकते, कुछ युवाओं को मैं देखता कि वे बाबूजी के पानी की बाल्टी लेने का प्रयास करते और कहते कि बाबा आप पानी मत छीटिये, हम हैं न, सब कर देंगे, आप आराम से बैठिये, आप केवल दिशा निर्देश दीजिये, पर बाबूजी हमारे कहां माननेवाले, वे कहते कि हमें भी भगवान के सेवाकार्यों में लग जाने दो। एक दिन हमने ये कहते और करते बाबूजी से पूछ ही डाला कि भगवान को आपने देखा हैं, बाबूजी कहते हां, देखा हैं, जब कोई प्रसन्नचित हो, समाज सेवा या राष्ट्रसेवा कर रहा होता हैं तो वो भगवान ही तो होता हैं। मैं बोलता तब तो हमारा सारा मुहल्ला सच्चे अर्थों में समाज सेवा में लगा हैं, तब तो सभी भगवान हैं. बाबूजी कहते कि हां ये व्रत ही स्वयं को मनुष्य और देवत्व की ओर ले जाने की प्रेरणा देता हैं, गर सभी इसी प्रकार का काम करें जैसा कि आज कर रहे हैं तो फिर इस मुहल्ले में कहीं कोई गंदगी नहीं रहेगी और न ही कोई दुखी रहेगा, क्योंकि देख रहे हो, जो कल तक एक दूसरे से लड़ते थे, वे भी आज पूछ रहे हैं कि तुम्हारे यहां जो छठव्रत हो रहा हैं, उसमें कहीं कोई दिक्कत तो नहीं, अरे वो देखों, वो तो छठ का दौरा ले जा रहा हैं, कौन हैं वो, पता चला कि अरे वो तो भिखारी भाई हैं, पर ये क्या, ये तो ऐसे व्यक्ति का दौरा माथे पर लिये हैं, जिनसे कभी उनकी पटी ही नहीं। धन्य हैं छठि मइया और भगवान भास्कर जो काम कोई नहीं कर सका, वो आपने कर दिखाया।
यहीं हाल घाटों का होता, सभी एक दूसरे को सहयोग करते नजर आते, आगे या पीछे छठव्रती नजर आते, तो लोग उन्हें पहले जाने का रास्ता दिखाते, गर साष्टांग प्रणाम कर रही होती छठव्रती, तो उनके आगे शीष नवाना नहीं भूलते, उस वक्त लोग ये भूल जाते कि वो किस जाति की हैं, बस ख्याल यहीं हैं कि वो छठवती हैं। ये परिदृश्य आज भी हमारे मुहल्ले में देखने को मिलते हैं, कभी कभी सोचता हूं कि कितना अच्छा रहता कि ये छठव्रत प्रतिदिन हो जाता, पर सच्चाई ये हैं कि जो प्रतिदिन होता हैं, उसकी महत्ता घटते देर नहीं लगती, चलिए गर एक ही दिन स्वर्ग पृथ्वी पर आ जाये और हम बावले होकर, उसका आनन्द ले, तो क्या गलत हैं।
आज एक से एक लेटेस्ट टेक्नालाजी हमारे सामने हैं, सबके पास इयर फोन हैं पर उस वक्त ले देकर, एक रिकार्ड बजानेवाला ही यंत्र था और उसमें ले देकर दो ही छठ के गीत और उसी में पूरा छठ समाप्त। वो गीत थे -- जिसमें एक तरफ था -- उ जे केलवा जे फरेला घवद से, उपर सूग्गा मोर राय, उ जे खबरि जनइवो अदित से, आदित होखी न सहाय, और दूसरा गीत था -- दरसन दिहि न अपान दीनानाथ, भेंट लीहि न हमार। जिसमें ये भी संदेश होता कि हे ईश्वर गर बेटा देना तो सभा में बैठने लायक देना, नहीं तो संख्या बढ़ानेवाला नहीं देना, बेटी जरुर देना, क्योंकि बिना बेटी के घर का आंगन नहीं शोभता। जरा गीत के बोल देखिये - सभवा बैठन के बेटा मांगिल, गोरवा दबन के पूतोह, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान..... रुनकी झूनकी बेटी मांगिल, पढ़ल पंडितवा दमाद, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान.....। ये गीत के बोल स्पष्ट कह देते कि ये व्रत आनेवाले प्रारब्ध को ठीक करने का भी पर्व हैं। पर क्या आधुनिक समाज इस संबंध में कुछ सोच रहा हैं कि जैसे ये गीत विलुप्त हो गये, हमारे चरित्र भी विलुप्त हो गये, गर ये चरित्र, उन गीतों की तरह विलुप्त हो गये हैं तो जरुरत हैं, इस ओर ध्यान देने की, नहीं तो आनेवाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
किसी भी देश में पर्व व त्योहार, इसलिए नहीं बने कि आप केवल आनन्द मनाये, इसलिए भी बने है कि आनन्द के साथ - साथ उस पर्व की व्यावहारिकता को समझे। कल एक सज्जन हमसे मिले, उन्होंने कहा कि जनाब, इतनी महंगाई है कि आदमी क्या छठ करेगा। मैंने, उनसे साफ कहा कि क्या भगवान भास्कर और छठि मइया आपसे कुछ मांगे हैं क्या, और गर आपसे वो मांग भी ले तो क्या आप उनकी मांगों की पूर्ति करने के लायक हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रकार के प्रलाप क्यों। मैंने तो देखा कि अपने मुहल्ले में कई ऐसे गरीब भी थे, जिनके पास फूंटी कौड़ी तक नहीं थी, पर वे भी छठव्रत करते, उनके उत्साह में अथवा जोश में किसी भी प्रकार की कमी नहीं दिखती। बस उपवास किया, चले गये मां गंगा के गोद में, जमकर नहाया, शरीर को रगड़ा और दोनो हाथ जोड़कर भगवान भास्कर के घ्यान में लग गये और जब अर्घ्य का वेला आया, उसी गंगा के गोद में बैठकर अथवा खड़े होकर, उसी के जल से अर्घ्य दे डाला, लीजिये व्रत संपल्न। छठि मईया खुश और भगवान भास्कर भी खुश।
कमाल की बात हैं कि जिस परम ज्ञान को आज की आधुनिक पीढ़ी विभिन्न विश्विविद्यालयों में पढ़कर नहीं प्राप्त कर सकी थी, उस परम ज्ञान को एक सामान्य, गरीब आदमी बिना कलम और किताब लिये प्राप्त कर लिया था. कि कार्तिक शुक्ल रवि षष्ठी व्रत के दिन ही आदिशक्ति का प्रादुर्भाव, भगवान भास्कर की रश्मियों में हो जाता हैं तो भला ऐसे में उन परम शक्तियों को प्राप्त क्यूं न करें। कम से कम ब्रह्मवैवर्तपुराण तो ये ही कहता हैं। शायद यहीं कारण रहा होगा कि अपने देश में एक से एक मणीषी हुए, जिन्होंने न तो कलम छूयी और न किताब पढ़ी, पर परमज्ञान को इस प्रकार पा लिया कि जिसकी परिकल्पना आज की पीढ़ी तो कम से कम नहीं ही कर सकती, क्योंकि आज की पीढ़ी तो सिर्फ ये देखती हैं कि उसे कितने का पैकेज मिलता हैं। भला छठव्रत करने से पैकेज मिलेंगे क्या, गर पैकेज मिलेंगे ही नहीं तो इससे अच्छा हैं कि वो काम करे, जिससे पैकेज यानी धन प्राप्त हो। जबकि भारत पैकेज अथवा धन प्राप्त करने का देश नहीं, बल्कि स्वयं को खोकर, दूसरे को आह्लादित व प्रसन्नचित करने वाले देश का नाम हैं। हमे लगता हैं कि छठव्रत और भगवान भास्कर का ये महापर्व यहीं संदेश सदियों से देता आ रहा हैं। धन्य हैं वो प्रांत, जहां से ये व्रत चलकर संपूर्ण विश्व में फैलता जा रहा हैं, इस परिदृश्य को देख तो मैं यहीं कह सकता हूं कि भारत जिसकी संस्कृति इतनी गहरी हैं, 21वीं सदी में अपना सशक्त व जागृत रुप अवश्य दिखायेगा।

Monday, October 31, 2011

लोकपर्व छठ की हार्दिक शुभकामनायें.............

एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्तया गृहाण अर्घ्यं दिवाकर।।






ऊं आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। (ऋग्वेद)

Wednesday, October 26, 2011

जहां राम वहीं अयोध्या, और जहां अयोध्या वहीं दीपावली.....

चपन में दीपावली पर निबंध जब लिखने को कहां जाता, तो अनायास राम की चर्चा हो जाती। दीपावली पर ये प्रसंग मैं लिखना नहीं भूलता कि जब राम 14 वर्ष के वनवास को पूरा करने के बाद अयोध्या लौटें तौ अयोध्यावसियों ने राम का स्वागत दीपावली मना कर की थी, अर्थात् अपने घरों, चौक चौराहों, सड़कों, विद्यालयों और प्रशासकीय भवनों को दीपों से ऐसा सुसज्जित किया कि उस दिन से चली आ रही ये परंपरा आज भी जीवित हैं. दीपावली हम मनाते जा रहे हैं, पर दीपावली मनाने के क्रम में ये भूल जाते हैं कि जहां राम वहीं अयोध्या और जहां अयोध्या नहीं वहां दीपावली कैसी। राम का मतलब क्या, क्या राम एक व्यक्ति हैं या चरित्र, गर राम एक व्यक्ति हैं तो हमे नहीं लगता कि वनगमन के समय, सुमित्रा लक्ष्मण को ये कहती कि---
तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भांति सनेही।।
अवध तहां जहं राम निवासू। तहंइं दिवसु जहं भानू प्रकासू।।

गोस्वामी तुलसीदास ने अयोध्याकांड में साफ कहा, कि जब लक्ष्मण को पता चला कि श्रीराम को वनगमऩ का आदेश मिला हैं, वे भी श्रीराम के साथ निकलना चाहते हैं, वे अपनी माता सुमित्रा से आदेश मांगते हैं कि माता सुमित्रा सहर्ष श्रीराम के साथ वनगमन का आदेश दे। सुमित्रा भी तनिक मन में पुत्रमोह नहीं रखती और लक्ष्मण से कह बैठती हैं जो मैंने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस से उद्धृत चौपाईयों को उपर में लिखा हैं। आजकल सामान्य जन से पूछिये कि दीपावली क्या हैं, बतायेंगे -पर्व हैं, दीये जलायेंगे, गणेश लक्ष्मी की पूजा करेंगे, मिठाईयां खायेंगे - खिलायेंगे और जितनी जेब जवाब दे, उतने का पटाखा छोड़ देंगे, दीपावली संपन्न हो जायेगी, पर दीपावली तो इन सबसे दूर चरित्र की पूजा का पर्व हैं, जो हम सबसे दूर छूटता जा रहा हैं और जहां चरित्र ही नहीं वहां ज्ञान अर्थात् गणेश का प्रादुर्भाव कैसे होगा, और जब गणेश नहीं होंगे तो सत्य मार्ग से लक्ष्मी अर्थात् धन कैसे प्राप्त होगी और जब सत्यमार्ग से लक्ष्मी आयेगी ही नहीं तो फिर संपन्नता कैसे होगी। कोई भी पर्व हमारे यहां जो आदिकाल से चला आ रहा हैं, वो ऐसे ही नहीं बन गया, उसके आधार हैं पर सच्चाई ये हैं कि हम उन आधारों को छोड़ बाह्याडंबरों और आधुनिकता में इस प्रकार खोते चले जा रहे हैं कि उसका प्रभाव हमारे दैनिक जीवन पर पड़ता जा रहा हैं और सब कुछ होते हुए भी हम बावले होकर, सपरिवार समूल नष्ट होते जा रहे हैं, समय आज भी बीता नहीं हैं, सब कुछ वहीं हैं, पर आज भी राम के चरित्र को हम अपने में समाहित कर लें तो फिर दिक्कत कहा हैं। हमारे प्राचीन मणीषियों ने तो बार - बार कहा कि -
असतो मा सदगमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योरमा अमृतंगमय
आखिर, सबसे पहले उन्होने असत्य से सत्य की और जाने की बात क्यों कहीं, इसलिए कहीं कि, कहा गया हैं - सत्य धारयति धर्मः। यानी धर्म सिर्फ सत्य को धारण करता हैं, असत्य को नहीं। फिर दूसरी पंक्ति आयी - अंधकार से प्रकाश की ओर चले। अंधकार से प्रकाश की ओर कौन जायेगा, जो सत्य को धारण करेगा, फिर हैं मृत्यु से अमरता की ओर चले, यानी मृत्यु पर विजय कौन पायेगा, जो सत्य से प्रकाशित होगा। दीपावली इसी सत्य को प्राप्त कर, स्वयं को प्रकाशित और दूसरों को प्रकाशित करने का पर्व हैं, गर आपने ऐसा कर दिया तो दीपावली मना रहे हैं, अन्यथा आप क्या मना रहे हैं, स्वयं सोच लीजिये। मैं कह ही क्या सकता हूं। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि श्रीराम वनगमऩ से लौट रहे हैं, उनके साथ सारे लोग मौजूद हैं जो रावण पर विजय प्राप्त करने के समय हृदय से सहयोग किया, वे उन्हें संबोधित कर रहे हैं, कहते हैं ------
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोउं। यह प्रसंग जानई कोउ कोऊ।।
अर्थात अवधपुरी जैसा प्रिय उन्हें कोई नहीं, और ये प्रसंग बहुत कम ही लोग जानते हैं, आखिर त्रेतायुग के इस अवधपुरी में क्या था, बस चरित्र था, और इसी चरित्र से सभी अवांछित तत्व कांपते थे, पर क्या आज वो चरित्र हमारे पास हैं, गर नहीं तो इस दीपावली को क्यों नहीं हम एक आदर्श दीपावली मनाने के लिए एक पग बढ़ाये।

Thursday, October 13, 2011

शर्म करो, टीम अन्ना के लोगों ----------


गर लोकतंत्र में हिंसा का स्थान नहीं तो लोकंतत्र में पागलपन का भी कोई स्थान नहीं। जो लोग पागलपन की हद तक जाकर ये बयान दे डालते हैं कि कश्मीरी अवाम को जबरन अपने साथ रखना देशहित में नहीं, कश्मीर से सेना हटा लेना चाहिए, वहां जनमत संग्रह कराकर, उनकी मंशा पर छोड़ देना चाहिए, कि वे भारत में रहना चाहते हैं अथवा भारत से अलग रहना चाहते हैं। ऐसे पागलों को भी सोच लेना चाहिए कि इस पागलपन से भरे बयान पर पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हो सकती हैं और ये प्रतिक्रिया उग्र रुप धारण भी कर सकती हैं, जब प्रतिक्रिया उग्र होगी तो उसका रुप क्या होगा, शायद उन्हें इसका अंदाजा नहीं। और जब अंदाजा होता हैं तो ये पागलपन से भरे बयान देनेवाले लोग हठधर्मिता भी नहीं छोड़ते, कह डालते हैं कि वे अपने बयान पर कायम हैं, उनके साथ बदसलुकी करनेवाले, ऐसे लोगों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए, जो हिंसा का सहारा लेते हैं, पर यहीं घटियास्तर के लोग जब नक्सलियों, उग्रवादियों, आतंकियों द्वारा हिंसा फैलायी जाती हैं, बड़े पैमाने पर इनके द्वारा बेकसूर मार डाल दिये जाते हैं, कश्मीरी पंडितों का समूह थोक भाव में अपने ही देश में बेगानों की तरह इधर से उधर भटकते हैं तब इनका हृदय नहीं पसीजता, लेकिन आंतकियों पर जब नकेल हमारी सेना, हमारे जवान डालते हैं तो इनका हृदय पिघलने लगता हैं और वे जेल में बंद अथवा जेल के बाहर आंतक फैलाने में मशगूल नरपिशाचों यानी आतंकियों के समर्थन में बयान देने से भी नहीं चूकते। ये वहीं लोग हैं जो टीम अन्ना में भी मौजूद हैं - प्रशांतभूषण जैसे लोग इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। अरुंधति राय, स्वामी अग्निवेश न जाने कितने ऐसे लोगों की जमात हैं जो मानवाधिकार संगठनों के नाम पर नक्सलियों और आतंकियों के लिए प्राण वायु का काम करते हैं। मैं पत्रकार हूं, हमने देखा हैं कि ये जब भी देश के किसी ऐसे क्षेत्रों का दौरा करते हैं और जब उन दौरों में स्थानीय पत्रकारों को रखने की बात होती हैं तो एक सिरे से इसे नकारते हैं और जब कभी ज्यादा दबाब पड़ा तो अपने समर्थकों में ही किसी को पत्रकार बनाकर प्रोजेक्ट करते हैं और देश के विरुद्ध आग उगलते हैं। इन्हीं के घटियास्तर के बयानों से चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को भारत के विरोध में बोलने और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को नीचा दिखाने में बल मिलता हैं, पर भारत सरकार आज तक ऐसे लोगों पर नकेल नहीं कस सकी और न ही ऐसे लोगों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा ही कर सकी। ये अलग बात हैं कि भाजपा और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां हमेशा से कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा कहने में नहीं चूकती, पर इन घटियास्तर के व्यक्तियों, जिनकी देशसेवा में कभी रुचि नहीं रही, जिनका ज्यादातर समय देशतोड़क और देश की सीमाओं को छोटा करने में ज्यादा लगता हैं, इनके खिलाफ आज तक न तो बयान आया और न ही प्रतिक्रिया। ऐसे में देश के युवा चूड़ियां पहनकर तो बैंठेंगे नहीं, उनके दिमाग में जो आया कर दिया या करेंगे। जरुरत हैं कि जो लोग दिल्ली या महानगरों के आलीशान बंगलों में, एसी में बैठते या जीवनयापन करते हैं, जिन्होंने न तो खुद और न ही कभी उनके खानदान में किसी ने देश के लिए प्राण न्योछावर किया हैं, जिनके खानदान में आजतक किसी ने सेना में अपना योगदान नहीं दिया हैं और न आनेवाले दिनों में कोई इनके खानदान से ऐसा योगदान देगा, क्योंकि इन्होंने इतना पैसा कानून के पचड़ों से कमा लिया हैं कि ये कानूनी दांव पेच में ही अपने पूरे खानदान को लगाकर अपना और देश का सत्यानाश करेंगे, ऐसे पागलों से देश और भारतीय सेना के पक्ष में बयान सुनने को मिलेगा, ये मूर्खता के सिवा कुछ नहीं। इसलिए. हे टीम अन्ना के प्रशांत भूषण जैसे घटियास्तर के विचारकों, तुम इसी तरह देश को सीमा को छोटा करने का बयान देते रहो, पर समझ लो कि जिनके इशारे पर जो तुम बयान दे रहे हो, वहीं भारत के शत्रु तु्म्हारी इस हरकत के लिए ऐसा दंड देंगे कि तुम्हारा नाम विभीषण की श्रेणी में आ खड़ा होगा। क्योंकि विभीषण के भ और ष तुम्हारे नाम से भी जूड़े हैं। मैं तो भारत माता से यहीं प्रार्थना करुंगा कि तुम जैसे लोग अपने कोख से पैदा नहीं करें, न ही तो ये देश कभी खड़ा नहीं हो पायेगा। हमारी सेना - पाकिस्तान और चीन से क्या लड़ेंगी, जब तुम जैसे लोग भारत में ही रहकर पाकिस्तान और चीन की भाषा बोलते हैं। शर्म करो - टीम अन्ना के लोगों शर्म करों। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हो और खुद भ्रष्ट आचरण दिखाते हो, भारत की जमीं का अन्न खाते हो और भारत के खिलाफ ही आग उगलते हो।

राष्ट्रनिर्माण का पर्व - विजयादशमी........


विजयादशमी - आज ही के दिन भगवान श्रीराम को महाशक्ति दुर्गा ने विजयी भव का आशीर्वाद दिया था। महाशक्ति के आशीर्वाद से ही भगवान श्रीराम ने रावण पर विजय पायी। सीता को उसके चंगुल से ही नहीं छुड़ाया बल्कि जो वचन उन्होंने विभीषण को दिया था - लंकेश कहकर, उस वचन को भी निभाया। बाद में अपने भाई लक्ष्मण के साथ पुनः अयोध्या लौटे और अवध की संस्कृति को जनजन तक पहुंचाया। यहीं नहीं उन्होंने मर्यादा की अद्भुत मिसाल कायम की। उस मर्यादा की जिसके कारण उनका एक नाम मर्यादा पुरुषोत्तम भी पड़ गया। पुत्र के रुप में, पति के रुप में, शिष्य के रुप में, पिता के रुप में और एक प्रजापालक राजा के रुप में राम की मिसाल शायद किसी लोक में देखने को नहीं मिलती। यहीं कारण हैं कि उनकी प्रशंसा वेदों ने भी गायी हैं ये कहकर कि राम आपके जैसा दूसरा इस त्रैलोक्य में नहीं हैं।
जरा ध्यान दीजिये -------------
आज जो भारत की स्थिति हैं., वैसी ही स्थिति राम के समय भी थी। भारत की सभ्यता और संस्कृति व आध्यात्मिक शक्ति पर रावण की नजर थी, उसकी सेना व गुप्तचर अयोध्या की सीमा तक पहुंच चुके थे, स्थिति ये थी की कोई सुरक्षित नहीं था। महर्षि विश्वामित्र को इसका आभास था -- इसलिए भारत को अखंड रखने के लिए, अपने यज्ञ को बीच ही छोड़कर अयोध्या पहुंचते हैं और महाराज दशरथ से राम और लक्ष्मण को मांग लेते हैं। इन्हीं राम और लक्ष्मण को महर्षि विश्वामित्र बातों ही बातों में परीक्षा लेते हैं कि इन बालकों में जिन पर देश की सुरक्षा का भार होगा, क्या वे इस योग्य हैं। वे ताड़का से भिड़वाते हैं और पल ही भर में दोनों राम और लक्ष्मण ताड़का को मार गिराते हैं। महर्षि विश्वामित्र को विश्वास हो जाता है कि जिन बालकों को उन्होंने विद्या ग्रहण कराने के लिए चुना हैं, वे हर भांति योग्य हैं और वे अपने पास पड़ी विद्या को सहर्ष राम और लक्ष्मण को सौप देते है। यही विद्या राम और लक्ष्मण को वनगमन और सीताहरण बाद में रावण पर विजय पाने में भी अक्षरशः सत्य साबित हुई।
विजयादशमी संकल्प लेने का पर्व हैं -- ये उत्साह और जोश भरने का पर्व नहीं, बल्कि संकल्पित होकर देशसेवा के व्रत लेने का दिन हैं। अपने अंदर चरित्र निर्माण और देश निर्माण का व्रत लेने का पर्व हैं। वो भी व्रत कैसा, लाखों संकट क्यों न आ जाये, पर धैर्य नहीं खोना हैं। राम की तरह अटल रहना हैं, गर राम की तरह आप अटल रहोगे तो तुम्हारी जय अवश्य होगी, पराजय का तो सवाल ही नहीं उठता। राम की शक्ति देखिये -- राम को जो कैकेयी वनवास देती हैं, जो मंथरा राम के बारे में सपने में भी अच्छा नहीं सोचती, उस पर भी कृपा लूटाते हैं। शबरी के घर जाकर जूठे बेर खाने में भी उन्हें आपत्ति नहीं होती, वे वानरों और भालूओं के बीच रहकर भी आनन्द महसूस करते हैं, उनके सेना में तो ज्यादातर वानर भालू ही थे, पर एक गिलहरी जो उनके समुद्र पर पुल बनाने के लिए योगदान दे रही होती हैं तो उस पर भी उनकी कृपा पहुंच ही जाती हैं और उसे भी आनन्द देने में तनिक देर नहीं लगाते। महर्षि वाल्मीकि की रामायण हो या तुलसी की श्रीरामचरितमानस गर समय मिले तो पढ़े, पायेंगे कि राम ने सिर्फ दिया, लिया नहीं। जो देता हैं वहीं सर्वश्रेष्ठ हैं जो पा लिया वो कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता, सर्वश्रेष्ठ की तो बात ही भूल जाईये।
यहीं कारण है कि राम के आगे सभी नतमस्तक हैं -- कबीर की पंक्तियां हो या रविदास की पंक्तियां या इन पंक्तियों को पाकर किसी ने अपना जीवन धन्य धन्य कर लिया हो, राम तो राम हैं, उन्हीं में समाने में आऩन्द हैं, शायद विजयादशमी भी यहीं बार - बार कहता हैं कि जैसे राम ने रावणरुपी चरित्र का अंत कर दिया, आप भी अपने अंदर समायी हुई बुराई रुपी रावण का अंत कर लो, ताकि जीवन आपका राममय हो जाय।

Thursday, September 15, 2011

क्या किसी पत्रकार और राजनीतिज्ञ के बीच पति-पत्नी जैसे संबंध हो सकते हैं......?

14 सितम्बर 2011, दिन के 11 बजे, रांची का एटीआई हॉल, मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा का प्रेस कांफ्रेस, इलेक्ट्रानिक व प्रिंट के छायाकारों और पत्रकारों साथ ही राज्य के आला अधिकारियों से पूरा एटीआई खचाखच भरा हैं। मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा पत्रकार सम्मेलन को संबोधित करने एटीआई पहुंचते हैं, तभी मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव डी के तिवारी, अपने सीट से उठते हैं और माईक से कुछ बोलना शुरु करते हैं। अचानक वे तपाक से ये भी बोल देते हैं कि मुख्यमंत्री और आप पत्रकारों के बीच का रिश्ता पति - पत्नी जैसा होता हैं, इसलिए अब हम मुख्यमंत्री को कहेंगे कि वे आप पत्रकारों को संबोधित करें। इधर मुख्यमंत्री अपनी बातें रखना शुरु कर देते हैं। वे बताते हैं कि किन विकट परिस्थितियों में उन्होंने राज्य की बागडोर संभाली और कैसे एक साल का मार्ग सुगमता से तय किया। जब तक वे बोल रहे होते हैं - सभी पत्रकार , उनकी बातों को ध्यान से सुन रहे हैं। एक साल की अपनी कार्यकुशलता को बताने में मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को काफी समय लग जाता हैं। इसी बीच मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा द्वारा पत्रकारों के संबोधन के बाद कुछ पत्रकार, मुख्यमंत्री से सवाल जवाब करते हैं। सवाल - जवाब भी ऐसा कि पूछिये मत। उन सवालों को मैं लिख भी नहीं सकता। पत्रकारों के सवालों से साफ लग रहा था -- कि मुख्यमंत्री के आगे नतमस्तक होने की जिजीविषा संवाददाताओं में पलने लगी हैं, ताकि जब कभी समय मिले, वे मुख्यमंत्री से कृपा पा जाये। आश्चर्य इस बात की भी कि किसी पत्रकार ने ये सवाल नहीं पूछा कि क्या एक पत्रकार का संबंध किसी राजनीतिज्ञ से पति - पत्नी का हो सकता हैं, गर पति पत्नी जैसा संबंध राजनीतिज्ञों और पत्रकारों के बीच होगा। तो फिर क्या ऐसे में उस राज्य अथवा उस राजनीतिज्ञ या जनता का भला होगा। गर नहीं तो फिर पति - पत्नी का संबंध कैसे। चूंकि उस पत्रकार सम्मेलन में मैं भी गया था -- मुझसे रहा नहीं गया। मैने पूछ दिया कि मुख्यमंत्रीजी पहली बार किसी अधिकारी वह भी डी के तिवारी के मुंह से सुनने को मिला कि पत्रकारों और आपके बीच संबंध - पति पत्नी का हैं, तो इसमें आप ये बतायें कि पत्रकार और राजनीतिज्ञ यानी आप के बीच में पति कौन हैं और पत्नी कौन हैं, और जब पति -- पत्नी का संबंध हैं तो फिर पति - पत्नी के बीच जब संवाद होता हैं तो उसमें तीसरा कोई नहीं होता -- ये अधिकारी पत्रकारों और आपके बीच में दीवार क्यों बन रहे हैं, इनकी क्या आवश्यकता। फिर क्या था -- पूरा एटीआई हंसी के ठहाकों से गूंज उठा। इसी दरम्यान डी के तिवारी उठे और कुछ टोका टाकी की। मैंने स्पष्ट कह दिया कि वे आराम से बैठे और मुझे सवाल करने दे, गर सवाल नहीं करने देंगे तो मैं इस पत्रकार सम्मेलन से उठकर चल दूंगा। मुख्यमंत्री ने हस्तक्षेप किया और उन्होंने मुझे प्रश्न पूछने दिया। मैंने इसी ठहाकों के बीच पूछा कि क्या आपके द्वारा कन्यादान योजना चलायी गयी थी उसका क्या हुआ। उ्दयोग के प्रसार के लिए सिंगल विंडो सिस्टम चालू किया गया था क्या हुआ। मनरेगा की क्या स्थिति हैं। जलसंरक्षण के लिए कानून बनाने की बात की थी, उसका क्या हुआ। दूसरी ओर नार्थइस्ट के उग्रवादियों के पांव, झारखंड तक पहुंच गये, सरकार क्या कर रही हैं। मुख्यमंत्री ने अपने उत्तर में कहा कि सबसे पहले मैं आपके पहले प्रश्न का उत्तर दे दूं कि -- ये शोध का विषय हैं कि हममें से पति कौऩ हैं और पत्नी कौन हैं और ये शोध आप पत्रकार ही करें तो बेहतर होगा। फिर एटीआई ठहाकों से गूंज उठा। बाकी बचे प्रश्नों का उत्तर उन्होंने गोलमटोल दिया, जैसा कि आम तौर पर एक राजनीतिज्ञ देता हैं। अब बात चिंतन की, क्या अब राज्य के पत्रकार, राजनीतिज्ञों के पत्नी की रोल में पत्रकारिता करेंगे या उनका कोई सम्मान हैं, गर सम्मान हैं तो अब यहां के पत्रकारों को ही सोचना होगा कि क्या करें कि, फिर कोई अधिकारी फिर कभी किसी राजनीतिज्ञ की उन्हें पत्नी बनाने की कोशिश नहीं करें, नहीं तो पत्रकारिता की जो स्थिति हैं वो तो भगवान भरोसे हैं। ज्यादातर पत्रकारों ने अपनी स्थितियां खुद ही बिगाड़ ली हैं, ऐसे में कोई अधिकारी गर कुछ और नये शब्दों का प्रयोग पत्रकारों के लिए कर दें तो ये अतिश्योक्ति नहीं होगी।

Saturday, September 10, 2011

एक वर्ष अर्जुन मुंडा के शासन के ---------------------

गर एक पंक्ति में कहे तो झारखंड में झारखंड के दुर्भाग्य ने अभी तक पीछा नहीं छोडा़ हैं, सबसे पहले उपलब्धियों की बात करें, जिसको लेकर अर्जुन मुंडा ने अपनी पीठे थपथपायी हैं----

1. ये मैं नहीं, अर्जुन मुंडा का कहना हैं कि उन्होंने 32 वर्षों के बाद पंचायत चुनाव सफलता से करा दी, अब पूरे राज्य में पंचायती शासन व्यवस्था लागू हैं।
2. राष्ट्रीय खेल करा दिया, जो पिछले कई वर्षों से टलता जा रहा था।
3. राज्य में सेवा का अधिकार लागू कर दिया।
4. गठबंधन की सरकार, शानदार ढंग से चला रहे हैं, किसी को किसी से कोई दिक्कत नहीं, विपक्ष लगातार हमले कर रहा हैं,
पर उनकी सरकार निरंतर बिना किसी बाधा के चलती ही जा रही हैं।
जनाब, अर्जुन मुंडा जी,
इस देश में 28 प्रांत और 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं, सभी जगह सरकारें चल रही हैं, पर जिस तरह आप चला रहे हैं, वैसी ही चल रही हैं क्या। गर नहीं तो मेरे सवालों का जवाब दीजिये -------
सवाल नं. 1 - आपके नेता लालकृष्ण आडवाणी भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकालने की बात कर रहे हैं, आप बतायेंगे कि आपके यहां भ्रष्टाचार समाप्त हो गयी हैं क्या, गर नहीं तो भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए आपके पास क्या योजनाएं हैं, उत्तर होगा -- कुछ नहीं। रही बात भ्रष्टाचार के आपके शासनकाल के रिकार्ड की तो एक नहीं कई बार कैग ने आपके शासनकाल के समय की खर्च के बारे में जो ब्यौरे दिये हैं, वो बताने के लिए काफी हैं कि आप के शासनकाल में भ्रष्टाचार के क्या रिकार्ड रहे हैं।
सवाल नं. 2 - आपने पंचायती शासन व्यवस्था तो लागू कर दी, पर सच्चाई ये हैं कि आज तक उन्हें अधिकार ही नहीं दिया गया और जब अधिकार ही नहीं दिये जायेंगे तो पंचायत चुनाव हो अथवा न हो, क्या फर्क पड़ता हैं।
सवाल नं. 3 - राष्ट्रीय खेल करा दिया, पर क्या आपने राष्ट्रीय खेल संपन्न कराने के बाद इस पर श्वेत पत्र जारी किया, गर आप श्वेत पत्र जारी करेंगे तो पता चलेगा कि इस राष्ट्रीय खेल को संपन्न कराने में भ्रष्टाचार ने कितने रिकार्ड तोड़ें हैं। राष्ट्रीय खेल समाप्ति के बाद तो महिला आयोग की सदस्य ने तो प्रेस कांफ्रेस कर साफ कर दिया कि राष्ट्रीय खेल के दौरान किस प्रकार सेक्स रैकेट चलानेवालों ने झारखंड की संस्कृति को तार-तार किया। और कैग की रिपोर्ट ने भी बता दिया कि यहां राष्ट्रीय खेल की तैयारी में कैसे कैसे गोरखधंधे हुए हैं।
सवाल नं. 4 - राज्य में सेवा का अधिकार लागू कर दिया, पर आपके पास न तो पर्याप्त संख्या में प्रशासनिक अधिकारी हैं और न कर्मचारी तो फिर आप सेवा का अधिकार लागू कैसे करेंगे, अरे आपके इस सेवा का अधिकार का हाल, ठीक सूचना के अधिकार कार्यालय जैसा होने जा रहा हैं।
सवाल नं. 5 - क्या ये सही नहीं हैं कि 11 सितम्बर को सत्ता संभालने के बाद, मंत्रिमंडल विस्तार में आपको पसीने छूट गये, करीब एक महीने के बाद आपके मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, उसमें भी कई मंत्री अपने विभागों को लेकर असंतुष्ट थे, जिसे मनाने में ही ज्यादा समय बीत गया।
सवाल नं. 6 - राज्य में भूख और गरीबी का आलम ये हैं कि अच्छी मानसून के बावजूद लोगों का पलायन जारी हैं, आदिवासी महिलाएं आज भी बड़े - बड़े महानगरो में शोषण की शिकार होती जा रही हैं, और इन भूख और गरीबी से त्राण दिलाऩे के लिए चलायी जा रही मनरेगा योजना आपके राज्य में पूरी तरह फेल हैं। स्थिति ये हैं कि 9 सितम्बर 2011 को मनरेगा पर आपके आवास के ठीक पंद्रह - बीस कदम की दूरी पर एटीआई में सोशल आडिट चल रहा था पर आपने उसमें भाग लेने की जहमत नहीं उठाई, नतीजा ये रहा कि विभागीय मंत्री समेत सभी वरीय अधिकारी इस महत्वपूर्ण बैठक से गायब रहे।

सवाल नं. 7 - अतिक्रमण की आग ने पूरे राज्य को उद्वेलित किया। अतिक्रमण की आग की आड़ में एक नगर ही आपने तबाह करा दी, उस नगर के लोग आज भी इधर से उधर भटक रहे हैं आपकी सरकार ने पुनर्वासित करने की बात भी कही थी, पर क्या आप बता सकते हैं कि वे कहां पुनर्वासित हैं, जहां जाकर मैं देख सकूं कि वे लोग आनन्दित हैं।
सवाल नं. 8 - आपने न्यायालय में शपथ पत्र दायर किया कि पूरे राज्य से अतिक्रमण हटा लिया गया हैं, पर सच्चाई क्या हैं, वो आप भी जानते हैं और हम भी जानते हैं, आज भी रांची का मेनरोड ये बताने के लिए काफी हैं कि अतिक्रमणकारियों ने किस प्रकार रांची की शक्ल बिगाड़ दी हैं, पर आपको तो गरीबों को उजाड़ने में कुछ ज्यादा ही आनन्द आता हैं।
सवाल नं. 9 - आपके सरकार के एक साल पूरे हो गये। इसी साल में आपने बजट सत्र के दौरान 15,300 करोड़ रुपये का बजट पारित कराया और छह महीने बीत गये, उस समय से लेकर, आज के समय तक आपने मात्र 1425.38 करोड़ रुपये खर्च किये, यानी मात्र साढ़े नौ प्रतिशत ही खर्च कर पाये, ऐसे में शेष बचे छह माह में क्या कर लेंगे।
सवाल नं. 10 - जब आपके पास बजट सत्र की राशि बची हुई हैं तो फिर प्रथम अऩुपूरक बजट की आवश्यकता क्यों पड़ गयी।
सवाल नं. 11 - आपके यहां 34 विभाग हैं, जिसकी कुल योजनाएं - 410 हैं, पर सच्चाई ये हैं कि इनमें से 328 योजनाओं में तो अभी तक काम ही नहीं शुरु हुआ, ऐसे में आप जव विकास की बात करते हैं तो सामान्य जनता को हंसी आती हैं, यानी 80 प्रतिशत योजनाओं में तो काम ही अब तक नहीं शुरु हुआ। कमाल हैं 34 विभागों में 18 विभाग तो ऐसे हैं जिसमें या तो सिर्फ एक योजना प्रारंभ हुई या एक भी नहीं।
सवाल नं. 12 - मुख्यमंत्री आदिवासी हैं, इनके गुरुजी आदिवासी हैं पर इन्ही के राज्य में आदिम जनजातियों के लिए दो वर्षों में एक भी आवास नहीं बन सका है। आखिर क्यों।
सवाल नं. 13 - भारत सरकार की शहरी आवास योजना के तहत आपको मिला पैसा, ऐसे ही धूल फांक रहा हैं, पर आपने इस ओर ध्यान हीं नहीं दिया, पता नहीं क्यों।
सवाल नं. 14 - आपकी सरकार ने जनता से वायदा किया कि तीन महीने के अंदर नया राशन कार्ड सबको मिल जायेगा, क्या हुआ सभी को राशन कार्ड मिल गया। आपने जो योजना चालू की थी, बीपीएल परिवारों को एक रुपये प्रतिकिलो अनाज देने की, क्या सबको मिल रहा हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रकार की ढपोरशंखी योजना चलाने से मतलब।
सवाल नं. 15 - पहले खनिज नीति के अनुसार - 2006 के अनुसार - आयरन ओर बाहर नहीं जायेगा। पर आज उसकी क्या स्थिति हैं, अपने अंदर झांक कर देखे।
सवाल नं. 16 - आपही के मंत्री मथुऱा महतो, टाटा सबलीज पर कुछ कहते हैं और मुख्यमंत्री कुछ कहते हैं, टाटा सबलीज की फाईल 6 दिसम्बर 2010 से आखिर कहां गुम हो गयी।
सवाल नं. 17 - आपके शासनकाल में ट्रांसफर पोस्टिंग उद्योग इस प्रकार फला - फूला हैं कि पूछिये मत। कोई ऐसा विभाग नहीं, जहां ट्रांसफर - पोस्टिंग न हुआ हो, ऐसे भी आपकी जब भी सरकार बनी हैं, तो सबसे पहले आपका ध्यान इसी ओर जाता हैं।
सवाल नं. 18 - मुख्यमंत्री बनने के बाद दिल्ली और नागपुर की आपने खूब सैर की। न्यूयार्क - बर्लिन तक चले गये। जनता को इससे क्या मिला। आपने अपने बच्चे की बेहतर इलाज के लिए अमरीका तक की यात्रा की। यहां की गरीब जनता पूछती हैं कि उनके गरीब बेटे की इलाज की बेहतरी के लिए आपने राज्य में कौन ऐसी बेहतर सेवा शुरु करा दी। आप आज भी देखे यहां के लोग मामूली मलेरिया से दम तोड़ रहे हैं।
सवाल नं. 19 - विधि व्यवस्था का आलम ये हैं कि आपके शासनकाल में दो जेलब्रेक की घटना हो गयी - एक चाईबासा और दूसरा आपका ही विधानसभा क्षेत्र - सरायकेला - खरसावां। इससे बड़ी शर्मनाक बात और क्या हो सकती हैं।
सवाल नं. 20 - आज भी आपके मंत्रिमंडल में शामिल मंत्रियों की बात, राज्य के अधिकारी हवा मं उड़ा देते हैं, सुनते ही नहीं। ऐसे में आपके शासन का भगवान ही मालिक हैं। गर इसे आप शासन कहते हैं तो कह लीजिये पर आनेवाले समय में मुझे नहीं लगता कि जनता आपको माफ करेगी। जमशेदपुर चुनाव तो एक ट्रेलर था, पूरी फिल्म जब विधानसभा के चुनाव होंगे तो जनता दिखा देगी। तब तक के लिए आप शासन का सुख भोगिये।

Saturday, August 27, 2011

भारतीय होने का गर्व -----------------


न्ना के आगे केन्द्र सरकार नतमस्तक हो गयी। एक दो को छोड़ संपूर्ण विपक्ष अन्ना के साथ हो लिया। पूरे देश की निगाहें आज संसद और रामलीला मैदान में गड़ गयी थी। हुआ वहीं, जो देश चाहता था। इस देश में कई आंदोलन हुए, एक आंदोलन गांधी ने किया था। दूसरा आंदोलन जयप्रकाश नारायण ने किया और तीसरा आंदोलन अन्ना हजारे का देखने को मिला। गांधी और गांधी के आंदोलन को मैंने नहीं देखा, जब जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन छेडा था, उस वक्त मेरी उम्र सात साल की थी, पर 1977 के लोकसभा चुनाव में, मैं दस साल का हो गया था, और उस वक्त एक छोटे से डंडे में चक्रबीच हल लिये किसान का झंडा लेकर, खूब इधर – उधर घूमा था। लोग बताते हैं कि उस वक्त भी भ्रष्टाचार ही मुद्दा था, जिसमें जयप्रकाश का ये आंदोलन सफल हुआ। उस वक्त से लेकर आज तक 37 साल हो गये। बहुत सारे आज के युवा तो न तो गांधी और न ही जयप्रकाश के आंदोलन को ही देखा हैं, ऐसे में जिन्होंने अन्ना के इस आंदोलन को देखा होगा। उन्हें अनुभुति हो गयी होगी कि सद्चरित्र, सत्याग्रह और अहिंसा में कितनी ताकत होती हैं।
दिल्ली का रामलीला मैदान जहां 4 जून को रामदेव भ्रष्टाचार के खिलाफ शंखनाद करते है। केन्द्र सरकार, थोड़ी ढिलाई बरतती हैं, पर वे थोड़ा और उग्र होते हैं, पर जैसे ही केन्द्र उनको अपनी औकात दिखाती हैं तो वे दिल्ली के रामलीला मैदान से महिलाओं की पोशाक पहन कर भागते हैं। उसके बाद उनके बालकृष्ण और उनकी संस्थाओं पर क्या – क्या दाग लगते हैं, सभी को पता हैं। ठीक दुसरी ओर रामदेव की आंदोलन को हवा निकालनेवाली कांग्रेस, जब अन्ना के आंदोलन की हवा निकालने की बात करती हैं, तो अन्ना बड़े ही शांत स्वभाव से चुनौती देते हैं कि बताओ उनमें कौन कौन सा दाग हैं, हालांकि कांग्रेस के नेता मणीष तिवारी और सुबोधकांत सहाय जैसे लोग घटिया स्तर की बात करने से नहीं चूकते। कांग्रेस से संबंध रखनेवाले तो इंटरनेट पर अन्ना हजारे के मान मर्दन करने से भी नहीं चूकते, पर जब उन्हें पता लगता है कि अन्ना के साथ जनता हैं तो वे धीरे – धीरे बैकफुट पर आते नजर आते हैं। बैकफूट भी ऐसा कि आज 27 जुलाई एक ऐतिहासिक दिन बन गया। केन्द्र ने संसद में लोकपाल विधेयक पारित करा दिये। प्रधानमंत्री का पत्र लेकर विलासराव देशमुख, दिल्ली के रामलीला मैदान पहुंचे और अन्ना ने अपना अनशन तोड़ने की घोषणा कर दी।
कमाल हैं कि पहला ऐसा आंदोलन देखने को मिला, जहां शांतिपूर्ण ढंग से जनता आंदोलित थी। कहीं कोई हिंसक घटनाएं नहीं। सभी अन्ना – अन्ना रट रहे हैं। एक नारा तो इस दौरान गजब लगा – मैं अन्ना हूं। सचमुच पूरे देश और विश्व ने इस दौरान देखा कि बिना किसी हिंसा और किसी शोर-शराबे के भी जीत दर्ज की जा सकती हैं।
सचमुच आज गांधी जीवित थे --------- अन्ना के आंदोलन के रुप में। जिन्होंने गांधी जी को नहीं देखा, वो शायद अन्ना को देख लें। मैं एक नहीं कई बार कहा हूं, कि जिसके पास चरित्र होता हैं, वहीं आंदोलन खड़ा करता हैं। इसमें एक बात और कि धन की चाहत रखनेवाला व्यक्ति कभी भी आंदोलन नहीं खड़ा कर सकता, ये अटल सत्य हैं, हमारे पुराण और स्मृतियां इसके प्रमाण हैं।
अन्ना के आंदोलन और उसकी जीत पर हर भारतीयों को गर्व हैं, एक प्रकार से संपूर्ण विश्व को एक संदेश की देखों भारत में कैसे सरकार एक सामान्य जनता के आगे झूक जाती हैं। ये संदेश नक्सलियों को भी कि तुम बार-बार हिंसा फैलाते हो, पर कोई आंदोलन खड़ा नहीं कर सके और न व्यवस्था बदल सकें पर देखों की, एक सामान्य व्यक्ति ने कैसे अपनी जीत सुनिश्चित कर ली। वह भी बिना किसी हिंसा और शोर शराबे के।
एक सबक उन नेताओं को भी, कि जो बार-बार इस आंदोलन के पीछे आरएसएस और भाजपा का हाथ बताया करते थे, आज अपने ही इस बयान पर शर्मसार और अऩ्ना नाम केवलम् मंत्र का जप कर रहे थे।
क्या पूरे विश्व में आप कोई ऐसा देश का नाम बता सकते हैं कि जहां इस प्रकार से आंदोलन चला हो। जहां कोई हिंसा न हुआ हो। लोग 12 दिनों से एक रामलीला मैदान में जमकर, एक 74 व्यक्ति के साथ एकजूटता प्रदर्शित कर रहे हो। नहीं न। तो बस याद रखिये, अपने देश में ऐसा हुआ हैं। आज का दिन ऐतिहासिक हैं भारत की 121 करोड़ आबादी के लिए, क्योंकि उनके सामने एक अनोखी घटना घटी हैं। जो ऐतिहासिक, रोमांचित और पूरे विश्व में भारत के लोकतंत्र की विजयगाथा की कहानी गढ़ रही हैं। आज की घटना से हमें दृढ़ विश्वास हो चला हैं कि 21 वीं सदी भारत का हैं। बस यहां के युवाओं को इसी तरह भारत के आदर्शों पर चलने की सिर्फ जरुरत हैं।

Wednesday, August 24, 2011

झुकती है दुनिया, झुकानेवाला चाहिए------ अन्ना, मीडिया और केन्द्र सरकार !

कल तक भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं था, पर आज भ्रष्टाचार मुद्दा है। भ्रष्टाचार पर संसद के अंदर और संसद के बाहर बहस हो रही हैं। होना भी चाहिए क्योंकि इस भ्रष्टाचार ने भारत की प्रगति और उसके सपनों को प्रभावित किया है, और हमें ये कहने में कोई दिक्कत नहीं हो रही कि इसके लिए गर कोई दोषी है तो वह है – केन्द्र सरकार, और खुलकर बोले तो – कांग्रेस सरकार। इसी सरकार ने भ्रष्टाचार के बीज बोए, जो आज विशाल वटवृक्ष बनकर देश को सुरसा की तरह निगलता जा रहा हैं।आश्चर्य इस बात की हैं कि ये सरकार अपने किये पर पछतावा भी नहीं करती, बल्कि ठीक उसके उलट भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़नेवालों को ही सबक सीखा देती हैं। उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। आगे लिखने के पहले मैं एक बार फिर कह देना चाहता हूं कि जो फिलहाल भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे है, या टीवी के माध्यम से जो भीड़ दिखाई पड़ रही हैं, वे सभी दुध के धूले हुए होंगे – ऐसा नहीं हैं, पर जनता के अंदर ही जनार्दन (ईश्वर) हैं इसलिए जनता के खिलाफ बोलना अपराध हैं, साथ ही जो केन्द्र में बैठे नेता ये बयान देते हैं कि संसद सर्वोच्च हैं और जो निर्णय लिये जायेंगे वो संसद के माध्यम से ही निर्णय लिये जायेंगे। तो शायद उन्हें ये पता नहीं कि जो लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं, वे संसद की गरिमा पर सवाल न उठाकर वहां बैठे उन भ्रष्ट लोगों के खिलाफ अंगूली उठा रहे हैं, जिन्होंने संसद में शपथ लेने के बाद भी भ्रष्टाचार के रिकार्ड बनाये है।कमाल हैं आम जनता महंगाई से पीस रही हैं। हास्पीटल में उसका समुचित इलाज नहीं हो पा रहा। उनके बच्चे अच्छी पढ़ाई से वंचित हो रहे हैं। ए ग्रेड की नौकरियों से आम जनता गायब हैं। पर इन नेताओं को देखिये – महंगाई का इनके उपर कोई असर ही नहीं पड़ता, ये गर बीमार पड़े तो इलाज के लिए अमरीका, ब्रिटेन और फिर स्वास्थ्य लाभ के लिए स्विटजरलैंड का दौरा करेंगे। अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए विदेश भेजेंगे और ये बच्चे जब वहां से लौटेंगे तो इन्हें ए ग्रेड की नौकरी थमवायेंगे और जब कुछ नहीं हुआ तो नेता का पद खाली हैं ही। जिंदा रहे तो बहुत सारे चांस हैं, नहीं तो मरने पर बेटे अथवा बेटियों का स्थान सुरक्षित हैं ही। जिस देश में इस प्रकार के सिद्धांत प्रतिपादित होते हो, वहां भ्रष्टाचार नहीं फलेगा फूलेगा तो और क्या फलेगा फूलेगा।मेरा आज भी मानना हैं कि इस देश को गर खतरा हैं तो वह हैं – चरित्रहीनों से। इस देश में चरित्रहीनों की संख्या बढ़ती जा रही हैं, और चरित्रवानों की संख्या घटती जा रही हैं, ठीक उसी तरह जैसे भारत से जंगलों और उसमें रहनेवालों सिहों की संख्या प्रभावित हो रही हैं। जब भी किसी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की, कि सत्ता में बैठे भ्रष्ट दलालों ने, ऐसा ताना बाना बुना कि वह व्यक्ति अपने सम्मान को बचाने के लिए, सदा के लिए अपना मुंह ही बंद कर लिया, पर इस देश में जब भी किसी चरित्रवान ने सत्ता के दलालों को भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनौती दी, सत्ता भड़भड़ाकर, उस व्यक्ति के चरणों के आगे नतमस्तक हो गयी। उसका उदाहरण – अन्ना के रुप में सामने हैं।अन्ना क्या है, अन्ना ऐसा क्यूं कर रहे हैं, अन्ना को किसने ऐसा करने को कहा। इन सवालों के जवाब देने में मैं असमर्थ हूं। पर शायद भारत की जनता को लग रहा हैं कि इस व्यक्ति ने जो सवाल उठाये हैं – देशहित में हैं। इसे सत्ता का लोभ भी नहीं। इसलिए इसका समर्थन करना चाहिए। आज बड़ी संख्या में जनता इनके साथ है और जहां जनता होती हैं, जीत उसी की होती हैं, शायद केन्द्र की सरकार को इसका भान नहीं हैं। तभी तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन करने की बात करनेवाले अन्ना के आंदोलन को कुचलने का हरसंभव प्रयास करती हैं और जब आंदोलन को कुचलने में नाकाम रहती हैं तो विधवा प्रलाप करती हैं।कमाल हैं एक बूढ़े अन्ना ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठायी तो कांग्रेस के युवराज राहुल कहा हैं, उनके बयान कहां गये – पता ही नहीं चल रहा। इधर कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी, अन्ना के खिलाफ तुमताम पर उतर आते हैं। इधर कांग्रेस के एक मंत्री सुबोधकांत सहाय, दिग्विजय सिंह की तरह बयान देते हैं कि अन्ना को रांची के पागलखाने में सिफ्ट कर देना चाहिए। शायद कांग्रेस के इन दिग्भ्रमित नेताओं को पता नहीं कि यहां की जनता बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रही हैं, उस मौके का, जब इन नेताओं को, यहां के लोग पागलखाने भेजने में मह्त्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे।कमाल हैं – अंग्रेज यहां का धन लूट कर, इंग्लैंड ले जाते थे, तो बात समझ में आती थी कि वे विदेशी हैं। अपने देश को वैभवशाली बनाना चाहते हैं। पर भारतीय नेता यहां के धन विदेशों में ले जा रहे हैं, अपना ज्यादातर समय़ विदेशों में व्यतीत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भारत से प्रेम करते हैं, भारत को वैभवशाली बनाना चाहते हैं, आखिर ये दोहरा चरित्र दिखानेवाले इन भारतीय नेताओं पर यहां की जनता विश्वास कैसे करें। यहीं कारण हैं कि जनता का सरकार पर से विश्वास उठ चुका हैं और भ्रष्टाचार के इस सवाल पर फिलहाल अन्ना के निकट जनता ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रही हैं। पिछले दो दिनों से भारत की जनता उद्वेलित हैं। वो जानना चाहती है कि अन्ना के साथ आखिर केन्द्र सरकार ऐसा सलूक क्यों कर रही हैं। आखिर अन्ना ने क्या गलती कर दी कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जब गिरफ्तार कर लिया गया, गिरफ्तारी के कारण गिना दिये गये तो फिर अचानक रात होते होते उनकी रिहाई की बात कैसे हो गयी। शायद दिल्ली में बैठी कांग्रेस सरकार को आभास हुआ होगा कि जैसे रामदेव के आंदोलन को उन्होंने कुचल दिया। सीबीआई और अन्य एजेंसियों को लगाकर रामदेव के हालत पस्त कर दिये ठीक उसी प्रकार से अन्ना की हवा निकाल देंगे। हालांकि अन्ना के इस आंदोलन की हवा निकालने के लिए, कांग्रेसियों ने अन्ना के चरित्र पर अंगूली ही नहीं बल्कि उनके खिलाफ कई झूठे दस्तावेज भी इंटरनेट पर उपलब्ध कराये, पर वो अपने इरादे में सफल नहीं हो सके। उलटे केन्द्रसरकार ही शर्म से मुंह छुपाने का प्रयास करती रही। रामदेव के आंदोलन की तो भद्द पीटनी ही थी, क्योंकि रामदेव खुद को संत बताते हैं, पर रामदेव संत नहीं बल्कि ये विशुद्ध व्यवसायी हैं और इनका व्यवसाय करोंड़ों – अरबों में हैं और विदेशों में भी फैला हैं और जो कारोबार करता हैं, वह कारोबार धर्म का हो, या चूरन – चटनी का। व्यवसाय, व्यवसाय होता हैं। पूरी तरह से वणिक कर्म होता हैं, जहां झूठ ही झूठ का बोलबाला होता हैं। ऐसे में एक झूठ बोलनेवाला, दूसरे झूठ बोलनेवाले के खिलाफ आंदोलन करेगा या भिड़ेगा तो उसमें जो मजबूत होगा वहीं जीतेगा। और ये अवश्यम्भावी थी कि इसमें जीत कांग्रेस की होनी ही थी, पर अन्ना के साथ ऐसा है ही नहीं। अन्ना के पास न तो बैंक बैलेंस हैं और न कोई पारिवारिक चाहत। ऐसे में जिसके पास केवल सत्य ही सत्य हो, तो भला उसे कोई कैसे हरा सकता हैं। यहीं कारण रहा कि जब – जब अन्ना ने केन्द्र को चुनौती दी। केन्द्र की हालत भीगी बिल्ली जैसी होती रही और ये स्थिति बराबर होती रहेगी, क्योंकि ये देश गांधी का देश हैं, कृष्ण और राम का देश हैं। यहां असत्य जब – जब सत्य से टकराया हैं, हारा है और इस बार भी हारेगा।जनलोकपाल विधेयक लाना ही होगा और पीएम तथा न्यायपालिका को उसके दायरे में लाना ही होगा, क्योंकि ये अन्ना की मांग नहीं, बल्कि आम जनता की मांग हैं। इसलिये सरकार हठधर्मिता छोड़े और जनता की मांग माने, नहीं तो याद रखें जैसे 1974 के आंदोलन का प्रभाव 1977 में दिखा था, 2011 का ये आंदोलन भी रंग दिखाकर रहेगा। इसमें किसी को संदेह नहीं रखना चाहिए।

Saturday, August 6, 2011

एक थी चिड़िया..........

बचपन में अपनी मां से मैंने बहुत सारी कहानियां सुनी। उन कहानियों को मैं चाहकर भी नहीं भुला सकता। सारी कहानियों में बाल मनोविज्ञान साफ झलकता था, साथ ही जीवन में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष की क्या महत्ता हैं, वो भी साफ देखने को मिलता, ऐसे ही कुछ कहानियों में से एक हैं ---- एक थी चिड़िय़ा।


एक चिड़िया थी।
उसे कहीं से दाल मिला, वो दाल लेकर जैसे ही उड़ी, उसकी दाल किसी खूंटे में जा गिरी। वो खूंटे में फंसे दाल को निकालने की जुगत लगायी पर कोई जुगत काम नहीं आयी, अंत में वो एक बढ़ई के पास पहुंची और बोली................
बढ़ई – बढ़ई खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी।
बढ़ई बोला – एक दाल के लिए हम खूंटा चीड़ने जाये, नहीं जायेंगे। चिड़िया – बड़ी दुखी हुई, वो इसके बाद राजा के पास गयी और बोली –
राजा राजा बढ़ई दंड,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी।
राजा बोला – एक दाल के लिए, हम बढ़ई को दंडे, नहीं दंडेगे, जाओ यहां से। चिड़िया बड़ी दुखी हुई, वो रानी के पास गयी और बोली-------------
रानी रानी राज बुझाव,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा मे मोर दाल भात,
का खायी, का पीहीं,
का ले परदेस जायी।,
रानी बोली – कि एक दाल के लिए हम राजा को बुझावे, ऐसा नहीं होगा। जाओ यहां से। चिड़िया बड़ी दुखी हुई वो सर्प के पांस गयी और बोली ---
सर्प सर्प रानी डस,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
सर्प बोला – कि एक दाल के लिए रानी को डसने जाये, नहीं जायेंगे, जाओ, यहां से। चिड़िया बड़ी दुखी हुई वो लउर के पास गयी और बोली --
लउर- लउर सर्प पीट,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीही,
का ले परदेस जायी,
लउर बोला कि एक दाल के लिए हम सर्प पीटे, नहीं पीटेंगे, जाओ। चिड़िया बड़ी दुखी हुई, वो अब अपना दुखड़ा लेके भाड़ के पास गयी और बोली-------
भाड़ भाड़ लउर जार,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी, का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
भाड़ बोला कि एक दाल के लिए हम लउर जार दे, नहीं होगा। जाओ यहां से। चिड़िया समुंदर के पास गयी और बोली-------
समुंदर समुंदर भाड़ बुझाव,
भाड़ न लउर जारे,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
समुंदर बोला कि एक दाल के लिए हम भाड़ बुझावे। नहीं बुझायेंगे, जाओ यहां से। चिड़िया इसके बाद हाथी के पास गयी और बोली -----------
हाथी हाथी, समुंदर सोख,
समुंदर न भाड़ बुझावे,
भाड़ न लउर जारे,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
हाथी बोला कि एक दाल के लिए हम समुंदर सोखे। नहीं सोखेंगे। जाओ यहां से। फिर चिड़िया, जाल के पास गयी और बोली ------
जाल जाल, हाथी छान,
हाथी न समुंदर सोखे,
समुंदर न भाड़ बुझावे,
भाड़ न लउर जारे,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
जाल बोला कि एक दाल के लिए हम हाथी छानें। नहीं छानेंगे, जाओ यहां से। चिड़िया बड़ी दुखी हुई वो चूहा के पास गयी।
चूहा चूहा जाल काट,
जाल न हाथी छाने,
हाथी न समुंदर सोखे,
समुंदर न भाड़ बुझावे,
भाड़ न लउर जारे,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंड़े,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी, का पीहीं,
का ले परदेस जायी,
चूहा बोला कि एक दाल के लिए हम जाल काटे, नहीं जायेंगे, जाओ यहां से, चिड़िया बड़ी दुखी हुई, वो बिल्ली के पास गयी।
बिल्ली बिल्ली चूहा चाप
चूहा न जाल काटे,
जाल न हाथी छाने,
हाथी न समुंदर सोखे,
समुंदर न भाड़ बुझावे,
भाड़ न लउर जारे,
लउर न सर्प पीटे,
सर्प न रानी डसे,
रानी न राज बुझावे,
राजा न बढ़ई दंडे,
बढ़ई न खूंटा चीरे,
खूंटा में मोर दाल भात,
का खायी, का पीहीं,
का ले परदेस जायी।
बिल्ली बोली चिड़िया से बताओ चूहा कहां हैं, हम उसको चापेंगे।
फिर क्या था,
चूहा डरते हुए बोला,
कि हमरा के चापे, उपे मत कोई
हम जाल काट बलोई,
जाल बोला,
कि हमरा के काटे उटे मत कोई,
हम हाथी छान बलोई,
हाथी बोला,
कि हमरा के छाने उने मत कोई,
हम समुंदर सोख बलोई,
समुंदर बोला,
कि हमरा के सोखे उखे मत कोई,
हम भाड़ बुझाये बलोई,
भाड़ बोला,
कि हमरा के बुझावे उझावे मत कोई,
हम लउर जार बलोई,
लउर बोला,
कि हमरा के जारे उरे मत कोई,
हम सर्प पीट बलोई,
सर्प बोला,
कि हमरा के पीटे उटे मत कोई,
हम रानी डस बलोई,
रानी बोली,
कि हमरा के डसे उसे मत कोई,
हम राज बुझाये बलोई,
राजा बोला,
कि हमरा बुझावे, उझावे मत कोई,
हम बढ़ई दंड बलोई,
बढ़ई बोला,
कि हमरा के दंडे उंडे मत कोई,
हम खूंटा चीर बलोई,
खूंटा बोला,
कि हमरा के चीरे उरे मत कोई,
हम अपने से फांट बलोई,
इस प्रकार खूंटा फंट गया,
और चिड़िया अपना दाल लेकर उड़ गयी.......................

Sunday, July 17, 2011

उस देश की हालत क्या होगी, जिस देश में डाकू चोर बसे


जब मुंबई में बम ब्लास्ट हुआ, लोगों की चीत्कार से समस्त देशवासी हिल गये। उस वक्त हमारे नेता किस प्रकार की बयानबाजी कर रहे थे, अपना समय कैसे गुजार रहे थे। जरा उस पर प्रत्येक देशवासी को विचार करना चाहिए। विचार ये भी करनी चाहिए कि जिनकी इतनी घटियास्तर की सोच हो। क्या उनके देख रेख में अपना देश सुरक्षित हैं, गर नहीं तो ऐसे हालात में हमें क्या करना चाहिए।
मुंबई ब्लास्ट के बाद सबसे पहले, इस देश के घटियास्तर के नेताओं का बयान सुनिये--------
घटियास्तर का नेता नं. एकदिग्विजय सिंह – ये कहता है कि पाक में तो हर दिन धमाके होते हैं, हम उनसे बेहतर।
घटियास्तर का नेता नं. दो
राहुल गांधी, जो खुद को युवराज, भविष्य का प्रधानमंत्री और पता नहीं क्या क्या विभूषित करा रखा हैं, इसका बयान आता हैं कि अफगानिस्तान, ईरान – इराक में भी होते हैं आतंकी हमले, आतंकी हमले को रोकना मुमकिन नहीं हैं।
घटियास्तर का नेता नं. तीन
गृहमंत्री पी. चिदम्बरम – जो गृह मंत्रालय संभाल रहा हैं, कहता हैं कि खुफिया एजेंसी ने 31 महीने तक मुंबई को बचाये रखा।
घटियास्तर का नेता नं. चारराज ठाकरे – महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का स्वयंभू- इसका देश महाराष्ट्र से शुरु होता हैं और महाराष्ट्र पर ही खत्म हो जाता हैं, कहता हैं कि इस आतंकी घटना के लिए उत्तर भारतीय जिम्मेवार।
घटियास्तर का नेता नं. पांच
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह – जो झूठी दिलासे दिलाते हुए कहता हैं सरकार भविष्य में आतंकी हमले नहीं होने देगी और इसी पार्टी का,
घटियास्तर का नेता नं. छः
पर्यटन मंत्री सुबोध कांत सहाय, जिसकी आंखों में शर्म तक नहीं, उधर लोग चीख चिल्ला रहे थे, ये अर्द्धनग्न युवतियों के दृश्यों को अपने आंखों में कैद कर रहा था।
ये सारी घटनाएं बताती हैं कि हमारे देश के नेता कितने निर्लज्ज, बेहया और कायर है। इन्हें आतंकियों की आहट सुनायी नहीं देती। क्योंकि आतंकियों के धमाके, इनके परिवारों को प्रभावित नहीं करते। करेंगे भी कैसे। आतंकी इनके मेहमान और रिश्तेदार जो होते हैं। याद करिये, कि जब रुबिया सईद का अपहरण हुआ था तो हमारे देश के कर्णधारों ने कैसे पांच आतंकियों को ससम्मान छोड़ दिया था। ऐसे उदाहरण एक नहीं, अनेक है।
हम भारतीय भी इस आतंकी घटनाओं के लिए कम जिम्मेवार नहीं है। याद करिये, केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, कारगिल युद्ध के बाद, एक भारतीय विमान का आतंकियों ने अपहरण किया। उस विमान में आतंकियों के गिरफ्त में जिनके परिवार के सदस्यों का जीवन खतरे में था, उन्होंने बलिदान की भावना को त्याग कर
देश हमारा भाड़ में जाये,
मेरा परिवार घर को आये,

इस भावना के तहत, प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री कार्यालय का घेराव कर दिया। नतीजा क्या हुआ, एक अरब का देश भारत, आतंकियों के आगे सर झूकाया। तीन पाकिस्तानी आंतकी छोड़े गये, और नतीजा सामने है। ये आंतकी हमेशा आतंक के बल पर हमें घिघियाने को विवश करता हैं, हम घिघियाते हैं, और उसके रहमोकरम पर रहने को विवश हैं।
वो देश जो हर पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को ये गीत गाता हैं कि
"लाख फौजे लेके आये
अमन का दुश्मन कोई
रुक नहीं सकता,
हमारी एकता के सामने
हम वो पत्थर हैं, जिसे
दुश्मन हिला सकते नहीं.
अपनी आजादी को, हम हरगिज मिटा सकते नहीं
सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झूका सकते नहीं।"
कमाल हैं ये गीत गानेवाला देश, जब – जब सर कटाने की बारी आयी। आतंकियों के आगे सर झूकाया हैं, वो सिर्फ मैंने ही नहीं, बल्कि पूरा विश्व देखा हैं कि भारत में अब महाराणा प्रताप, चाणक्य, गुरु गोविन्द सिंह जैसे महापुरुष नहीं पैदा हो रहे, अब शत प्रतिशत कायर और अपने पत्नी के लिए जीनेवाले, लोग पैदा हो रहे हैं और जिस देश में ऐसी पौध होगी, वो देश आतंकियो के रहमोंकरम पर ही जिंदा रहेगा। ये शाश्वत सत्य हैं और गर कोई इसे नकारने की बात करता हैं, तो उसकी मूर्खता पर हमें कुछ भी बातें नहीं करनी।
अब जबकि पूरा देश आतंकियों के गिरफ्त में है, तो हमें क्या करना चाहिए। ये यक्ष प्रश्न, उस हर देशवासी के हृदय में हैं, जो देश के लिए सोचता हैं। उनके लिए, कुछ सुझाव हैं
1. नेताओं के बातों पर ध्यान न दें, ये गद्दार है, गद्दारी करेंगे, और अंत में अपने लिए, अपने शव पर तिरंगा भी डलवा लेंगे। ऐसे लोगों से सावधान रहे।
2. जहां भी रहे, ये मन में ध्यान रखें कि ईश्वर आपके साथ हैं, गर आप दुनिया में नहीं भी रहेंगे तो आपके परिवार का भरण पोषण करनेवाला ईश्वर आपके परिवार को देखेगा। आप देश के लिए मरने को तैयार रहे, कहीं भी कोई आतंकी घटनाएं होती हैं, उस पर आंसू न बहाये, न रोए, उसका मुकाबला करें, किसी की हिम्मत नहीं कि इस देश और इसकी संस्कृति को मिटा सकें।
3. आतंकी विदेश में नहीं हैं, इसी देश में हैं, विदेश से तो इनके गिने चुने आका ही आते हैं, और हम सबकी नींद उड़ा देते हैं, आप अपने आसपास जहां रहते हैं, वहां जैसे ही बाहरी लोगों को देखे, सतर्क हो जाये।
4. आतंकी जब भय दिखाकर, हमें डिगा सकने का इरादा रखते हैं, तो हम भी उन्हें भय दिखाये कि यहां रहना तुम्हारे लिए मौत को आमंत्रण देना हैं, लेकिन आप जैसे ही इन आतंकियों को जिंदा पकड़ेंगे तो ये नेता उन्हें बचाकर विदेश पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे, जैसा कि पूर्व में आतंकियों को छोड़कर और जेलों में आज भी कई आतंकियों की आवभगत कर हमारे देश के नेताओं ने एक सुंदर उदाहरण पूरे विश्व को दे दिया हैं।
5. हमारे देश के कानून में इतना दम ही नहीं कि कोई आतंकी बच कर निकल जाये, ये कानून सदियों पहले अंग्रेजों के द्वारा बनाये गये थे, जो अंग्रेज अपने लिए बनाये थे ताकि इसका फायदा उठाकर वे विदेश चले जाये। इन्हीं कानूनों को कांग्रेसी सरकार ने यथावत् स्वीकार कर लिया, जिसका दंश हमारा देश आज भी झेल रहा हैं।
6. जो नेता, आपको सांप्रदायिक कहकर, आपको नीचा दिखाने की कोशिश करें, उसे ही देश का सबसे पहला गद्दार माने, क्योंकि इनकी संख्या सुबाहु, मारीच की तरह बढ़ती जा रही है।
7. अपने घरों में महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सरदार पटेल, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सरोजिनी नायडू, लक्ष्मीबाई आदि महानायकों व महानेतृयों के विचारों को सुने और सुनाये। अपने बच्चों को ये जरुर बतायें कि इस देश की प्राचीन संस्कृति क्या रही हैं। कैसे ये देश सदियों से हमलावरों का दंश झेलते रहा हैं, कैसे इसी देश के गद्दारों ने दूसरे देश के लोगों के साथ मिलकर भारत के स्वाभिमान को बेच दिया और कैसे इतनी दुर्घटनाओं का दंश झेलने के बाद भी भारत आज भी खड़ा हैं, जबकि इस देश में गद्दारों की कमी नहीं हैं।
8. अपने बच्चों को कायर न बनाएं, देशभक्त बनाएं।
9. वंदे मातरम् और भारत माता की जय को हृदयंगम करें। कुछ नेताओं को इन नारों से चीढ़ होती हैं, ये चीढ़ क्यों होती हैं, आप खुद समझ सकते हैं। इसलिए इन बातों पर ध्यान न दें।
10. महत्वपूर्ण ये नहीं कि कौन कितने दिन जीया, महत्वपूर्ण ये हैं कि वो जितने दिन जीया, कैसे जीया। अंततः देश के लिए जीये और देश के लिए मरे।

Thursday, July 14, 2011

नेता पर लेख.............................


नेता एक दोपाया और खतरनाक जंगली जानवर होता है। मनुष्यों की तरह इसके भी दो आंख, दो कान, एक नाक और एक मुंह होते है, पर अपने दिमाग और पेट में रहनेवाले ज्वलनशील विचारों और कीटाणुओं के कारण ये आम आदमी से अलग हो जाता है। ये जानवर पूरे विश्व में अलग – अलग शक्लों में पाया जाता है और सभी जगह की जनता इनसे त्रस्त होती रहती है। ये वोट के चलते अपने देश को भी दांव पर लगा सकता है। इसका आवास संसद, विधानसभा और उनके पार्टी कार्यालय होते है। नेताओं के विचार से ओतप्रोत होकर, इनकी पत्नियां और इनके बेटे और बेटियां भी अनुप्राणित होती है, और देश की सामाजिक संरचना को चूहों और छुछुंदरों की तरह कुतरती रहती है। इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य अपने देश की सम्मान को दूसरे देशों के आगे गिरवी रखना, अमरीका, स्विटजरलैंड, इटली तथा वेटिकन सिटी जैसे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के आगे ताता-थैया करना होता हैं और जो इनके खिलाफ बोल रहा होता हैं, उसे सांप्रदायिक और देशद्रोही करार देकर फांसी पर लटका देना ही मुख्य मकसद होता हैं। जो आंतकी इस देश के खिलाफ आग उगलते हैं, ये नेता उनकी आरती उतारनें में अपनी शान समझते हुए, अपने खानदानों और अपने दल के कार्यकर्ताओं को, उसके पक्ष में जय जयकार करने का नारा देने का प्रस्ताव भी रखता हैं।
अपने देश में फिलहाल ऐसे नेताओं की संख्या 90 से 95 प्रतिशत हैं। इन नेताओं के आगे पत्रकारों की टोली भी चल रही होती हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे जंगलों में शेरों के पीछे – पीछे सियारों और गीदड़ों की टोली चल रही होती हैं। जैसे शेर किसी का शिकार कर, अपना भोजन ग्रहण करने के बाद जूठन छोड़ देता हैं, फिर उस जूठन को सियार या गीदड़ खाते हैं, ठीक उसी प्रकार पत्रकारों का दल इन नेताओं के पीछे-पीछे चलकर खुद को अनुप्राणित कर रहा होता हैं। ऐसे दृश्य चुनावों के समय अथवा समय – समय पर बराबर दिखाई पड़ता हैं, पर किसी को इनके खिलाफ बोलने का अधिकार नहीं होता, क्योंकि इनके खिलाफ बोलने पर, इन नेताओं के द्वारा विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने का अधिकार भी मिला होता हैं, जिसका ये नेता बराबर सदुपयोग करता रहता हैं। अब तक लाखों – करोड़ों लोग, इन नेताओं के शिकार बन चुके हैं, और बनने को कुछ तैयार भी हैं, पर फिलहाल इस जानवर से बचने के लिए, न तो डाक्टरों ने किसी टीके का इजाद किया हैं और न ही आनेवाले समय में इनसे मुक्ति मिलने के आसार है।
नेताओं का पेट ----------------
नेताओं का पेट ही इनकी बड़ी विशेषता हैं – आप कोई भी गैरकानूनी काम करें, इसके पेट में आप मुंहमांगी रकम डाल दें, आप मुक्त हो जायेंगे। इनका पेट ऐसा हैं, कि कभी भी इनका भूख शांत नहीं होता, ये डाकघर की डाकपेटी के समान हैं, कि कभी भी इनका पेट भरता नहीं। आप लाख इन पर घोटालों का केस करे, भ्रष्टाचार का आरोप लगायें, इनका बाल बांका नहीं होता, थोड़ी दिन तक तो ये जेल जाता हैं, पर जल्द ही जेल से निकल कर शेखी बघारता हैं। उसका उदाहरण ये हैं कि आजादी के बाद से अब तक किसी नेता को सजा ही नहीं मिली, क्योंकि नेता कभी गलत हो ही नहीं सकता, क्योंकि वो नेता है।
आजादी से लेकर अब तक कई हास्य कवियों ने इन नेताओं पर चुटकियां ली, पर इन नेताओं पर, इसका असर नहीं दिखता, क्योंकि भगवान इन्हें फुर्सत के क्षण में विशेष रुप से बनाया होता हैं, इसलिए नेता को आप कुछ भी नाम दें, वो नेता ही रहता है। आजकल नेता बनने का दौर चल गया हैं, इसलिए इनकी जनसंख्या बढ़ रही हैं। हाल ही में हुए जनगणना के दौराऩ इनकी संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई हैं, इसलिए पार्टियों और नेताओं की संख्या भी बढ़ रही हैं, इन नेताओं पर परिवार नियोजन का भी असर नहीं पड़ रहा हैं, ताकि ये नियंत्रित हो सकें, लेकिन इन्हें नियंत्रित करने के लिए पूरे देश में एक नये तकनीक पर काम चल रहा हैं, जिस दिन वो तकनीक बन गयी, ये नेता भी नियंत्रित हो जायेंगे, ऐसा तकनीक बनाने में लगे, वैज्ञानिकों का दावा हैं।
वैज्ञानिकों का ये भी कहना हैं कि आगामी 2020 तक नेताओं को नियंत्रित करने के टीका का इजाद कर लिया जायेगा, तब तक आप नेताओं के जंगली व्यवहार का शिकार होने से बचने के लिए, खुद ठोस प्रयास करें, फिलहाल एड्स और कैंसर की तरह नेताओं के काट से बचने के लिए कोई दवा बाजार में उपलब्ध नहीं हैं।

निम्नलिखित प्रश्ऩों के उत्तर संक्षेप में दें ----------------------
क. नेता, मनुष्यों से कैसे अलग हो जाता है ?
ख. नेता वोट के चलते क्या – क्या कर सकता हैं ?
ग. नेताओँ के पेट की क्या विशेषताएं हैं ?
घ. वैज्ञानिकों ने क्या दावा किया हैं ?
ङ. पत्रकारों और नेताओं में क्या संबंध हैं, वो इन संबंधों को किस प्रकार निभा रहा होता हैं ?